शब्द “मानसिकता” पढ़ने और सुनने में जितना साधारण लगता है, व्यवहार में उतना ही व्यापक है। अगर हम सब ध्यान से इस शब्द के मायने समझें, तो कह सकते हैं कि एक व्यक्ति का सम्पूर्ण जीवनचक्र इसी शब्द के आस-पास घूमता है।
शब्द की व्यापकता का अनुमान इससे भी लगाया जा सकता है कि व्यक्ति के उत्थान और पतन के कारण उसकी मानसिकता में अंतर्निहित होते हैं। व्यक्ति किसी विषय वस्तु का अवलोकन तथा उससे सम्बंधित अवधारणा का सृजन कैसे करता है, यह उसकी मानसिकता पर ही निर्भर करता है।
यदि हम व्यक्ति को समाज की सबसे छोटी इकाई के रूप में देखें, तो भी उसकी मानसिकता के वजूद को नकारा नहीं जा सकता है, क्योंकि व्यक्ति की मानसिकता ही समाज के निर्माण तथा उसके प्रगति की अहम कड़ी है।
व्यक्ति विशेष की भूमिका इसलिए भी महत्वपूर्ण हो जाती है, क्योंकि समाज की प्रकृति तथा वर्तमान एवं भविष्य की रूपरेखा कैसी होगी, यह व्यक्ति और उसकी मानसिकता पर ही निर्भर करता है।
समाज निर्माण में मानव की भूमिका
प्रारंभ से ही समाज के निर्माण में मानव सर्वोपरि रहा है, फिर चाहे वह पुरुष हो या महिला, दोनों की ही भागीदारी समान रही है। हालांकि महिलाओं की स्थिति में उतार-चढ़ाव आते रहे हैं। परन्तु समाज के कल्याण में उनकी महत्वपूर्ण भागीदारी को अनदेखा नहीं किया जा सकता है।
स्वतंत्रता के पश्चात संविधान ने लिखित रूप में महिला एवं पुरूष को समान अधिकार दिए मगर आज भी कई परिस्थितियों में महिलाओं की स्वतंत्रता एवं अधिकार घर की चारदीवारी में दबकर रह गए। इसका प्रत्यक्ष प्रमाण सन्तानोत्पति में पुरुष प्रभुता का होना भी है।
यद्यपि संतानोत्पत्ति में स्त्री-पुरुष की समान भागीदारी रहती है मगर आज भी ऐसी बहुत सी महिलाएं हैं, जो शारीरिक एवं मानसिक रूप से माँ बनने को तैयार ना होने पर भी पुरुष-आधिपत्य के वशीभूत माँ बनने के लिए विवश हो जाती हैं। इन विशेष समय में महिलाओं की इच्छा जानने का प्रयत्न करने वाले पुरूषों को ऊंगलियों पर गिना जा सकता है।
उपरोक्त बातों को लेकर किए गए सर्वे के समय हमारी ‘Aim to Sustain Foundation’ की टीम ने कुछ ऐसी महिलाओं से बात की, जिन्होंने शायद माँ बनने के लिए शारीरिक एवं मानसिक रूप से तैयार ना होते हुए भी पुरुष आधिपत्य के चलते अपनी इच्छाओं का गला घोंट दिया।
महिलाओं द्वारा दी गई जानकारियां
टीम से बात करते हुए कुछ महिलाओं ने कहा,
यह सच है कि हम इस उम्र में माँ बनना नहीं चाहते थे मगर कुछ परम्पराओं के चलते हम अपनी इच्छाओं को व्यक्त नहीं कर पाए। साथ ही हमारे पुरुषों ने भी हमारी भावनाओं को जानने की कभी कोशिश नहीं की।
एक महिला से हो रहे संवाद के दौरान एक कोने से दूसरी महिला के स्वर हमारे कानों में पड़े,
वैसे हमारे लिए स्वतंत्रता एवं अधिकार जैसे शब्द केवल किताबों तक सीमित हैं। हम अपने अधिकारों का प्रयोग करके अपनी भावनाओं को व्यक्त करना नहीं चाहते। हम चाहते हैं कि लोगों की मानसिकता बदले और वह यह सुनिश्चित करने लगें कि सन्तानोत्पति जैसे महत्वपूर्ण निर्णय के समय महिलाओं की भी इच्छा जानना आवश्यक है।
अपनी बात पूरी करते हुए उन्होंने एकजुट होकर कहा,
अधिकारों से नहीं अपितु सकारात्मक मानसिकता से एक स्वस्थ्य समाज का निर्माण होगा।
प्रारम्भ से ही नारी, गंभीरता एवं सहनशीलता का प्रतीक रही हैं और आज भी इसकी झलक प्रत्यक्ष अथवा अप्रत्यक्ष रूप में देखने को मिल जाती है। सन्तानोत्पति जैसी बहुत सी समस्याएं, शिक्षा और रोज़गार जैसे मुद्दों के पीछे छिप सी गई है।
हमारी टीम लगातार ऐसे मुद्दों पर कार्यरत है ताकि ऐसी बहुत सी समस्याओं से समाज को अवगत करा सकें। साथ ही लोगों की मानसिकता में सकारात्मक परिवर्तन ला सकें और समता-समानता जैसे शब्द केवल किताबों तक ही सीमित ना रहे, बल्कि बाहरी दुनिया में भी स्वीकार किए जा सकें।
लेखक- पंकज यादव (उपाध्यक्ष, ए.टी.एस. फाउंडेशन)