मैं आठवीं क्लास में थी। मेरे साथ पढ़ने वाली बहुत सारी लड़कियों को पीरियड्स आ चुका था। मुझे लेट आया या शायद मैं बेसब्री से इंतज़ार कर रही थी। इंटरवल में खाना खाने के बाद बचे हुए समय में हम लोग लड़कों की तरह खेलने के बजाय बातें करते थे।
क्लास की सभी लड़कियां खासकर सारी फर्स्ट बेंचर्स एक बड़ा सा गोला बनाकर बैठ जाती थीं। इस गोले को लीड करती थी बैक-बेंचर्स ग्रुप की एक लड़की। यही एक ऐसी क्लास थी जहां वे लोग सच में हमसे आगे थीं।
वे हमें पीरियड्स, उनसे जुड़ी कहानियां, मिथ, बाल कब धोना है कब नहीं, दाग लग जाए तो कैसे छुपाना है, ये सारा ज्ञान देती थीं। हमने पीरियड्स के लिए कई नाम रखे थें, जैसे ईटा-बीटा, वाटर-प्रदूषण, बहना और ना जाने क्या-क्या। ये सारे नाम सिर्फ इसलिए रखे गए थे ताकि लड़कों से पीरियड्स छुपा सकें।
मैं हर दिन भगवान से पूछती थी कि आखिर ऐसा क्या हो गया कि मेरी सारी फ्रेंड्स को पीरियड्स आ गए मगर मुझे इतना टाइम लग रहा है। कभी-कभी लगता था कहीं कोई बीमारी तो नहीं हो गई है जो इतना टाइम लग रहा है।
मम्मी से पूछ नहीं सकते थे क्योंकि कभी उनसे इस बारे में कोई बात नहीं की थी। जब तक एक बेक बेंचर्स वाली क्लास में उस पर ज्ञान नहीं प्राप्त हुआ था, तब तक तो सैनिटरी नैपकिन को मैं और भाई बैंड-ऐड भर मानते थे।
एक दिन मॉनिटर होने के नाते मैं क्लास को शांत करा रही थी कि अचानक मेरी कमर में तेज़ दर्द हुआ। ऐसा दर्द जिसे मैंने कभी महसूस नहीं किया था। सामने बैठी अपनी सहेली को जब बताया तो उसके साथ बैठे लड़कों ने योग करने की सलाह दी।
मैंने भी वहीं खड़े-खड़े दो-तीन पोज़ मार लिए। घर आकर मम्मी को बताया तो उन्होंने गलत सोने की वजह बताकर बात को टाल दिया। दूसरी सुबह मैं बच्ची नहीं रही, मेरी गिनती बड़ी लड़कियों में होने लगी थी। मम्मी ने मुझे सैनिटरी नैपकिन निकालकर दिया था।
छप्पर से टंगी रस्सी काटना, देर-सवेर नहाना, अकेले एक कमरे में रहना, ऐसा कोई भी नियम नहीं करवाया गया था मुझसे। नानी ने भगवान से दूर रहने के लिए बोला था इन दिनों। शिव भगवान का नाम तो भूल से भी नहीं लेना है ऐसा बताया था मगर मैं तो ठहरी शिव-भक्त।
अच्छा, आपको जब तकलीफ होती तो आप किसको आवाज़ देते हैं? अपने माता-पिता को ना? तो आखिर मैं कैसे शिव भगवान को याद ना करूं वो भी तो मेरे पिता हैं।
हां, इस दौरान मम्मी की एक बात ने मुझे बहुत रुलाया और परेशान किया था, वो यह कि अब मुझे अपने भाइयों से दूर रहना होगा, उनको टच नहीं करना होगा।
मौसेरे भाइयों को मिलाकर हम कुल पांच लोगों की टीम थे जिसमें मैं अकेली लड़की थी। मम्मी की इस बात ने तो मेरे पाँव के नीचे से ज़मीन निकाल दी थी। सच कहूं तो मम्मी ने सही बातों को समझाने के लिए गलत शब्दों का उपयोग कर लिया था।
उन्हें मुझे समझाना था उस शक्ति के बारे में जिसकी बदौलत मैं अपने अन्दर एक जीवन को पाल सकती थी। मुझे जानकारी देनी थी उन बुरी निगाहों से बचने की जो मेरे शरीर में आ रहे एकाएक बदलावों पर गौर कर रही थीं।
देर से ही सही उनकी कही गई बातों का सही मतलब मैनें ढूंढ लिया था। मैं उस पुरे हफ्ते स्कूल नहीं गई थी मगर आने वाले अगले सभी महीनों में अटेंडेंस पूरी थी।
मुझे अपने पीरियड्स कभी भी बोझ नहीं लगे। मैंने साइकिलिंग भी की, मैंने सीढ़ियों का भी बराबर इस्तेमाल किया। मुझे अपने कपड़े पर लगे लाल दाग को कभी भी अपने पापा या भाई से छुपाना नहीं पड़ा।
स्कूल से लेकर ऑफिस तक मुझे कभी कोई नहीं मिला जिसने पीरियड्स को लेकर भेदभाव किया हो। ऑफिस में मेरी कुर्सी के पीछे बैठने वाले सर ने कई बार डिस्कशन के दौरान पीरियड्स को लड़कियों से भी बेहतर तौर पर समझा और समझाया था।
वहीं, शहर से दूर मेरे गाँव की बाकी लड़कियों की कहानियां मुझसे बहुत अलग हैं, उनके साथ वो सब कुछ बीता है जिसका सामना मुझे नहीं करना पड़ा।
एक दीदी तो बताती हैं कि उनके मामा के घर लड़कियां गंदे कपड़े को बार-बार धोकर इस्तेमाल करती थीं क्योंकि गाँव में गंदा कपड़ा फेंकने पर जादू-टोना होने का डर था।
कितनी अजीब-सी बात है ना, एक ही परिवार की दो लड़कियों की कहानी कितनी अलग होती हैं। अलग बस इसलिए क्योंकि जानकारी का आभाव है। शायद अगर क्लास की बैक बेंच पर बैठने वाली लड़कियां मुझसे पीरियड्स को लेकर इतनी बातें ना करतीं तो मैं भी कभी इसे लेकर सहज ना हो पाती और कभी ना कह पाती, आई लव माय पीरियड्स।