शराब के ठेकों पर आप कभी गौर करेंगे तो एक बात कॉमन मिलेगी कि अधिक्तर शराब के ठेके एससी, एसटी, ओबीसी व अल्पसंख्यक वर्गो की कॉलोनियो के पास ही स्थापित किए जाते हैं, जिन पर गरीब, मज़दूरों की लाइन लगती है।
लाइन लगाने वाले ये गरीब अपनी मज़दूरी का 50% से ज़्यादा शराब के सेवन पर खर्च कर देते हैं। होली के दिन मेरे घर के सामने होली खेलकर आ रहे एक बंदे की शराब की बोतल फुट गई, उसे इतना दुःख हो रहा था जैसे कि उसका खज़ाना लुट गया हो लेकिन क्यों? इसलिए कि वास्तव में इसका सेवन करके उसे-
- मानसिक गुलामी का एहसास नहीं होता।
- बच्चों के भविष्य के प्रति कोई चिंता नहीं रहती।
- घर में क्लेश भरपूर होता है लेकिन शराब के नशे में महिलाओं और बच्चों का दर्द नहीं दिखाई देता।
- गरीबी का एहसास नहीं होता।
- नई सोंच वगैरह विकसित नहीं कर पाते।
कारण मनुवादी व्यवस्था की मज़बूती है?
मैं कल इस विषय पर ही चर्चा कर रहा था कि एससी-एसटी एरिया में जो भी अम्बेडकरवादी व्यवस्था को अपनाकर मिशन के साथ जुड़ा उनका व उनके जेनेरेशन में एक नई सोच विकसित हो गई। इसका मुख्य कारण यह है कि उन्होंने शराब से दूरी बनाई और कभी ना कभी सफलता अर्जित की।
इसके अलावा जो मिशन से नहीं जुड़े लेकिन सफल हैं। उनमें भी कहीं ना कहीं अम्बेडकरवादी विचारधारा का प्रभाव है, क्योंकि समाज में मान्यवर कांशीराम जी के प्रयासों से 1975 के बाद ही एक ऐसे अम्बेडकरवादी माहौल का निर्माण हुआ, जिससे वे सरकारी नौकरी के अलावा अन्य क्षेत्रों जैसे व्यापार में भी उपलब्धि हासिल कर रहे हैं।
यदि ऐसा नहीं होता तो लोग सुबह सट्टे का नम्बर पूछकर दिन की शुरुआत करते और नम्बर नहीं आने पर दुःख में ठेके पर पहुंचने का क्रम शुरू होता। उसके बाद पूरा दिन सट्टे में कौन सा नम्बर आ सकता है की उधेड़बुन दारु की आखरी बूंद पर ही खत्म होती।
वास्तविकता क्या है?
एससी-एसटी समाज पुरुष प्रभुत्व प्रधान है। उनकी पंचायतें भी इसी प्रकार की हैं, इसलिए सामाजिक तौर पर इस बुराई से निजात पाने के लिए कोई जनजागरुकता पर मंथन नहीं करता है।
हां, किसी महिला के चरित्र से सम्बन्धित कोई मामला हो जिसमें मज़े मिल रहे हों, उस बहस में मज़दूरी छोडकर भी पुरुष शामिल होंगे। यनी बस मज़ा आना चाहिए।
मज़े के कारण
- प्रतिभाशाली बच्चों की योग्यता का बचपन में ही खत्म हो जाना।
- परिवार गरीबी से चिंतित रहता है।
इसी समाज के प्रतिशत को दिखाकर सरकारी नौकरी मांगने वाला बाद में इस समाज की तरफ पलटकर देखता तक नहीं है। नौकरी मिलने के बाद इन गरीब परिवारों के प्रतिशत को दिखाकर कहता है कि अभी समाज गरीब है, इसलिए प्रमोशन में आरक्षण मुझे चाहिए।
ऐसा क्यों?
नौकरी व प्रमोशन में आरक्षण मिलने के बाद उसकी ज़िम्मेदारी तय नहीं है। कोई उससे नहीं पूछेगा कि जिस समाज की दुर्दशा को दिखाकर तुमने आरक्षण व प्रमोशन में आरक्षण लेकर नौकरी ली है, उस समाज के सुधार के लिए उसने खुद क्या किया है?