आज ही वह दिन है जब आधी आबादी की पूरी बात होती है, जी बात 8 मार्च की हो रही है। 8 मार्च यानी अंतरराष्ट्रीय महिला दिवस। ये वह दिन है जब हमारा पूरा पितृसत्तात्मक समाज नारीवादी हो जाता है।
पितृसत्ता के लिए नारीवाद का मतलाब ही क्या है, सिवाय मंचों पर खड़े होकर महिला सशक्तिकरण पर भाषण देने के। सच तो यही है कि यह लोग खुद को महिलाओं का बड़ा हितैषी साबित करने में कोई कसर नहीं छोड़ते।
पितृसत्तात्मक व्यवस्था को बढ़ाने में पुरूष ही नहीं, महिलाएं भी बराबर की भागीदार हैं
मंचों पर खड़े होकर भाषण देने वालों में सिर्फ पुरूष ही नहीं बल्कि महिलाएं भी होती हैं। पितृसत्तात्मक व्यवस्था को बढ़ाने में सिर्फ पुरूष के ही कंधे पर ज़िम्मेदारी नहीं होती बल्कि इस रूढ़िवादी और गुलामी की व्यवस्था को कायम रखने में महिलाएं भी बराबर की भागिदार हैं।
इसका उदाहरण है हाल ही में आई एक फिल्म “थप्पड़” जिसमें नायिका की मां एक डायलॉग में कहती है, “बस एक थप्पड़ ही तो है इसमें डिवोर्स लेने की क्या बात है।” एक अन्य डायलॉग में नायिका की सास कहती है, “लड़की को ही घर समेट कर रखना पड़ता है।”
इन डायलॉग्स से ही स्पष्ट होता है कि एक महिला ही अपनी बेटी और बहू का साथ नहीं देती हैं। एक महिला ही दूसरी महिला को अन्याय सहन करने की सीख देती है।
ये महिलाएं घरेलू हिंसा को सामान्य तरीके से पेश करती है क्योंकि उन्हें कई सालों से घर की चारदीवारी में शोषण के खिलाफ बोलना नहीं सहन करना सीखाया जाता है।
इसी वजह से पितृसत्ता महिलाओं के सहयोग से अपनी जकड़न मज़बूत करता जा रहा है। आज के युग की महिलाएं पितृसत्ता के खिलाफ पिंजरा तोड़ का नारा बुलंद कर चुकी हैं। थप्पड़ जैसी फिल्में अब बदलाव की बयार बहा रही हैं और पितृसत्ता पर ज़ोरदार थप्पड़ लगा रही हैं।
हम जिस समाज में रहते है वहां आज भी कई ऐसी महिलाएं है जो पुरुषवादी मानसकिता की गुलाम हैं। आम तौर पर देखा जाता है कि परिवार में जब लड़के की शादी होती है तो लड़के की माँ ही दहेज लेने के लिए सबसे ज़्यादा दबाव बनाती है।
बाप तो एक बार मान भी जाए लेकिन लड़के की मां जल्दी नहीं माना करतीं। इस दहेजप्रथा के वजह से सबसे ज्यादा शोषण महिलाओं का ही होता हैं। कई महिलाओं का तो घर ही तबाह हो जाता हैं।
आज के नौजवान पुरूष और महिला को साथ में आकर इस व्यवस्था के खिलाफ आवाज बुलंद करना होगा। यह कदम समाज में लैंगिक भेदभाव को दूर करने में सहायक होगा।
8 मार्च, बस कहने के लिए महिला दिवस
महिलाओं के खिलाफ भेदभाव को खत्म करने के लिए दुनिया भर में इस दिन को मनाने का दावा किया जाता है। आज के दिन महिलाओं को सशक्त करने की दिशा में बड़ी-बड़ी गोष्ठियों का आयोजन होता है।
