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ब्राह्मणों द्वारा अपमानित किए जाने के खिलाफ शुरू हुआ था फुले का आंदोलन

महात्मा फुले

महात्मा फुले

महात्मा फुले भारत के सामाजिक समता और न्याय के आंदोलन में बुद्ध और कबीर के बाद सबसे बड़े नायक थे। उनका जन्म 11 अप्रैल सन् 1827 को महाराष्ट्र के सतारा ज़िले में एक माली के परिवार में हुआ था।

फुले जब मात्र 9 महीने के थे तो उनकी माता का निधन हो गया था। आर्थिक रूप से कमज़ोर फुले के पिता ने कम उम्र में ही उन्हें पढ़ाई से अलग कर दिया मगर उनकी विद्वता को देखकर उनके पड़ोसियों ने उनके पिता पर दबाव बनाया फिर पिता ने स्कॉटिश मिशन्स हाई स्कूल में उनका दाखिला करा दिया।

12 वर्ष की आयु में फुले का विवाह सावित्रीबाई फुले से हुआ

तत्कालीन भारत में बाल विवाह आम बात थी जहां 5 से लेकर 10 और 12 वर्ष के अंतराल में ही शादियां हो जाती थीं। इसी कुप्रथा का प्रभाव था  कि मात्र 12 वर्ष की आयु में महात्मा फुले की शादी सावित्रीबाई फुले से करा दी गई।

उन्होंने अपना पूरा जीवन भारत के शुद्र और अति शुद्र अछूत कही जाने वाली जाति के उत्थान के साथ-साथ महिला सशक्तिकरण में लगा दिया।

ब्राह्मण मित्र की शादी में सहना पड़ा था अपमान

महात्मा फुले अपने ब्राह्मण मित्र के विवाह समारोह में बाराती के रूप में शामिल हुए थे। उसमें जब ब्राह्मण जाति के अन्य लोगों को यह पता चला कि महात्मा फुले एक माली शूद्र जाति के हैं, तो उन्होंने विद्रोह कर दिया और फुले को अपमानित करके वहां से वापस जाने के लिए कहा। इस घटना ने महात्मा फुले को आंदोलन के लिए प्रेरित किया।

सावित्रीबाई फुले के साथ मिलकर स्त्री और शूद्र शिक्षा का अलख जगाया

महात्मा फुले ने अपने जीवन काल में स्त्री और शूद्र कही जानी वाली जाति के लोगों की शिक्षा, उनकी सामाजिक-सांस्कृतिक-आध्यात्मिक और शैक्षणिक विकास के लिए बहुत सारे कार्य किए।

भारत में स्त्री शिक्षा को लेकर सबसे पहला विद्यालय फुले दंपति महात्मा फुले और माता सावित्री फुले के नेतृत्व में महाराष्ट्र में बना था।

ब्राह्मणों ने कैसे किया फुले दंपत्ति के विद्यालय का विरोध

महात्मा फुले और माता सावित्रीबाई द्वारा स्त्री शिक्षा को प्रोत्साहित करने के लिए विद्यालय खोले जाने के निर्णय के बाद उनके गाँव के ब्राम्हणों समेत अन्य लोगों ने उनका विरोध करना शुरू कर दिया।

ब्राह्मणों का कहना था कि यदि स्त्रियां शिक्षा प्राप्त करेंगी तो यह शास्त्र सम्मत नहीं होगा और इससे भगवान दुखी होकर गाँव के लोगों पर कहर ढा सकते हैं।

ग्रामीणों के विरोध के बावजूद महात्मा फुले ने स्त्री शिक्षा और शूद्र शिक्षा को प्रोत्साहित करने वाले अपने विद्यालय को जारी रखा। इसके बाद फुले दंपति को उग्र और हिंसक विरोध का भी सामना करना पड़ा। यहां तक सावित्रीबाई फुले पर गोबर इत्यादि फेंके गए। उनको अपशब्द कहे गए लेकिन इन सबके बावजूद फुले दंपत्ति वंचितों के लिए शिक्षा की क्रांति में लगे रहे।

महात्मा फुले ने ब्राह्मणवाद और ब्राह्मणवादी ग्रंथों का खुलकर किया था विरोध

ब्राह्मणवाद और ब्राह्मणवादी ग्रंथों के विरोधी होने साथ-साथ महात्मा फुले एक आस्तिक व्यक्ति भी थे। उनका मानना था किस दुनिया को रचने वाला एक ईश्वर है और उसने पूरी दुनिया को एक समान बनाया है।

