“80 प्रतिशत आबादी सनातन धर्म को मानती है, यहां पर हिन्दू होना गेरुआ पहनना अपमान हो गया है। मैं पूछता हूं और पूछता है भारत। आज क्या हिन्दू चुप रहेंगे क्या हिन्दू समाज चुप रहेगा?”
यह बात कोई गली में चिल्लाने वाला युवक नहीं कह रहा है और ना ही कोई हिन्दू संस्था से जुड़ा व्यक्ति, बल्कि इस तरह चिल्लाने वाले एक व्यक्ति खुद को पत्रकार बताते हैं। नाम है अर्नब गोस्वामी!
इन सबके बीच सोनिया गाँधी को लेकर लाइव डिबेट में अर्नब गोस्वामी ने जिन शब्दों का प्रयोग किया है, उससे चर्चा का बाज़ार काफी गर्म है। अर्नब ने कहा,
आपकी पार्टी और आपकी पार्टी के रोम से आई हुई इटली वाली सोनिया गाँधी चुप नहीं रहती। आज वो चुप हैं, मन ही मन में मुझे लगता है वो खुश हैं। वो खुश है कि संतों को सड़कों पर मारा गया, जहां पर उनकी सरकार है।
उन्होंने आगे कहा, “रिपोर्ट भेजेगी वो, वो इटली में रिपोर्ट भेजेगी, मैं बोल रहा हूं। देखिए जहां पर मैंने एक सरकार बना ली, वहां पर हिंदू संतों को मैं मरवा रही हूं और वहां से वाहवाही मिलेगी, वाह बेटा वाह! बहुत अच्छा किया सोनिया गाँधी एंटोनियो मैंनू।”
क्या पत्रकारिता का धर्म लोगों को उकसाना है?
ये वो शख्श हैं जो रोज़ शाम को हिंदी और अंग्रेज़ी में टीवी चैनल पर बहस करते हैं यह कहकर सवाल पूछते हैं कि पूछ रहा है भारत! लेकिन अर्नब गोस्वामी को यह समझना होगा कि आज भारत आपसे यह पूछ रहा है, “क्या पत्रकारिता इसी को कहते हैं?”
“मैं सीधा बोलूंगा” बोलकर एक धर्म के लोगों को उकसाना क्या पत्रकारिता है? क्या किसी राजनीतिक दल के लोगों का नाम लेकर उनका मज़ाक बनाना, अपमान करना पत्रकारिता है? क्या दो धर्म के लोगों को बुलाकर बहसों में नफरत फैलाना पत्रकारिता है? क्या मुद्दों पर बहस के बजाये चिल्ला-चिल्लाकर ज़हर उगलना पत्रकारिता है?
क्या पत्रकारिता ज़हर उगलने का माध्यम है?
पिछले कुछ दिनों से अर्नब गोस्वामी के चैनल पर जिस तरह की बहस को जगह मिल रही है, इसे लेकर हर तरफ खामोशी है, क्योंकि शायद जो सत्ता में हैं उनको इस तरह की पत्रकारिता से मदद मिल रही है।
लेकिन उनको भी भूलना नहीं चाहिए कि ऐसे लोग जो पत्रकारिता का प्रयोग अपने अंदर भरे ज़हर को उगलने के लिए कर रहे हैं, इससे आने वाले वक्त में उन्हें भी नुकसन पहुंच सकता है।
सत्ता में बैठे लोगों के साथ-साथ आम लोग, जो सोच रहे हैं कि अर्नब गोस्वामी हिन्दुओं के साथ हैं, उन्हें यह नहीं भूलना चाहिए कि अर्नब गोस्वामी ने 2002 के गुजरात दंगे पर क्या कहा था?
अर्नब गोस्वामी के अनुसार, 2002 दंगो के वक्त जब उनकी गाड़ी तब के मुख्यमंत्री मोदी जी के घर से 50 मीटर की दूरी पर थी, तब उनकी गाड़ी को रोका गया और वहां के लोगों ने उनकी गाड़ी के शीशे त्रिशूल से तोड़ने शुरू किए।”
हालांकि इस बात पर अर्नब गोस्वामी पर यह आरोप भी लगाया गया था कि उन्होंने एक झूठी कहानी सुनाई थी जबकि ऐसा उनके साथ हुआ नहीं था।
ऐसे चैनलों को क्यों देख रहे हैं लोग?