इसमें कई आयोजन राजनीतिक और गैर-राजनीतिक दलों द्वारा किए जा रहे हैं। कई आयोजन भारत समेत राज्य सरकार द्वारा किए जा रहे हैं। हर आयोजनों का उद्देश्य महिला विमर्श और उनकी स्थिति पर चिंतन करना होता है। आज बहस का ज़ोर बस महिलाओं की भूमिका और विभिन्न क्षेत्रों में उनकी स्थिति के इर्द-गिर्द होती है।
महिला दिवस के रोज़ कई राजनीतिज्ञ महिला दिवस मनाते हैं। मंच पर महिला सशक्तिकरण की बातें करने वाले इन्हीं नेताओं ने महिलाओं के बारे में कई बार आपत्तिजनक टिप्पणी की है।
लगता है आप भूल गए हैं क्या करिएगा हमारे समाज की याददाश्त बहुत कमज़ोर होती है। जो अक्सर ऐसे नेताओं के बिगड़े बोल को भूला देते हैं। इन नेताओं के दोहरे चरित्र का पर्दा उठाता हूं। उन्हीं के कुछ बयानों से आप लोगों को परिचित करता हूं।
दोहरे चरित्र वाले बयान
8 मार्च यानी महिला दिवस के अवसर पर महिलाओं को अपना सोशल मीडिया अकाउंट्स समर्पित करने वाले प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी का वह बयान हम कैसे भूल सकते हैं जब उन्होंने राजनीतिक प्रतिरोध का जवाब देते हुए काँग्रेस नेता रेणुका चौधरी को शूर्पणखा बता दिया था।
2014 में लोकसभा चुनाव के प्रचार के दौरान मुलायम सिंह यादव ने बलात्कार मामलों में मृत्युदंड का विरोध करते हुए कहा, “लड़कों से ग़लतियां हो जाती हैं तो क्या आप उन्हें फ़ांसी पर चढ़ा दोगे।”
राज्यसभा में एक बार बीमा विधेयक पर जारी बहस के दौरान शरद यादव ने कहा, “दक्षिण भारत की महिलाएं सांवली तो ज़रूर होती हैं लेकिन उनका शरीर बहुत खूबसूरत होता है, उनकी त्वचा सुंदर होती है, वे नाचना भी जानती हैं।”
शरद यादव ने महिलाओं पर ऐसी आपत्तिजनक टिप्पणियां कोई पहली बार नहीं की है। एक बार शरद यादव ने राजस्थान की पूर्व मुख्यमंत्री वसुंधरा राजे को लेकर कहा था, “वसुंधरा को आराम दो, बहुत थक गई हैं, बहुत मोटी हो गई हैं।”
भाजपा के वरिष्ठ नेता राज्यसभा सांसद सुब्रमण्यम स्वामी ने प्रियंका गाँधी को लेकर कहा था, “वह बनारस से चुनाव हार जाएंगी, क्योंकि वो शराब पीती हैं।”
बहरहाल, महिलाओं के संदर्भ में नेताओं ने कई ओछी टिप्पणियां की हैं। अगर उनकी सूची बनाने बैठें तो काफी लंबी हो जाएंगी।
मोदी ने जब महिलाओं को समर्पित किए अपने सोशल मीडिया अकाउंट्स
प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी ने महिला दिवस के मौके पर अपने सोशल मीडिया अकाउंट्स 7 महिलाओं को समर्पित कर दिए थे। महिलाओं को सम्मान देने की यह पहल पूरी तरह से राजनीति से प्रेरित है।
अगर प्रधानमंत्री को महिलाओं के प्रति इतना ही सम्मान होता तो दिल्ली के शाहीन बाग में बैठीं महिलाओं से बातचीत ज़रूर करते। शाहीन बाग में बैठी महिला प्रदर्शनकारियों से बातचीत करने अभी तक सरकार द्वारा कोई ज़िम्मेदार व्यक्ति वहां नहीं गया है।
महिला प्रदर्शनकारियों की चिंता गंभीर है लेकिन सरकार इन महिलाओं की चिंता को निरंतर नज़रअंदाज़ कर रही है।
चारदीवारी वाली भूमिका को भी चुनौती दे रही हैं शाहीन बाग की महिलाएं
