“सिर्फ एक थप्पड़ ही तो है लेकिन नहीं मार सकता कोई।”
अनुभव सिन्हा ने दिल निचोड़कर रख दिया। एक मर्द होते हुए जिन बारीकियों से उन्होंने औरतों की ज़िंदगी को पेश किया है, वह काबिल-ए-तारीफ है और साथ ही में इस नैरेटिव पर भी करारा प्रहार है कि एक औरत ही दूसरी औरत की जीवनी को सच्चाई के साथ पेश कर सकती है।
यह कोई मूवी रिव्यू नहीं है। इसलिए इसकी सारी बारीकियों को ना छू पाने के लिए खेद चाहती हू। इस लेखनी के ज़रिये मैं अपने दिल में दबे उन हज़ारों सवालों का जवाब ढूंढने की कोशिश कर रही हूं, जिसने मुझे अंदर से विचलित कर दिया है।
आंखों के सामने लड़कियों की कहानियां तैर रही थीं
बहुत सी बातें हैं कहने को लेकिन पन्ने शायद कम पड़ जाएं। ऐसा लग ही नहीं रहा था जैसे कोई मूवी चल रही हो। आंखों के सामने हर रोज़ ऐसी ही ज़िन्दगी जीती हुई हज़ारों लड़कियां दिख रही थीं। मूवी शुरू तो होती है अमृता (तापसी पन्नू) से लेकिन हर उस औरत की ज़िंदगी को छू लेती है जो इस पितृसत्तामक समाज में खुद से जद्दोजहद कर रही हैं।
जब मूवी का ट्रेलर देखा तो मुझे भी लगा कि सिर्फ एक थप्पड़ की वज़ह से तलाक लेना बहुत बड़ी बात है लेकिन जिस बारीकी से इन औरतों की कहानी को दिखाया गया है, वह हर मायने में ज़याज़ है। एक थप्पड़ की वजह से तलाक लेना, क्योंकि वह सिर्फ एक थप्पड़ नहीं होता है, बल्कि एक औरत की अस्मिता के साथ खिलवाड़ होता है। हम सब कहीं ना कहीं अपनी ज़िंदगी में उस थप्पड़ को महसूस करते हैं, जो शायद कभी दिख जाता है तो कभी अदृश्य होता है।
हमारी माएं सिखाती हैं समझौते करना
कितना आसान होता है ना एक औरत के सारे किए को एक पल में भुला देना और हो भी क्यों ना! हम औरतों को तो बचपन से ही समझौता करना और थप्पड़ खाना सिखाया जाता है। याद रहे, ये सारे समझौते हमारी माएं सिखाती हैं, उन्हें उनकी माएं और उन्हें उनकी और ये रीत यूं ही चलती रहती है।
अगर तापसी के बाद कोई किरदार काबिल-ए-तारीफ है, तो वह है ओ उसके पिता का। जो दर्द उसकी माँ को समझ लेना चाहिए था, वह दर्द उसके पिता समझते हैं। अगर हर लड़की के पिता अमृता (तापसी) के पिता की तरह हो जाएं, तो हमारे समाज मे औरतों की वो दुर्दशा कभी ना हो जो आज के वक्त में है।
अपनी आवाज़ उठाने में असफल महिलाओं की कहानियों का खूबसूरती से चित्रण
इस मूवी में हर उस औरत के जीवन के पहलुओं को छुआ गया है, फिर चाहे वो उस घर की काम वाली हो, उसकी सास और माँ हो, एक विधवा हो या फिर उसकी लॉयर, जो कि खुद तो महिलाओं को इंसाफ दिलाती हैं लेकिन अपनी हक की आवाज़ उठाने में असफल रहती हैं।
इस मूवी को देखते हुए ना जाने कितनी ही बार आंसुओं का सैलाब खुद-ब-खुद बहता जा रहा था। बस यही महसूस हो रहा था कि ये है हम औरतों की ज़िंदगी, जिसकी ना तो किसी को परवाह है और ना ही कद्र। किस मुकाम पर आ रुकी है हमारी ज़िंदगी, जिसकी डोर हमेशा से किसी और के हाथों में थाम दी गई है।
मूवी को बिल्कुल भी ड्रामेटिक ना बनाते हुए सिर्फ एक गाना डाला गया है और वो भी कमाल का है। उसकी लाइन्स कुछ इस तरह हैं,
टूट के हम दोनों में जो बचा वो कम सा है, एक टुकड़ा धूप का अंदर अंदर गम सा है। एक धागे में हैं उलझे यूं कि बुनते-बुनते खुल गएं।
मूवी की कुछ बेहतरीन लाइनें
“जोड़कर रखनी पड़े किसी चीज़ तो मतलब वो टूटी हुई है।”
“शादी- गरिमा और सुरक्षा की भावना के लिए किया गया एक अनुचित सौदा है।”
“मम्मियों के पास तो वैसे भी ज़्यादा चॉइस नहीं होती है लेकिन थोड़ी सी खुशी तो बचा लेनी चाहिए।”
“पता है उस थप्पड़ से क्या हुआ? उस एक थप्पड़ से मुझे वो सारी अनफेयर चीज़ें साफ-साफ दिखने लग गईं, जिसको देखकर भी मैं अनदेखा कर रही थी और मूवऑन करे जा रही थी।”
मूवी के अंत में अमृता (तापसी) के पति को उसकी गलती का एहसास होता है, फिर वह जो बात वो बोलता है उससे बाकी मर्दों को सीख लेने की ज़रूरत है।
वह कहता है, “वो एक थप्पड़ जो मैंने तुमको मारा, वो मेरा हक नहीं था और किसी का हक नहीं होता है।
इस पूरी मूवी में मुझे सबसे अजीब यह लगा कि जिस तरीके से मूवी के अंत में सारे मर्दों को अपनी गलतियों का एहसास हो जाता है, ऐसा असल की ज़िंदगी में नहीं होता है।
अंत में सिर्फ यही कहना चाहूंगी कि यह मूवी सच में उस पितृसत्ता के मुंह पर तमाचा है, जिसकी वजह से ना जाने कितनी ही औरतें सदियों से अपनी ज़िंदगियां कुर्बान कर रही हैं।
अब समय आ गया है हर उस औरत को त्याग की मूरत बनने की बजाय खुद को उन बेड़ियों से आज़ाद करने की, जो कि सदियों से प्रथाओं के तौर पर औरतों को जकड़ी हुई हैं।
लेकिन यह तब तक मुमकिन नहीं है, जब तक मर्दों को एहसास नहीं होगा कि औरतों महज़ घर में काम करने वाली और बिस्तर पर भोग की वस्तु नहीं हैंं बल्कि सही मायनों मे आपकी सुख-दुख की साथी है और उनकी इज़्जत करना और उनको समझना एक इंसान का पहला कर्त्तव्य है।