बीते हफ्ते देश की राजधानी में जो हुआ, वह दुखद था लेकिन हमेशा की तरह अप्रत्याशित भी था। लोग इसके लिए भारतीय जनता पार्टी को हेट स्पी़च, पुलिस प्रशासन और नई दिल्ली की नवनिर्वाचित सरकार को दोषी ठहरा रहे हैं।
लोग यह भूल रह हैं कि जिस भारतीय जनता पार्टी की सरकार को जनता ने साल भर पहले ही प्रचंड बहुमत से चुना है, वह अपने लक्ष्यों के प्रति एक ईमानदार संगठन है। एक खास समुदाय के प्रति उनका ही नहीं, बल्कि उनकी मातृसंस्था के नफरत का भाव कई दशकों से चला आ रहा है।
दिल्ली में हुई आगजनी से दुखी होना चाहिए मगर हैरान नहीं
सत्ता में आने से पहले अनुच्छेद 370, राम मंदिर निमार्ण की बात से लेकर तीन तलाक औप एनआरसी की बातें उनके घोषणा पत्र में पहले से दर्ज़ थी। जब वह सिर्फ अपना घोषित एजेंडा पूरा कर रहे हैं, फिर हंगामा क्यों बरपा? अभी तो बस शुरुआत है। देश को दिल्ली में हुई आगजनी से दुखी ज़रूर होना चाहिए मगर हैरान नहीं!
क्या देश का हर व्यस्क मतदाता यह नहीं जानता था कि भारतीय जनता पार्टी सता में बहुमत से आएगी तो क्या करेगी। क्या दिल्ली के मतदाताओं को यह नहीं पता था कि जिस तरह आम आदमी पार्टी पहली बार सत्ता में आने के बाद अपनी प्रमुख प्रतिद्वंद्वी काँग्रेस के साथ सरकार बनाने के लिए तैयार हो गई थी, उसी तरह दूसरी बार सत्ता में आने के बाद अपने प्रमुख प्रतिद्वंद्वी भाजपा के खिलाफ नरम हो जाएगी।
क्या दिल्ली की जनता यह नहीं जानती थी कि दिल्ली में शासन चलाने के लिए केंद्र के साथ मधुर संबंध बनाकर ही बढ़ा जा सकता है। विरोधी के रूप में पिछले पांच साल तो जनता ने देख ही लिए हैं।
केजरीवाल से महात्मा गाँधी होने की उम्मीद नहीं की जा सकती
दिल्ली सरकार के मुखिया अरविंद केजरीवाल पर जहां तक यह सवाल उठ रहे हैं कि उन्हें आगजनी वाले इलाकों में जाकर लोगों का जायज़ा लेना था, तो इस पर मैं यही कहूंगा कि आज के युग में किसी से महात्मा गाँधी होने की उम्मीद करना कहां तक सार्थक है?
महात्मा गाँधी होने के लिए महात्मा बनने की पूरी प्रक्रिया और संघर्षों से गुज़रना पड़ता है। जो आज के समय में संभव नहीं है।
भले ही सत्याग्रह के ज़रिये गाँधी के बारे में लोगों के ज़हन में अच्छी तस्वीर बनती हो मगर आज के दौर में ये सब सत्ता पाने का एक तरीका भर रह गया है। कम-से-कम अन्ना आंदोलन के बाद केंद्र में भारतीय जनता पार्टी की सरकार और राज्य में आम आदमी पार्टी के उभार से यह तो समझा ही जा सकता है।
दिल्ली में हुई हिंसा और आगजनी ना ही कानून व्यवस्था के विफलता का नतीजा है और ना ही नागरिकता संशोधन कानून के पक्ष-विरोध में चल रहे टकराव का परिणाम है।
दिल्ली पुलिस का यह तथ्य बता देता है कि यह एक सोची-समझी परियोजना का हिस्सा है, जिसके लिए उस लोकतांत्रित जज़्बे का खात्मा किया जाना सबसे ज़रूरी है। जो सभी नागरिक को समान मानता है, सबके लिए बराबरी के अधिकारों और इंसाफ की बात करता है। दिल्ली पुलिस के अनुसार, पांच सौ राउंड गोलियां चली हैं। उपद्रव में इतनी बड़ी संख्या में अवैध हथियारों के इस्तेमाल से पुलिस भी परेशान है।
क्या लोकतंत्र सरकारों के बनने या गिरने से कायम होता है?
अकाली दल के प्रमुख प्रकाश सिंह बादल ने कहा है कि हमारे देश के संविधान में तीन चीज़ें लिखी हैं, जो सेक्युलरिज़्म, सोशलिज़्म और डेमोक्रेसी। यहां ना तो सेक्युलरिज़्महै, ना ही सोशलिज़्म है। अमीर, अमीर होता जा रहा है गरीब, गरीब होता जा रहा है। डेमोक्रेसी भी सिर्फ दो स्तर पर ही रह गई है, एक लोकसभा इलेक्शन और दूसरा स्टेट इलेक्शन, बाकी कुछ नहीं।
जनता को नहीं लगता है कि लोकतंत्र खतरे में है। आखिर चुनाव तो हो रहे हैं, राज्यों में सरकारें भी बदली जा रही हैं। जनता को यह समझने की ज़रूरत है कि लोकतंत्र केवल सरकारों के बनने या गिरने से कायम नहीं होता है। लोकतंत्र के निमार्ण और संरक्षण में तरह-तरह की सामाजिक संस्थाओं का लोकतांत्रिक होना ज़रूरी है।
हाल के दशकों में हमारी लोकतांत्रिक संस्थाएं एक खास विचारधारा के प्रभाव में अब लोकतांत्रिक नहीं हैं। दिल्ली में हुई आगजनी की घटनाएं तमाम सामाजिक संस्थाओं के अलोकतांत्रिक होने के कारण हुई हैं, जिसका हिस्सा दिल्ली पुलिस भी है जिसकी पूरी की पूरी भूमिका संदेह के घेरे में है।
आगजनी की तमाम दुखद घटनाओं और हादसों के बीच में जो थोड़ा बहुत बचा हुआ है, वह है समाजिक समरसता का प्रेम-भाव, जिसकी कहानी ज़ख्मी, बोझिल शरीर के आंखों से आंसू बनकर फफक-फफककर धीरे-धीरे बाहर आ रही है और बता रही है कि समाजिक समरसता में लोकतंत्र ही नहीं, बल्कि लोकतांत्रिक विचार अभी भी ज़िंदा हैं। यानी आगजनी के बाद भी, दिल्ली वालों का शहर जिंदा है।