कोरोना की महामारी से पूरा भारत अस्त व्यस्त हो गया है। जहां एक ओर हम इस गंभीर बीमारी से लड़ रहे हैं, वहीं दूसरी तरफ जीवन-यापन के कई मार्ग इस कोरोना की महामारी और लॉकडाउन के कारण बंद हो चुके हैं।
कोटा में बहुत बड़े-बड़े और नामी कोचिंग संस्थान हैं जिनमें हर वर्ग के स्टूडेंट्स कोचिंग करने जाते हैं मगर मै कहूंगा मुख्यत: अमीर और मध्यम वर्गीय परिवार के स्टूडेंट्सल जिनके पास लाखो रुपये हैं, वे ही अपने बच्चों को कोटा कोचिंग नगरी भेजते हैं।
लॉकडाउन के बाद हज़ारों स्टूडेंट्स कोटा में फंसे हुए हैं, जिनको हाल ही में उत्तर प्रदेश सरकार ने करीब 250 बसें भेजकर कोटा में फंसे स्टूडेंट्स को वापस बुलाया।
इसी तरह मध्यप्रदेश सरकार ने भी कोटा में फसे करीब 1197 स्टूडेंट्स को वापस लेन के लिए 71 बसें भेजीं। इसी तरह और कई राज्यों की सरकारें इस मामले में स्टूडेंट्स की मदद कर रही हैं। यह एक बहुत ही अच्छी पहल है जिसकी तारीफ भी होनी चाहिए मगर क्या यह दोहरा चरित्र नहीं है?
क्यों मज़दूरों के लिए बसें नहीं चलाई जा सकती?
भारत में लाखों-करोड़ों की संख्या में मज़दूर सडकों पर भूखे-प्यासे भटक रहे हैं मगर उनकी सुनने वाला कोई नहीं है। हालात बद से बत्तर हैं, सैकड़ों किलोमीटर पैदल चलकर यदि मज़दूर वर्ग घर पहुंच भी जाएं तो यह खुशकिस्मती ही होगी।
देश के मज़दूर वर्ग के साथ इस तरह का सौतेला बर्ताव पूरी तरह से निंदनीय है। भारत के कई बड़े-बड़े राज्यों से मज़दूर काम की तलाश में दिल्ली, मुंबई, कोलकत्ता और बंगलौर आदि जैसे अन्य बड़े-बड़े महानगरो का रुख करते हैं, इनमें से अधिकतर मज़दूर प्रतिदिन काम करते हैं और कमाते हैं।
साफ शब्दों में कहूं तो रोज़ कमाओ खाओ। अब इस लॉकडाउन की स्थिति में ना इन मज़दूरों के पास कुछ काम है और ना ही कोई आय का श्रोत। ये भूखे मरने पर विवश हैं। पलायन के अलावा इनके पास और कोई ज़रिया नहीं है।
इस भयंकर स्थिति में भी क्या सरकारें इन्हें बसें उपलब्ध नहीं करा सकती हैं? क्या ये मज़दूर बस एक वोट के अलावा और कुछ नहीं हैं? सवाल बहुत हैॆ मगर जवाब की कोई उम्मीद नही है।
कोटा के कोचिंग स्टूडेंट्स को राहत देने की कुछ प्रमुख वजहें
- लोकसभा अध्यक्ष ओम बिरला ने स्टूडेंट्स के लिए पहल की क्योंकि वह उनका चुनाव क्षेत्र है। कोटा भारत का कोचिंग केंद्र माना जाता है इसलिए कोई भी नेता अपने क्षेत्र की छवि को खराब करना नहीं चाहेगा और यह इसलिए भी क्योंकि कोटा आय का भी बहुत बड़ा श्रोत माना जाता है। इस कोरोना की आपदा में वो बिलकुल भीं नही चाहेगे कि कोटा की छवि खराब हो।
- मध्यम एवं उच्च वर्ग से आने वाले परिवार के स्टूडेंट्स अपनी बात सोशल मीडिया पर बहुत ही अच्छे तरीके से सरकार तक पंहुचा सकते हैं मगर गरीब मज़दूरों के लिए यह कर पाना एक सपना मात्र है।
- मध्यम एवं उच्च वर्ग के परिवार के लोग आज इन गरीब और असहाय मज़दूरों से बहुत ही बेहतर स्थिति में हैं। उनके पास अपने बच्चों को पैसे भेजने के कई ऑनलाइन साधन हैं जिसका वे उपयोग भी कर रहे हैं मगर इन गरीबों का क्या?
एक नज़र हाइलाइट्स पर
- बिहार के बाहर अन्य राज्यों में काम करने वाले मज़दूरों का सही आंकड़ा मौजूद नहीं है।
- बिहार के अंदर काम करने वाले रजिस्टर्ड मजदूरों की संख्या करीब 19 लाख है।
- मज़दूर बिना किसी सूचना के काम की तलाश में दूसरे राज्यों की तरफ निकल जाते हैं।
- मंत्रालय ने सभी ज़िलों के पदाधिकरियों को निर्देश दिया है कि अब प्रवासीय बिहारी मज़दूरों के प्रशिक्षण का कार्य शुरू करें।
- उत्तर प्रदेश में 15 लाख दिहाड़ी मज़दूर पंजीकृत हैं।
- महाराष्ट्र में मज़दूरों की संख्या करीब 13 लाख के आस-पास बताई जा रही है।
मज़दूरों के पास ना पैसे हैं, ना काम और ना रहने का कोई ठिकाना। स्टूडेंट्स के लिए बसें भेजना और देश के गरीब मज़दूरों को अनदेखा कर देना पक्षपात है। सरकार किसी की भी हो, क्रेंद्र या राज्य सभी ने साथ मिलकर इन गरीब मज़दूरों को अनदेखा किया है।
मुझे उम्मीद तो नही है मगर फिर भी सरकार से प्रार्थना है कि इन मज़दूरों की भी सुने एक टीम बनाएं जो मात्र इन मज़दूरों पर काम करें, कम- से-कम उन्हें दो वक्त की रोटी मिल पाए ताकि आजाद भारत मे कोई भुखमरी से ना मरे।