सत्ता को यह शोर शायद अच्छा लगता हो जिससे सरकार के खिलाफ उठ रही आवाज़ों को जगह ना मिल सके। ऐसे में सवाल यह है कि क्या लोगों को भी यह शोर अच्छा लगने लगा है और अगर नहीं, तो फिर ऐसे चैनलों के चलने के पीछे क्या वजह है?
इन बहसों को देखने का अर्थ यही है कि चैनल की TRP इस तरह के शोर और ज़हर से बढ़ती है और लोग ऐसा देखना पसंद करते हैं।
अगर लोग इस तरह की पत्रकारिता को देख रहे हैं और पसंद भी कर रहे हैं, तो वाकई यह सोचने का वक्त है कि हम किस तरफ जा रहे हैं और हमारी मंज़िल कहां है?
पालघर की घटना के पीछे क्या मानसिकता थी?
क्यों हम हर बात पर नफरत फैलाना चाहते हैं और क्यों हम किसी के कहने पर भड़क जाते हैं? पालघर में साधुओं के साथ जो हुआ वह एक अपराध है लेकिन उसके पीछे की मानसिकता को भी समझने की ज़रूरत है। इस मानसिकता ने बुज़ुर्ग साधु की पीट-पीटकर हत्या कर दी।
लेकिन क्या यह असभ्य समाज केवल उन लोगों के कारण हुआ है जिन लोगों ने साधु की हत्या की है? या फिर हमने समाज में इतना नफरत और गुस्सा भर दिया है कि अब कोई भी गलत-सही के बीच फर्क नहीं कर पा रहा है?
साधुओं की हत्या के मामले में पुलिस का सामने खड़े होकर देखते रहना दुर्भाग्य था। पुलिस का कर्तव्य था कि साधुओं को वह वहां से निकालकर ले जाती।
बहस, हत्या और भीड़ की मानसिकता पर हो या धर्म पर?
इस बात में कोई दो राय नहीं है कि पुलिस अपने काम में विफल रही है लेकिन जब से यह घटना सामने आई है, तब से ही समाज का एक वर्ग इंसान की हत्या से ज़्यादा हिन्दू साधु की हत्या बोलने पर ज़्यादा ज़ोर दे रहा है। अर्नब गोस्वामी इसी समूह में शामिल पत्रकार हैं।
लोग यह कभी नहीं सोच पाएंगे कि चैनल में बैठकर जिस तरह से आग उगलने का काम किया जाता है, वह समाज में ज़हर बनकर लोगों के मन में घर कर लेती है।
क्या भीड़ और अर्नब की भाषा में फर्क है?
अर्नब गोस्वामी के बयान में और किसी दंगाई के भाषण में कोई अंतर नज़र नहीं आता है। क्या इस तरह लोगों को भड़काना देशद्रोह नहीं है? किसी व्यक्ति के बारे में अपमानजनक बातें कहना अपराध नहीं है?
मीडिया अगर सत्ता के रंग में रंग जाए तो वह ऐसे घोड़े की तरह हो जाती है जिसकी लगाम किसी के पास नहीं होती है। ऐसे में ज़िम्मेदारी लोगों पर है कि वे ऐसी बहसों को देखने से पहले सोचें कि टीवी चैनलों पर आप क्या देख रहे हैं।
यह अच्छा है कि कुछ दिन पहले अर्नब गोस्वामी ने एडिटर्स गिल्ड ऑफ इंडिया से इस्तीफा दे दिया है लेकिन मुझे इंतज़ार उस दिन का है जब अर्नब गोस्वामी पत्रकारिता जगत से इस्तीफा दे देंगे।
इसकी संभावना तो कम ही है लेकिन उनको देखने वाले लोग संभल जाएं तो बेहतर है। वे पत्रकारिता के साथ समझौता कर लेने वाले लोगों को बढ़ावा ना दें तो ही अच्छा है।