कल रात आठ बजे जब प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी ने देश के नाम संदेश दिया तब उन्होंने वो ज़रूरी काम किया जो कायदे से उनको कुछ हफ्ते पहले ही कर देना चाहिए था। देश के मुखिया होने के नाते उनका स्थान किसी परिवार के पिता से कम नहीं है।
ऐसे में देश के नाम उनका संदेश देशवासियों को मनोबल एवं दिशा प्रदान करता है। जहां तक उनके इस संदेश का सवाल है तो यह एक नपा- तुला संदेश था जिसमें कि कोरोना वायरस से होने वाले खतरे की संभावना से प्रधानमंत्री जी ने देश की जनता को अवगत कराया।
विश्व युद्ध से होने वाले नुकसान से कोरोना के संक्रमण की तुलना
उन्होंने इसकी तुलना विश्व युद्ध से होने वाले नुकसान से करते हुए जनता को सजग रहने के लिए कहा। उन्होंने 1965 के भारत-पाकिस्तान युद्ध के समय होने वाले ब्लैकआउट की याद दिलाते हुए इस ओर ध्यान दिलाया कि जनता और सरकार के परस्पर सहयोग से ही हम मुश्किलों का सामना कर सकते हैं।
उनका आग्रह करते हुए कहा, “अमीर लोगों को इस समय अपने यहां नौकरी करने वाले उन लोगों का वेतन नहीं रोकना चाहिए जो कोरोना के कारण नौकरी पर ना आ सकेंगे।” खैर, यह बेहद सराहनीय है।
समाजवादी मूल्यों के करीब आते हुए उन्होंने देश के अमीर लोगों से जो आह्वान किया है, वह और भी ईमानदारी भरा लगता यदि प्रधानमंत्री जी उसको कानूनी रूप से से बाध्य बना देते। वैसे मेरा विश्वास है कि प्रधानमंत्री जी जल्द ही इसको कानून की शक्ल देकर देश के गरीबों को बड़ी राहत देंगे।
पीएम के इस बयान का दूरगामी असर हो सकता है!
इस सबसे हटकर एक परेशानी वाली बात भी प्रधानमंत्री जी ने कही जिसका असर दूरगामी हो सकता है। उन्होंने कहा कि वह सामाजिक, धार्मिक एवं अन्य धार्मिक संगठनों से सहयोग की आशा करते हैं। एक ओर जहां आम समाज में ऐसी अपेक्षा बिलकुल प्राकृतिक है, वहीं भारत में इस अपील के भयावह परिणाम हो सकते हैं।
भारत के पिछले अनुभवों के मद्देनज़र हम प्रधानमंत्री से ऐसे किसी वक्तव्य की आशा नहीं करते हैं। जिनकी याद्दाश्त ज़रा कमज़ोर हो उनको मैं याद दिलाना चाहूंगा कि लोगों को जब स्वच्छ भारत अभियान में सहयोग के लिए बोला गया था तब ऐसे कई संगठनों ने खुले में शौच का बहाना लेकर गरीब एवं निम्न वर्ग के लोगों पर हिंसक और जानलेवा हमले किये थे।
कहीं गौरक्षा वाले संगठन बुज़ुर्गों पर हमला ना कर दें
इस से भी आगे ऐसे कई संगठनों का काम ही गौरक्षा के नाम पर हिंसा फैलाना रहा है। याद रहे ज़्यादातर राज्य जहां कि गौरक्षा के नाम पर हिंसा होती आई है, वहां गौहत्या या गौतस्करी अपराध है और उसे रोकना पुलिस का काम है ना कि किसी नागरिक संगठन का।
तब भी कानून की मदद के नाम पर ये संगठन खुद ही आपराधिक गतिविधियों में लिप्त हो जाते हैं। ऐसे कई मामले सामने आए हैं जबकि इन संगठनों ने गरीब लोगों से उगाही की और बेवजह उन पर हमला किया।
अगर हम इन संगठनों के इस इतिहास को सामने रखें तो प्रधानमंत्री जी के इस बयान में समझदारी की कमी या तो नज़र आती है अथवा यह एक प्रयास है, जहां पर कि उनकी पार्टी से संबंध रखने वाले संगठनों को हिंसा की खुली अनुमति दे दी गई है।
खुदा ना करे कि ऐसा हो लेकिन मुझे यह डर है कि ये संगठन किसी भी बुज़ुर्ग पर यह कहकर हमला कर सकते हैं कि प्रधानमंत्री जी ने उनको घर में रहने के लिए बोला है और यही देशहित है या किसी के समारोह पर भी हमला हो सकता है।
भारत के पास पर्याप्त सेना, अर्द्धसेना, पुलिस एवं अर्द्धपुलिस मौजूद है। मेरा मानना है कि इन नियमों को लागू करने की ज़िम्मेदारी निभाने के लिए वे काफी हैं। इसके अलावा किसी संगठन को सहयोग के नाम पर मुख्यधारा में लाना अथवा उसको किसी भी प्रकार से मौका देना देश के वर्तमान परिपेक्ष में ठीक नहीं है।
हो सकता है प्रधानमंत्री जी की मंशा बहुत अच्छी रही हो लेकिन जिस तरह से उन्होंने संदेश दिया है, वह बहुत से हिंसक संगठनों के मनोबल को अवश्य बढ़ावा देगा। मेरा अनुरोध है कि प्रधानमंत्री जी इस बयान पर पुनर्विचार करें।