कोरोना संकट ने पूरे विश्व का असली चेहरा सामने ला कर रख दिया है। चाहे वह समाज का चेहरा हो, मीडिया का चेहरा हो, नेताओं का चेहरा हो या फिर इस सिस्टम का चेहरा ही क्यों ना हो।
2020 की शुरुआत से ही विश्व के इतिहास में एसा पहली बार हुआ है कि हर समाज, हर देश, हर नेता, हर कोई निर्वस्त्र हो चुका है। उनकी असली सच्चाई सामने आ गई है। हम यहां विश्व की नहीं बल्कि अपने ही देश भारत की बात करेंगे।
वैसे तो कोरोना का संकट विश्व के बाकी देशों के लिए जनवरी 2020 से ही शुरू हो चुका था मगर भारत में यह संकट प्रधानमंत्री के 22 मार्च 2020 के जनता कर्फ्यू के तुगलकी फरमान से शुरू हुआ। इस तुगलकी फरमान जनता कर्फ्यू वाले ही दिन बढ़ाकर 21 दिनों के लिए कर दिया जाता है और वह भी महज़ चार घंटे के नोटिस पर।
यानी कि 21 दिनों के लिए देश पूरी तरह से बंद। कुछ ज़रूरी चीज़ों को छोड़कर सभी कारखाने, सभी व्यापर बंद। स्कूल-कॉलेज-यूनिवर्सिटी हर चीज़ बंद। बिना सोचे-समझे, बिना किसी प्लानिंग के, बिना किसी की राय लिए जनाब ने पूरे देश को 21 दिनों के लिए रोक दिया। अंग्रेज़ी की एक कहावत, ‘एक्ट फर्स्ट एंड थिंक लेट’ पर हमारी मौजूदा केंद्र सरकार बिलकुल खरी उतरती है।
इसी कड़ी में उत्तर प्रदेश सरकार, जिसे आज कल ‘योगी सरकार’ के नाम से जाना जाता है उसकी ‘अल्टीमेट हिपोक्रेसी’ सामने आती है।
वह इस तरह से कि एक वो समय था जब उत्तर प्रदेश के मज़दूर जब देश के अन्य राज्यों से अपने घरों के लिए वापस आ रहे थे, तब उन्होंने बेहद कम बसें चलाईं और उन मज़दूरों से मनमाना किराया भी वसूल किया। लोगों को बस में या तो खड़े-खड़े सफर करना पड़ा या बस की छत पर बैठकर सर्द रात में जाना पड़ा।
वहीं, दूसरी तरफ यही योगी सरकार ने राजस्थान, कोटा में फंसे हुए 7500-8000 स्टूडेंट्स को रेस्क्यू करने के लिए 250-300 बसों का इंतज़ाम किया और वह भी सिर्फ स्टूडेंट्स के ट्विटर पर ट्रेंड करने की वजह से।
आखिर क्या है पूरा मामला?
कोटा में रहने वाले यूपी के स्टूडेंट्स ने पहले तो लगातार ट्विटर के ज़रिये अपनी समस्याओं को उजाकर करना शुरू कर दिया। फिर 14 अप्रैल से ये दो हैशटैग्स #helpkotastudents और #sendusbackhome ट्विटर पर ट्रेंड करने लगे।
इन हैशटैग्स के ज़रिये तमाम बातें कही गईं कि स्टूडेंट्स अपने कमरों में फंसे हुए, खाने पीने के अभाव में और मकान मालिक द्वारा किराये का पैसा मांगने से परेशान होकर अपना दुःख ट्विटर पर ज़ाहिर करते रहे।
17 अप्रैल की शाम को यह खबर आती है कि उत्तर प्रदेश सरकार ने राजस्थान के कोटा में फंसे प्रतियोगिता परीक्षाओं की तैयारी करने वाले 7500-8000 स्टूडेंट्स के लिए 250-300 बस भेजी है.
कोटा में कैसे फंसे स्टूडेंट्स?
