भारत की राजनीति में महापुरुषों की जयंती और पुण्यतिथि पर याद करने का चलन बन चुका है। उनके वर्तमान और भविष्य की प्रासंगिकता पर बड़े-बड़े सेमिनार आयोजित किए जाते हैं।
बुद्धजीवी अपने भाषण में महापुरुषों के विचारों की प्रासंगिकता पर समीक्षा करते हैं। न्यूज़ चैनलों में जोरदार बहसें होती हैं लेकिन बुद्धिजीवी की समीक्षा सेमिनारों के कमरे तक सीमित ही रह जाती हैं और चैनलों पर बहस केवल न्यूजरूम की चारदीवारी तक।
महापुरुषों को याद करने के क्रम में आज बाबा साहेब डॉ.भीमराव अंबेडकर जी का दिन है। बाबा साहब डॉ.भीमराव अंबेडकर एक ऐसे शख्सियत है, जिन्हें सामाजिक न्याय का पुरोधा कहा जाता हैं।
जिन्होंने अपना सम्पूर्ण जीवन समाज में दलित, शोषित और वंचित तबकों के उत्थान के लिए समर्पित कर दिया था। बाबा साहेब आधुनिक भारत के संविधान निर्माता हैं।
सामाजिक न्याय के पुरोधा बाबा साहबे भीमराव अंबेडकर
उन्होंने अपने जीवन के 60 वर्ष तक असमानता, अस्पृश्यता, प्रताड़ना और जातिगत भेदभाव का दंश झेला और बाद में इससे क्षुब्ध होकर निधन होने के 7 माह पहले बौद्ध धर्म ग्रहण कर लिया था।
आज भी समाज के सामने यह सवाल है कि वो क्या वजह थी जिसने डॉ.अम्बेडकर को धर्म परिवर्तन के लिए मजबूर किया? अगर समाज को अगर इस सवाल का जवाब पता है तो समाज ने इस दिशा में क्या कदम उठाया?
छुआछूत को अपराध मानने वाली बातें महज़ कागज़ों तक ही सीमित हैंं
संविधान के मुताबिक अस्पृश्यता और छुआछूत गैर-कानूनी और अपराध करार दे दिया गया है मगर यह संविधान के प्रावधान कागज़ पर ही शोभा बढ़ाते हैं, कागज़ पर ही न्याय देने की बात करते हैं। ज़मीन पर होने वाला अपराध संविधान के आईने में नहीं पहुंच पाता है।
ऐसा नहीं है कि ज़मीन पर होने वाले अपराध और पीड़ित व्यक्ति को संविधान न्याय दिलाने में असफल है। इस सवाल का जवाब संविधान सभा में संविधान पेश करते हुए डॉ. अंबेडकर ने अपने संबोधन में दिया था।
उन्होंने कहा था, “मैं यहां संविधान की अच्छाइयां नहीं गिनाने जाऊंगा, क्योंकि मुझे लगता है कि संविधान कितना भी अच्छा क्यों ना हो, वह अंततः बुरा साबित होगा। अगर उसे इस्तेमाल में लाने वाले बुरे हों। अगर संविधान कितना भी बुरा क्यों ना हो अंततः अच्छा साबित होगा यदि उसे इस्तेमाल में लाने वाले लोग अच्छे हों।”
जिस आधुनिक भारत के निर्माण के लिए उन्होंने बहुत मेहनत करके संविधान बनाया। आज उसी संविधान की धज्जियां मौजूदा सरकार से लेकर राजनीतिक और सामाजिक संगठन तक उड़ा रहे हैं। डॉ.अंबेडकर की दूरदर्शिता का अंदाज़ा उनके ऊपर दिए गए संबोधन से लगाया जा सकता है। संविधान सभा में दिए गए उनके विचार आज भी कितने प्रासंगिक हैं, यह सोचने योग्य बात है।
आखिर दलितों और अल्पसंख्यकों का उत्पीड़न ‘न्यू इंडिया’ में क्यों हो रहा है?
