महामारी या उससे होने वाली लाखों मौतें दुनिया के लिए कोई नई बात नहीं हैं लेकिन 21वीं सदी में तेज़ी से बढ़ती अर्थव्यवस्थाओं, संसाधनों से युक्त विकसित और विकासशील देशों में कोरोना वायरस से होने वाली मौतों और चरमराई व्यवस्था ने एक सवाल खड़ा कर दिया है।
इस वायरस से हो रही तबाही यह संदेश दे रही है कि आज भी विश्वभर की व्यवस्थाएं ऐसे वायरसों से लड़ने में सक्षम नहीं हैं।
एक ओर वियतनाम जैसा छोटा देश है, जिसने चीन से सीमा जुड़े होने के बावजूद भी नोवल कोरोना वायरस पर रोकथाम पा ली है, वहीं दूसरी ओर अमेरिका जैसा देश है जिसके सभी पुर्ज़े इस महामारी ने ढीले कर दिए हैं।
अब बात आती है भारत की। भारत में कोरोना वायरस का पहला केस केरल में चीन से लौटे एक स्टूडेंट में पाया गया। इसके बाद धीरे-धीरे कई जगहों पर इस महामारी के मामले सामने आने लगे। इस दौरान बढ़ती आपदा को ध्यान में रखते हुए प्रधानमंत्री नरेन्द्र मोदी ने पूरे देश में लॉकडाउन की घोषणा कर दी।
गरीब मज़दूर जब सड़कों पर उतर आए
लॉकडाउन के बाद जब पूरे देश में धीरे-धीरे लोग घरों में कैद होने लगे, इसी बीच देश की एक दूसरी तस्वीर सड़कों पर उतर आई। नहीं ये दंगाई या प्रदर्शनकरी नहीं थे। ये गरीब मज़दूर थे। बंटवारे के बाद दूसरी बार देश इतने बड़े स्तर पर पलायन देख रहा था जो कहीं-कहीं अब भी जारी है।
एक ओर शहरों में काम-धंधे बंद होने की वजह से असंगठित क्षेत्रों में काम करने वाले मज़दूर भूखे मरने को मजबूर हैं। वहीं, उन पर आश्रित औरतों, बच्चों से लेकर बुज़ुर्गों तक को परेशानियां झेलनी पड़ रहीं हैं।
खैर, यह समय व्यवस्थाओं पर दरारें ढूंढने का नहीं है, बल्कि वर्तमान समय में जितना हो सके व्यवस्था में सुधार करने का है। यह वक्त आपदा से निकलने के बाद यह सुनिश्चित करने का है कि दोबारा ऐसी विपत्तियों में देश समाधान व संसाधन खोजने के बजाय नीतियों को अपनाने व संगठित तौर पर उसे लागू करने की ओर कदम बढ़ा पाए।
क्या है वर्तमान स्थिति और इनसे कैसा लड़ा जाए?
रोज़गार-बेरोज़गारी सर्वेक्षण 2015-16 के अनुसार, भारत के कुल काम करने वाले का 80% से अधिक हिस्सा अनौपचारिक क्षेत्र में काम करता हैं। इसमें से एक तिहाई आकस्मिक मज़दूर हैं।
गतिशील शहरीकरण में मजदूरों का पलायन यह बताता है कि इनकी ज़रूरत शहरों में केवल काम तक सीमित है। इन मज़दूरों का काम जिस दिन समाप्त हो जाता है, शहरों को इनकी ज़रूरत भी समाप्त हो जाती है
वृद्ध, गरीब, असहाय और मजबूरों कि स्थिति
इस मज़दूर तबके से आने वाले अधिकांश लोग सोशल असिसटेंट पर निर्भर करते हैं। ऐसे में इस विपदा में भी भारत समेत विश्व भर में नकद हस्तांतरण को पहले कदम के रूप में अपनाने की वकालत की जा रही है।
पहली नज़र में, वे सबसे आसान और तेज विकल्प लगते हैं लेकिन इनके साथ कुछ खतरे भी जुड़े हुए हैं। जमाखोरी और मूल्य वृद्धि की स्थिति में नकद की कीमत कम हो सकती है।