राजस्थान में कोटा एक शहर है जिसे पूरे हिंदुस्तान का ‘कोचिंग हब’ के नाम से जाना जाता है। यहां पर देश के कई इलाकों से स्टूडेंट्स अलग-अलग प्रतियोगिता परीक्षाओं में अपनी नैया पार लगाने आते हैं।
आई.आई.टी., एम.बी.बी.एस., सी.ए., सी.ए.टी., इत्यादि की तैयारियां यहां कराई जाती हैं। यह जगह इतनी फेमस है कि यूट्यूब में टी.वी.एफ. ने ‘कोटा फैक्ट्री’ नाम से वेब सीरीज़ भी बनाई है।
लेकिन एक बात समझ लेना ज़रूरी है, वो यह कि यहां गरीब-गुर्बों के बच्चे पढ़ने के लिए नहीं आते हैं और यदि आते भी हैं तो उनकी संख्या बेहद ही कम होती है, क्योंकि कोचिंग के लिए दी जाने वाली मोटी फीस, उसके बाद रहने के लिए कमरा, खाने-पीने के लिए खाना और अन्य तरह के खर्चों के लिए पैसा बेहद ज़रूरी है और इतना अधिक खर्च देश की वह आबादी करने में सक्षम नहीं है जो कि हर दिन कमाती-खाती है।
अतः यहां पर पढ़ने वाले बच्चों के माता-पिता अच्छे खासे, खाए-पिए घरों से ताल्लुक रखते हैं। वे सरकारी नौकर होते हैं, वे नौकरशाह होते हैं, वे बड़ी-बड़ी फैक्ट्रियों के मालिक होते हैं। कोटा में पढ़ने वाले, उत्तर प्रदेश के ये स्टूडेंट्स भी कोचिंग लेने के लिए यहां आए थे जो कि प्रधानमंत्री के ‘समझदारी’ वाले कदम की वजह से यहां फंस गए।
क्या ट्विटर पर ट्रेंड करने से समस्या का समाधान हो जाता है?
कोटा में फंसे स्टूडेंट्स के रेस्क्यू की खबर जब से आई है तब से यह सवाल बेहद अहम होता जा रहा है कि क्या ट्विटर पर ट्रेंड करने पर ही सरकार हमारी समस्याओं पर ध्यान देगी? हज़ारों मज़दूर जो लॉकडाउन के चलते अपने-अपने घरों के लिए पैदल ही रवाना हो गए थे, क्या उनकी समस्या, समस्या नहीं थी?
कोटा में फंसे स्टूडेंट्स अपनी समस्याओं को लेकर ट्विटर पर ट्रेंड करना शुरू कर देते है। इससे एक बड़ा सवाल कोचिंग में मोटी-मोटी फीस देने वाले उन स्टूडेंट्स पर भी उठता है कि क्या उन्होंने हज़ारों मज़दूरों को अपने घरों के लिए पैदल निकल जाने की खबर नहीं मिली?
अगर वे अपने ट्विटर से सरकार तक आवाज़ पहुंचा सकते थे तो क्या उन्हें एक बार भी उन मजदूरों का ख्याल नहीं आया जो तपती धुप और सर्द रातो में बिना खाए पिए, कंधे पर सामान और गोद में अपने बच्चे उठाकर पैदल अपने घरों के लिए रवाना हो चले थे?
आखिर क्यों सरकार सेलेक्टिव होकर कुछ ही लोगो की समस्या का समाधान करना चाहती है? या फिर मामला कुछ और है?
कोटा के ये स्टूडेंट्स भविष्य में बनेंगे कॉरपोरेट जगत का हिस्सा
जी हां, बिलकुल सही सुना आपने। कोटा से रेस्क्यू किए जाने वाले मध्यम और उच्च मध्यम वर्ग के घरों के ये बच्चे आखिर में भविष्य में क्या बनेंगे? जिन प्रतियोगिता परीक्षाओं की तैयारी करने ये स्टूडेंट्स अपने घरों से दूर थे, उनमें फतह हासिल करने के बाद ये बच्चे क्या बनेंगे?
ये या तो नौकरशाह बनेंगे, जो कि बाद में सरकार के काम आएंगे। ये बच्चे सीए बनकर बड़े-बड़े पूंजीपतियों के अकाउंट संभालेंगे। अपनी फैक्ट्री खोलेंगे या फिर अपने पिता द्वारा चलाई जाने वाली फैक्ट्री का विस्तार करेंगे। सरकार को मोटा टैक्स भरेंगे या फिर सरकार को मोटा चंदा देंगे।
जी हां, यही कारण है कि सरकार इनकी समस्या का समाधान आम लोगों की तुलना में जल्दी करती है। आम लोगों का क्या है, उनको तो हर बार चुनाव में एक बार नेता जी आकर अपना चेहरा दिखा जाएंगे कि इसी चेहरे पर वोट देना। वैसे भी सरकार के लिए आम जनता केवल वोट बैंक ही बनकर रह जाती है।
आम जनता, मासिक वेतन पाने वाले मज़दूर, दिहाड़ी मज़दूर और इनके बच्चे ये सब सरकार के लिए केवल आंकड़े ही हैं। ये इन लोगों को सिर्फ नंबर्स के तौर पर देखते हैं न कि उनकी व्यक्तिगत पहचान के तौर पर। अतः कोटा में पढ़ने वाले ये खास लोगों के बच्चों के लिए स्पेशल ट्रीटमेंट तो बनता है ना!