भारत की सामाजिक और राजनीतिक समस्याओं को भीतरी तहों तक समझने वाला कोई व्यक्ति इस बात से इनकार नहीं कर सकता है कि दलितों का उत्पीड़न ‘न्यू इंडिया’ में नहीं हो रहा है।
इसका प्रमाण दलितों और अल्पसंख्यकों के साथ होने वाली हिंसात्मक घटनाएं हैं। यह भी दुखद है कि दलित उत्पीड़न की खबरों को मेनस्ट्रीम मीडिया जगह नहीं देता है। अल्पसंख्यकों से जुड़े मामलों में भी वही हाल है।
कुछ बड़ी घटनाएं सुर्खियां बनती हैं। जैसे- गुजरात के ऊना में दलितों के साथ बेहरमी से पिटाई की घटना। ऐसी शर्मसार कर देनी वाली घटना को देश नहीं भूला है।
ये वहीं गुजरात मॉडल है, जिसकी दुहाई प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी देश भर में देते रहते हैं। ये कैसा गुजरात मॉडल है, जहां दलितों का उत्पीड़न होता है और प्रधानमंत्री सिर्फ अपने बयानों में दुःख जताते हैं।
उच्च जातीय तबका स्मार्टफोन रखता है लेकिन स्मार्ट सोच नहीं, आखिर क्यों?
आज भी दलित दूल्हे के घोड़ी पर चलकर बारात निकालने पर हिंसा हो जाती है। यह समझ पाना कठिन हो जाता है कि तथाकथित उच्च जाति के लोगों का जातीय अहंकार जग जाता है या उनके स्वाभिमान को ठेस पहुंच जाता हैं।
ऐसे में दलितों को कानूनी संरक्षण देने की ज़रूरत पड़ती है और दलित दूल्हे की बारात कानून के संरक्षण में होकर गुजरती हैं। यह कितना दुर्भाग्यपूर्ण है कि समाज में तथाकथित उच्च जातीय तबका स्मार्टफोन रखता है लेकिन स्मार्ट सोच नहीं!
संकीर्ण मानसकिता के खिलाफ बाबा साहेब संपूर्ण जीवन लड़ते रहे
इस देश में जाति के आधार पर काम करने की पुरानी परंपरा रही है। ऐसी ही दकियानूसी और संकीर्ण मानसकिता के खिलाफ डॉ. अंबेडकर संपूर्ण जीवन लड़ते रहे। वह अपने मिशन में तब कामयाब हुए, जब उन्होंने संविधान का निर्माण किया।
समतामूलक समाज बनाने के लिए उन्होंने संविधान में अस्पृश्यता को गैर-कानूनी करार दिया। उनकी प्रतिबद्धता की बदौलत है कि आज दलित लड़कियां आईएएस की परीक्षा में टॉपर बन पा रही हैं।
जाति के संदर्भ में एक बार डॉ.अम्बेडकर ने कहा था,
जिस चीज़ ने भारतीय समाज तथा भारतीय आदमी विशेषकर हिंदुओं के अधिकांश हिस्से को भीतर से संवेदनहीन, न्यायपूर्ण चेतना से रहित और अमानवीय बना दिया है, वह है जातियों पर आधारित भारतीय सामाजिक व्यवस्था। यह हमें रोज़-ब-रोज़, विवेकहीन, कायर, पाखंडी-ढोंगी और आत्मसम्मानहीन बनाती है तथा व्यक्ति के आत्म गौरव और मानवीय गरिमा को क्षरित करती है।
बाबा साहेब का मानना था कि जातिवाद और पितृसत्ता ने सबसे ज़्यादा महिलाओं का शोषण किया
बाबा साहेब सिर्फ दलितों, अस्पृश्य ही नहीं, बल्कि स्त्रियों के उत्थान के लिए भी समर्पित थे। उनका कहना था कि किसी समाज की प्रगति का पैमाना उस समाज में महिलाओं की प्रगति से पता चलता है।
डॉ. अंबेडकर का मानना था कि जातिवाद और पितृसत्ता ने सबसे ज़्यादा महिलाओं का शोषण किया है। वे लैंगिक भेदभाव के खिलाफ मुखर होकर बोलते थे।