ग्रामीण क्षेत्रों में, बैंक शाखाओं का घनत्व काफी कम है। बड़े पैमाने पर नकद हस्तांतरण से भीड़ जमा होगी। स्वाभाविक है इससे वायरस के सामुदायिक स्तर फैलने का खतरा बढ़े जाएगा।
आधार-पेमेंट ब्रिज सिस्टम
स्वास्थ्य मंत्रालय के हालिया आंकड़े ये बताते हैं कि लगभग 10% प्रत्यक्ष लाभ अंतरण (डीबीटी) इस भुगतान ब्रिज के कारण विफल रहा है। इसके अलावा, जो भुगतान डीबीटी पोर्टल पर सफल दिखाई देते हैं, वे कई बार गलती से अन्य लोगों के खातों में भी चले जाते हैं।
इस बीच कुछ संवेदनशील वर्ग (उदाहरण के लिए, शहरी गरीब) छूट जाएंगे लेकिन उनके लिए अन्य उपाय मौजूद हैं, जैसे-अग्रिम भुगतान, भुगतान में बढ़ोत्तरी, 60 वर्ष से अधिक उम्र के व्यक्ति, एकल महिला, आदि की पहचान करना और उनके लिए नकद हस्तांतरण को बढ़ाया जाना चाहिए।
बकाया राशि का भुगतान करना
पिछले महीने एक वृद्ध महिला से मुलाकात हुई। वो तीन महीने से बकाया पेंशन के लिए दर-बदर भटक रही थीं। मालूम हुआ इस दौरान भी उनकी हालत वैसे ही है।
सरकार के व्यवस्थाओं से यह सुनिश्चित करना होगा कि किसी आपदा या विपत्ति के दौरान लोगों के पास इतनी धनराशि रहे कि वे अपना जीवन-यापन कर सकें। इसके लिए यदि समय पर राशि भुगतान भी किया जाए तो वह भी काफी मददगार सिद्ध होगा।
मनरेगा श्रमिकों के लिए नकद हस्तांतरण
मनरेगा जॉब कार्ड धारकों को सरकार आश्वस्त करें कि उनके लिए कम-से-कम 20 दिन प्रति माह काम उपलब्ध रहेगा। मनरेगा वेबसाइट के अनुसार, वर्तमान में 14 करोड़ में से केवल 8 करोड़ जॉब कार्ड ही सक्रिय हैं।
मनरेगा के तहत मांग किए जाने पर किसी भी स्थिति में 100 दिनों का काम उपलब्ध कराना भारत सरकार का एक कानूनी दायित्व है।
वस्तु रूप में सहायता
वर्तमान में भारतीय खाद्य निगम (एफ़सीआई) के पास खाद्यान्न के अतिरिक्त भंडार की समस्या है। कुछ राज्यों में गेहूं की खरीद शुरू हो गई थी और कुछ में शुरू होने वाली है। सरकार सुनिश्चित करे कि प्राथमिक परिवारों और अंत्योदय परिवारों को 3 महीने की शुरुआती अवधि के लिए दोहरा राशन प्रदान करने हेतु अतिरिक्त स्टॉक की व्यवस्था हो।
‘जनरल’ कार्डधारकों (कुछ राज्यों में गरीबी रेखा से ऊपर ‘एपीएल’ भी कहा जाता है) को कम-से-कम एक नियंत्रित मूल्य पर प्रति परिवार 20 किलोग्राम राशन प्रदान करने के लिए अतिरिक्त भंडार का उपयोग किया जा सकता है।
हालांकि सभी राज्यों में इस श्रेणी के कार्ड नहीं हैं। अग्रिम एवं मुफ्त खाद्य सामग्री वितरण की व्यवस्था उदाहरणार्थ कर्नाटक एवं छत्तीसगढ़ में अन्य आवश्यक चीजें जैसे- साबुन, तेल, दाल को शामिल करना आने वाले महीनों में सरकार की प्राथमिकताओं में रहे।
आधार-आधारित बायोमेट्रिक प्रमाणीकरण को रोकना