उनका यह भी मानना था कि ईश्वर की रचना के बाद मनुष्य ने इस धरती पर धर्म और जाति की बेड़ियां खड़ी करके मनुष्य को बांटने का काम किया है।

कैसे हुआ सत्यशोधक समाज का निर्माण

धार्मिक और सामाजिक क्रांति को संचालित करने के लिए महात्मा फुले ने अपने अनुयायियों के साथ 24 सितंबर 1873 को सत्यशोधक समाज की स्थापना की थी। महात्मा फुले स्वयं इस संगठन के अध्यक्ष थे तथा माता सावित्रीबाई फुले को महिला विभाग के अध्यक्ष के तौर पर नियुक्त किया गया था।

सत्यशोधक समाज का मुख्य उद्देश्य वंचित वर्गों को ऊंची जाति के लोगों के शोषण से मुक्त करने के साथ-साथ तमाम कर्मकांडों, अंधविश्वासों और ब्राह्मणवादी व्यवस्था से मुक्ति दिलाना था।

महात्मा फुले का सत्यशोधक समाज संत कबीर तुकाराम और बुद्ध के विचारों पर स्थापित था। यह समाज हिंदू विवाह इत्यादि संस्कार में बिना ब्राह्मणों और बिना कर्मकांडों के संपन्न कराने के पक्ष में था।

शूद्रों और महिलाओं में अंधविश्वास के कारण उत्पन्न हुई आर्थिक और सामाजिक परेशानियों को दूर करने के लिए भी उन्होंने आंदोलन चलाया। उनका मानना था कि यदि आज़ादी, समानता, मानवता, आर्थिक न्याय, शोषणरहित मूल्यों और भाईचारे पर आधारित सामाजिक व्यवस्था का निर्माण करना है, तो असमान और शोषक समाज को उखाड़ फेंकना होगा।

फुले की रचना ‘गुलामगिरी’

फुले की रचनाओं में सबसे प्रसिद्ध रचना गुलामगिरी है। रचना के माध्यम से महात्मा फुले ने समाज में फैले हुए अंधविश्वासों, कर्मकांडों के साथ-साथ जाति प्रथा और छुआछूत इत्यादि पर करारा प्रहार किया।

अमेरिका के राष्ट्रपति बराक ओबामा जब भारत आए थे तो महाराष्ट्र के तत्कालीन कैबिनेट मिनिस्टर छगन भुजबल ने उन्हें महात्मा फुले द्वारा रचित गुलामगिरी की एक प्रति भेंट करते हुए इस बारे में तमाम जानकारियां दी थीं। जिसके बाद ओबामा ने सहर्ष इस पुस्तक की सराहना करते हुए स्वीकार किया।

भारत ने सन् 28 नवंबर 1890 को अपने महान सामाजिक क्रांति के जनक को खो दिया

भारत ने सन् 28 नवंबर 1890 को अपने महान सामाजिक न्याय और समानता आंदोलन के योद्धा महात्मा फुले को खो दिया। महात्मा फुले इस नश्वर संसार को छोड़कर चले गए।

उनके जाने के बाद उनके अनुयायियों ने सत्यशोधक समाज के बैनर तले सामाजिक चेतना के आंदोलन को जारी रखा।

डॉ. अंबेडकर ने महात्मा फुले को माना था अपना पथ प्रदर्शक

संविधान निर्माता बाबा साहेब अंबेडकर ने महात्मा फुले से प्रभावित होकर सामाजिक क्रांति और वंचितों अधिकारों की लड़ाई का बिगुल फूंका।

,डॉक्टर अंबेडकर ने अपने साहित्य में लिखा कि उनके जीवन के तीन गुरु हैं। पहले, भारत के सामाजिक समानता और सद्भावना के योद्धा महात्मा बुद्ध, दूसरे सामाजिक समानता और सद्भावना के प्रतीक सद्गुरु कबीर और तीसरे महात्मा फुले।

फुले जयंती पर उनके क्रांतिकारी विचारों को जन-जन तक पहुंचाना ही सच्ची श्रद्धांजलि होगी

आज भारत अपने इस महान योद्धा का जन्मदिन मना रहा है। मैं उन तमाम सामाजिक समानता और न्याय के आंदोलनों में शामिल युवाओं, महिलाओं और साथियों को महात्मा फुले जयंती की हार्दिक बधाई और शुभकामनाएं देता हूं।

उनसे प्रार्थना करता हूं कि महान विचार को आत्मसात करें और जन-जन तक पहुंचाने के लिए कृत संकल्पित हों। यही हमारी महात्मा फुले को सच्ची श्रद्धांजलि और प्रार्थना होगी।


संदर्भ- प्रभासाक्षी

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