जब नेहरू मंत्रिमंडल से डॉ. अंबेडकर ने इस्तीफा दे दिया
महिलाओं को अधिकार दिलाने के लिए उन्होंने बतौर कानून मंत्री 1951 में संसद के पटल पर हिन्दू कोड बिल का प्रस्ताव पेश किया था। उस प्रस्ताव में उत्तराधिकारी, विवाह और अर्थव्यवस्था के कानूनों में लैंगिक समानता की मांग थी।
लेकिन प्रस्ताव पारित ना होने की वजह से उन्होंने नेहरू मंत्रिमंडल से इस्तीफा दे दिया। हालांकि कई सरकारों ने इस बिल को बाद में कई हिस्सों में विभाजित करके संसद से पारित करवाया।
इस तथ्य से आंकलन किया जा सकता है कि वे महिला अधिकारों के प्रति कितना संवदेनशील थे। आज के समय में हर क्षेत्र में जब महिलाएं पुरुषों के साथ कंधा मिलाकर आगे बढ़ रही है, तो इसका श्रेय डॉ. अंबेडकर को ही जाता हैं।
आज हमारे समाज में रेप की घटनाओं में तेज़ी से वृद्धि हो रही है। इसको रोकने के लिए सरकारों के तरफ से कठोर से कठोर कानून बनाए गए हैं लेकिन ऐसी घटनाएं रुकने का नाम ले रही हैं।
ऐसी घटनाओं को रोकने के लिए डॉ. अंबेडकर का विचार आज भी बेहद प्रासंगिक हो जाता है, जब वो कहते थे कि व्यक्ति में सामाजिक सुधार लाए बिना राजनीतिक सुधार के बंधन में बांधना अर्थहीन होगा।
समाज के अंतिम पायदान पर खड़े लोगों को सामाजिक, शैक्षणिक और राजनीतिक रूप से सशक्त करने के पक्षधर थे बाबा साहेब
जब आज की सरकारें समाज में अंतिम पायदान पर खड़े व्यक्ति तक सरकारी योजनाओं को पहुंचाने का दावा करती हैं लेकिन असल में सरकारी योजनाएं समाज के अंतिम व्यक्ति के चौखट पहुंचने से पहले ही दम तोड़ देती हैं।
ऐसे में मुझे डॉ. अंबेडकर का जीवन संघर्ष याद आ जाता है। उन्होंने अपना सम्पूर्ण जीवन समाज के अंतिम पायदान पर खड़े लोगों को सामाजिक, शैक्षणिक और राजनीतिक रूप से सशक्त करने के लिए समर्पित कर दिए थे।
भले ही आज की सरकारों की योजना समाज के अंतिम पायदान पर खड़े व्यक्ति तक नहीं पहुंच पाई हों लेकिन बाबा साहेब के विचार समाज के अंतिम पायदान तक ज़रूर पहुंच गए हैं।
समाज में परिवर्तन लाने के लिए हमने क्या प्रयास किए हैं?
आज समाज को बार-बार सोचना चाहिए कि जिस कमी की वजह से बाबा साहेब हिन्दू धर्म त्यागकर बौद्ध धर्म ग्रहण करने को मजबूर हुए, क्या वह कमी आज भी हमारे समाज में है?
यदि है तो इस कमी को उखाड़ फेंकने के लिए समाज की तरफ से क्या पहल हुई है? क्या सरकारों ने इसे लेकर ज़मीन पर जागरूकता अभियान चलाया?
मौजूदा समय में जाति के नाम पर खूनी संघर्ष हो रहा है, धर्म के आधार पर साम्प्रदायिक दंगे हो रहे हैं। मानव जाति का विनाश हो रहा है और धार्मिक कट्टरता बढ़ रही है।
इन सभी अराजकताओं का हल है डॉ. अंबेडकर का मार्गदर्शन और प्रेरित करने वाले विचार। ऐसे में ज़रूरी है उनके विचारों को पढ़ने की और अपने व्यवहार में आत्मसात करने की। डॉ. अंबेडकर के विचार आज भी उतने ही प्रासंगिक हैं।