केंद्र सरकार को वायरस फैलाव के जोखिम के कारण आधार-आधारित बायोमेट्रिक प्रमाणीकरण (एबीबीए) को तुरंत रोकना चाहिए। कम-से-कम दो अध्ययनों से पता चलता है कि एबीबीए भ्रष्टाचार को कम करने में सफल नहीं है।
संभवतः इससे लेन-देन की लागत और अपवर्जन में वृद्धि होने से स्थिति और बदतर हो जाती। साथ ही यह वायरस के प्रभाव को बढ़ने में अग्रिम भूमिका निभा सकता है। केरल, छत्तीसगढ़, झारखंड और ओडिशा सहित कुछ राज्यों ने पहले ही एबीबीए को निलंबित कर दिया है। इस संबंध में एक केंद्रीय अधिसूचना बहुत ज़रूरी है।
शहरी क्षेत्रों में प्रवासियों के रूप में काम करने वाले लोग जिनके घर ग्रामीण क्षेत्रों में हैं, वे सभी लोग लॉकडाउन के कारण देश के अलग-अलग शहरी क्षेत्रों में काम के बिना फंसे हुए हैं। इनमें कुछ ऐसे लोग भी हैं जिनके पास रहने की जगह तक नहीं है। इन्हें मनरेगा या पीडीएस द्वारा भी कोई सहायता नहीं मिल सकती है, इसलिए ऐसी स्थिति में इनके लिए विशेष उपायों की आवश्यकता है।
प्रवासी श्रमिकों को अस्थायी रूप से रहने की जगह दी जाय। साथ ही वायरस के सामुदायिक स्तर पर फैलाव के जोखिम को कम करने के लिए साबुन और हाथ धोने की अन्य सुविधाएं प्रदान करने की आवश्यकता है।
सभी राज्यों में पुलिस को सख्त निर्देश दिए जाने चाहिए कि वे शहरों में फंसे प्रवासी श्रमिकों का उत्पीड़न ना करें। देश के कई हिस्सों से इन मज़दूरों के साथ पुलिस की बदसलूकी की खबरें आई हैं। इस तरह के व्यवहार को रोकने के लिए ऐसे अधिकारियों के खिलाफ कार्रवाई की जानी चाहिए।
सामुदायिक रसोई घर और रहने की व्यवस्था हो
शहरों में फंसे लोगों को भोजन और रहने के लिए जगह की आवश्यकता है। भोजन के लिए, केंद्र सरकार एफसीआई से मुफ्त अनाज और दाल की आपूर्ति कर सकती है। प्रवासी इसका इस्तेमाल सामुदायिक रसोई (जैसे- तमिलनाडु में अम्मा कैंटीन, कर्नाटक में इंदिरा कैंटीन, ओडिशा, छत्तीसगढ़ और झारखंड में दाल-भात केंद्र) चलाने के लिए कर सकते हैं।
इन्हें श्रमिकों द्वारा स्व-प्रबंधित कर कुछ पैसे कमाने का अवसर दिया जा सकता है। इसी प्रकार प्रभावित लोगों के लिए नए सामुदायिक रसोई घर स्थापित करने के लिए सामजिक संस्थाओ को भी आगे आना चाहिए। सामुदायिक स्तर पर वायरस के फैलाने की संभावना को कम करने के लिए ऐसे भोजन केंद्रों का घनत्व बहुत अधिक होना चाहिए।
साथ ही यहां प्रवेश या तो विनियमित किया जाए या फिर भोजन के पैकेट बांटे जाएं। हमारे शहर में ‘युथ ऑफ इंडिया संस्थान’ और उसकी सहायक संस्था ‘प्रयास-एक छोटा-सा’, हनुमान भक्त युवा समिति, सेवा दल आदि संस्थाओं द्वारा नियमित गरीबों, वृद्धों, बच्चों में भोजन की व्यवस्था करवाई जा रही है जिसमें प्रतिदिन मांग और ज़िम्मेदारी बढ़ती नज़र आ रही है।
यह कदम सदैव सराहनीय एवं देशहितकारी सिद्ध होते हैं। आवश्यक सूचनाएं और सेवाओं की लोगों तक पहुंच ज़रूरी है। साथ ही आवश्यक वस्तुओं की कीमतों पर नियंत्रण भी बहुत ज़रूरी है।