आदरणीय प्रधानमंत्री जी, नमस्कार!
जैसा कि हम सभी जानते हैं कि इस समय विश्व के अधिकतर देश कोविड-19 नामक महामारी से जूझ रहे हैं और अपने लोगों को बचाने के लिए तरह-तरह की रणनीति बना रहे हैं। इसी क्रम में हमारा देश भी एकजुट होकर अपने सीमित संसाधनों के बावजूद इस महामारी से लड़ने की पूरी कोशिश कर रहा है।
हमारे चिकित्सक, पुलिस बल, किसान, मज़दूर, सैनिक, कॉरपोरेट समूह एवं अन्य सभी कामगार अपने-अपने दायरे में इस बीमारी से लड़ रहे हैं। आप भी इस बीच जनता को इस बीमारी के प्रति जागरूक करने के लिए सोशल मीडिया और अन्य माध्यमों से पहल करते नज़र आ रहे हैं।
अब आते हैं मुद्दे की बात पर। पिछले दिनों आपने कोरोना वायरस के प्रसार को रोकने के लिए “जनता कर्फ्यू” घोषित किया और शाम को कोरोना फाइटर्स के उत्साहवर्धन हेतु घर की बालकनी में ताली-थाली बजाने का आह्वान किया लेकिन कुछ उत्साही लोगों ने इसके बिल्कुल उलट प्रतिक्रिया दिखाई।
आपके गृहराज्य में ही अहमदाबाद के कुछ जगहों पर लोगों ने समूह बनाकर रैलियां निकाली। उत्तर प्रदेश में भी एक ज़िले के डीएम और एसपी घंटा और शंख बजाते नज़र आए।
इन सब घटनाओं से कोरोना को लेकर कुछ लोगों की समझ उजागर हुई। उन्हें कोरोना कोई “बुरी नज़र” की तरह लगा जिसे घंटा बजाने और दिया जलाने से उतारा जा सके। हम लोगों ने ऐसे भी समाचार सुने जिनमें इन कोरोना फाइटरों को उनकी कॉलोनी वालों के बहिष्कार का सामना करना पड़ा।
प्रधानमंत्री जी, आपके द्वारा २३ मार्च की शाम को अचानक घोषित किए गए देशव्यापी लॉकडाउन से शहरों में जो अफरातफरी मची और उसके बाद जो बड़े-बड़े शहरों से मजदूरों का पलायन हुआ, उनके दुख-दर्द का आपको अंदाजा नही था?
मैंने सुना है कि आपके चुनावी रणनीतिकार आपके कार्यक्रमों के पहले ही ग्रास-रूट की सारी जानकारी इकठ्ठा और उसका मूल्याकन करके आगे की वृहद रणनीति बनाते हैं। क्या आपके रणनीतिकारों ने आपको रोज़ कमाकर खाने वाले गरीबों को होने वाली परेशानियों से अवगत नहीं कराया?
खैर, कोई बात नहीं। वैसे भी आपने जिस “सोशल डिस्टेंसिंग” का पालन करने की सलाह दी है वो तो हमारे देश में हज़ारों साल से जाति और धर्म के नाम पर अभ्यास किया जाता रहा है। अगर यहां इस व्यवहार को “फिज़िकल डिस्टेंस” का नाम दिया जाए तो ज्यादा अच्छा रहता।
महोदय, मैं आपसे एक बात और कहना चाहूंगी। जिस देश की बागडोर आपने संभाली है, वहां की जनता बहुत भोली है। आपके छोटे-छोटे कथनों पर वो अपना सर्वस्व न्यौछावर करने को तैयार है। वो कितनी भी तकलीफ में क्यों ना रहे लेकिन आप जो कहेंगे, उसका पालन ज़रूर करेगी क्योकि वो अपने नेता से प्रेम करती है।
वो यह भूल जाती है कि उनकी कुछ अलग तकलीफें भी हैं। ये वही देश है जहां संसाधनों का बंटवारा एक सामान नहीं है क्योकि यहां भी ‘ट्रिकल डाउन थ्योरी’ की तर्ज़ पर हमारी अर्थव्यवस्था चल रही और ये कितनी कारगर होगी नहीं मालूम।
लेकिन अभी कुछ उलट स्थिति देखने को मिली कि पलायन करने वाले गरीबो का शुद्धिकरण हो रहा था जिसमें उनके उपर केमिकल वर्षा की जा रही थी। क्या ऐसा ही व्यवहार हमने एयरपोर्टों के रास्ते आने वाले संपन्न वर्ग के लोगों के साथ भी देखा है?