प्रशासन से उम्मीद
उम्मीद है अपने इलाके पहुंचने के बाद इन बच्चों पर कीटनाशक केमिकल का छिडकाव नहीं किया जाएगा, जो कf अमानवीय कार्य है। उम्मीद है कf जल्द ही सरकार और सरकारी हुक्मरान, इन सभी स्टूडेंट्स का कोरोना टेस्ट भी करेगी जो कि उन्होंने उन मज़दूरों का नहीं किया जो अपने घरों तक पैदल लौटे।
उम्मीद यह भी की जाएगी कि जहां पर भी इन स्टूडेंट्स को क्वारंटाइन किया जाएगा वहां पर ज़रूरत का हर सामान मौजूद होगा। वहां बिजली होगी, वहां खाने के लिए खाना दिया जाएगा और बेहतर सुविधाओं की मौजूदगी होगी जो कि उन मज़दूरों के लिए नहीं थी।
अगर सरकार इनमें से कुछ भी ऐसा नहीं करती है तब तो यह बात साफ हो जाएगी कि सरकार दो तरह के लोगों के साथ अलग-अलग तरह का व्यव्हार करती है। क्या मजदूरों की ज़रूरत पढ़ाई करने वाले स्टूडेंट्स से कम है? यदि स्टूडेंट्स भी मज़दूरों की तरह भूखे सोने को मजबूर हैं तो फिर उनके लिए अलग कानून क्यों है?
आखिर क्यों जब मज़दूरों की बात होती है तो यह नैरेटिव चलाया जाता है कि जो जहां हैं वे वहीं रहें और जब कोटा में पैसे वालों के बच्चे फंस जाते हैं तो उन्हें रेस्क्यू करने के लिए पूरी प्लानिंग के साथ बस भिजवाने का काम किया जाता है।
सरकार और प्रसाशन की हिपोक्रेसी तो तब सामने आती है जब विदेशों में रहने वाले भारतीयों के लिए ‘रेस्क्यू ऑपरेशन’ चलाया जाता है। उनके लिए हवाई जहाज़ भेजकर उन्हें बाकि देशों से भारत लेकर आया जाता है और जब अपने देश के मज़दूर अपने घरों के लिए निकलते हैं तो नेता जी का मुंह तक नहीं खुलता है, काम करना तो दूर की बात है।
कोटा में फंसे स्टूडेंट्स से उम्मीद
कोटा में फंसे स्टूडेंट्स ने मज़दूरों की तरह ही घर में कैद होने का अनुभव झेला है। उन बच्चों ने महसूस किया है कि जब घर में खाने-पीने की चीज़े नहीं होती हैं तो किस तरह से मन में घर लौटने की बेचैनी होती है। अक्सर यह ख्याल आता है कि अगर वे घर में होते तो कम-से-कम भूखे रहने की नौबत तो नहीं आती।
वे बच्चे जानते हैं कि किस तरह से ऐसी स्थिति से निकला जाता है जिसका प्रयोग कर वे खुद भी उसी बदतर स्थिति से निकले हैं। उसी हथियार का उपयोग कर वे समाज के उन लोगों तक मदद पहुचाने का काम करें जिनके पास वे साधन उपलब्ध नहीं हैं।
ट्विटर पर ट्रेंड कर के यदि किसी तक मदद पहुंचाई जा सकती है तो भारत का बहुसंख्यक हिस्सा ट्विटर पर नहीं है। वे अपनी समस्याओं को हैशटैग का इस्तेमाल कर ट्रेंड नहीं कर सकते हैं और ना ही मदद के लिए इस माध्यम का उपयोग वे कर सकते है।
अतः उन सभी स्टूडेंट्स से यह उम्मीद होगी कि वे आने वाले समय में समाज के उस हिस्से की आवाज़ बनें जिन तक मीडिया तो पहुंच जाता है मगर नेताओं की तथाकथित मदद उन तक नहीं पहुच पाती हैं।