कुछ लोग इस पलायन को आज़ादी के बाद हुए धार्मिक विभाजन के बाद सबसे बड़ा आर्थिक विभाजन मान रहे हैं, जहां संपन्न लोग अपने घरों की छतों और अपार्टमेंट की बालकनियों से थाली बजा रहे थे।
वहीं, शहरों से बेघर लोग अपने परिवार सहित सैकड़ों किलोमीटर लम्बी पदयात्रा कर रहे थे जिसमें वे सरकार की मदद के बजाय पुलिस बल की हिंसा झेल रहे थे जिसका कारण सरकार द्वारा लॉकडाउन करने से पहले पर्याप्त तैयारी का अभाव था।
मेरा आपसे सवाल है कि क्या अभी इन सब कर्मकाण्डो की ज़्यादा ज़रूरत है या इससे कुछ ज्यादा? ये आपसे भी छुपा नहीं है कि कैसे हमारे देश की गरीब जनता जिस पर इस देश रीढ़ टिकी हई है, अभी किस हालात में है। एक तरफ जहांतालाबंदी की वजह से उनके काम-धंधे बंद हो गए हैं, वही उनके घरों में दोनों टाइम खाने के भी लाले हैं।
वे चीख-चीखकर कह रहे हैं कि जिस महामारी की बात हो रही है वो तो अमीरों के लिए है, हम गरीबों को उससे पहले इस भुखमरी की महामारी निगल जाएगी।
ऐसा देखा गया कि जब तालाबंदी की खबर आई तो एकाएक भगदड़ सी मच गई। कितने मज़दूर कई सौ किलोमीटर पैदल चलने को मजबूर हुए। कुछ ने तो रास्ते में ही दम तोड़ दिया। नहीं मालूम कि ये सब बातें आपको पता हैं भी या नहीं। फिर वही एक तरफ आपने इस वायरस से देश की रक्षा के लिए एक नया राहत कोष पीएम-केयर्स खोला जबकि पहले वाले पीएम एआरएफ के करोड़ों रुपये बैंकों में फिक्स डिपॉज़िट के लिए लगाए हुए हैं।
इस कोष द्वारा लोगों को राहत पहुचाई जाएगी लेकिन इस केंद्रीकृत सिस्टम से जब तक राहत सामग्री इन गरीबों तक पहुंचेगी तब तक काफी लोग काल के गाल में समां जाएंगे और यह देश की सबसे बड़ी विफलता होगी अगर उसका एक भी नागरिक भूख से मर जाए। यह तो शुक्र है कि आज मनुष्य ही मनुष्य के काम आ रहा है। इसी क्रम में स्थानीय लोग जिनसे जो बन पड़ रहा है, अपनी जान की परवाह किए बिना वे अपनी ज़िम्मेदारी का निर्वहन कर रहे हैं।
प्रधानमंत्री जी, एक तरफ तो मौसम की अनिश्चितताएं और ऊपर से इस महामारी का प्रकोप। ऐसे में आपसे उम्मीद थी कि आप कुछ अन्य मुद्दों पर बात करते जिसकी अपेक्षा देशवासी आपसे करते हैं। जैसे कि हमारे देश में फैली इस महामारी से लड़ने के लिए सरकार किन-किन उपायों पर विचार कर रही है।
टेस्ट की संख्या बढ़ेगी या नहीं, डाक्टरों के PPE की संख्या बढाई जाएगी या नहीं, लॉकडाउन की आगे की समीक्षा, बच्चो की पढाई-लिखाई पर बात, किसानों-मज़दूरों की समस्या, विधवा-बूढों की समस्या, मीडिया के साम्प्रदायिक एजेंडे की समस्या इत्यादि पर भी यदि आप बात करते तो अच्छा होता।
आज जब सारी दुनिया में हेल्थ सेक्टर के सरकारीकरण की बात चल रही है तो सरकार द्वार इस सेक्टर के लगातार निजीकरण किए जाने को लेकर क्या विचार है? मेरा यहां यह सब कहने का अर्थ यही है कि आप अगर जनता से सीधा संवाद कर रहे हैं तो उनसे इन सब मुद्दों पर भी बात करिए तभी वे आपसी एकजुटता का असली मतलब समझ पाएंगे।
रही बात दिया-मोमबत्ती जलाने की तो ऐसे भी भारत के नागरिक स्वभावतः उत्सवी प्रकृति के हैं और इस तरह के काम को वे अपने कर्मकांड का हिस्सा समझकर बखूबी निभाएंगे भी परन्तु ज़रूरत अभी इन सब से आगे सोचने की है। अंत में मैं शुक्रगुज़ार हूं कि आपकी सरकार ने देश के मध्यमवर्ग के लिए संजीवनी समान रामायण और महाभारत जैसे कार्यक्रमों का दूरदर्शन पर प्रसारण करने का निर्णय लियाय़
प्रधानमंत्री जी, आपका बहुत-बहुत आभार और धन्यवाद जो आप हम देशवासियों से संवाद स्थापित करते रहते हैं और कामना करते हैं कि आगे भी करते रहेंगे।