शाहीन बाग में बैठी महिला प्रदर्शनकारियों ने सरकार की नाक में तो दम कर ही दिया है, साथ में परंपरागत पितृसत्तामक सामाजिक व्यवस्था में महिलाओं के लिए सीमित की गई घर की चारदीवारी वाली भूमिका को भी चुनौती दे रही हैं।
ये महिलाएं उन धारणाओं को तोड़ रही हैं, जिसमें माना जाता है कि महिलाओं का काम कुछ खास जगह होता है और वे हर तरह का काम नहीं कर सकती हैं।
यही पितृसत्तामक सोच महिलाओं को पुरुषों के बराबरी में नहीं आने देता है। इसी सोच की वजह से हमारा देश ही नहीं, बल्कि विश्व का ऐसा कोई देश नहीं है जहां लैंगिक भेदभाव ना हो।
सुप्रीम कोर्ट ने केंद्र सरकार को महिलाओं के प्रति मानसकिता बदलने की दी थी नसीहत
महिला सशक्तिकरण की दिशा में काम करने का दावा करने वाली सरकार महिलाओं के प्रति पूर्वाग्रही है। याद कीजिए 17 फरवरी 2020 की सुप्रीम कोर्ट की वह टिप्पणी जब सेना में महिलाओं को स्थाई कमीशन देने वाले मामले की सुनवाई करने के दौरान केंद्र सरकार की आलोचना करते हुए कहा था,
महिला सैन्य अधिकारियों को परमानेंट कमिशन ना देना सरकार के पूर्वाग्रह को दिखाता है।
सुप्रीम कोर्ट ने केंद्र सरकार को महिलाओं के प्रति मानसकिता बदलने की नसीहत दी थी। मामले में केंद्र सरकार की तरफ से दलील थी कि सेना में ज़्यादातर ग्रामीण पृष्ठभूमि से आने वाले जवान महिला अधिकारियों से कमांड लेने को लेकर बहुत सहज नज़र नहीं आते हैं।
महिलाओं की शारीरिक स्थिति, परिवारिक दायित्व जैसी बहुत सी बातें उन्हें कमांडिंग अफसर बनाने में बाधक हैं। केंद्र सरकार की इन टिप्पणियों से स्पष्ट होता है कि सरकार महिलाओं को लेकर वह कितनी पूर्वाग्रही है।
अगर सरकार का यह सोचना है महिलाओं को लेकर तो आम जनमानस पर इसका क्या प्रभाव पड़ेगा? ज़रा सोचिए सरकार महिला सशक्तिकरण का नारा सिर्फ राजनीतिक मंचों से बुलंद करती है या फिर महिला दिवस पर गोष्ठियों का आयोजन करके सिर्फ खानापूर्ति करती है।
सुप्रीम कोर्ट के इस फैसले के बाद सेना में लैंगिक भेदभाव कम होने की आस जगी। महिलाओं ने सेना में स्थाई कमीशन को पाने की लड़ाई जीतकर साबित कर दिया है कि महिलाएं अब हर वह काम उसी कुशलता से कर सकती हैं जो पुरुष करते हैं।
अंतरराष्ट्रीय महिला दिवस पर क्या था इस बार का थीम?
संयुक्त राष्ट्र महासभा ने इस बार अंतरराष्ट्रीय महिला दिवस की थीम “EachforEqual” रखा था। यह थीम भारत में इस बार खास बन जाती है, क्योंकि हाल ही में सुप्रीम कोर्ट ने महिलाओं को सेना में स्थाई कमीशन को लेकर फैसला सुनाया है, जो ऐतिहासिक होने के साथ ही लैंगिक भेदभाव को खत्म करने की दिशा में काम करेगी।
यह थीम केंद्र सरकार को सेना में महिलाओं को स्थाई कमीशन न देने वाले मामले में आईना भी दिखाता है। इस बार महिला दिवस की ये थीम महिलाओं की कार्यक्षमताओं को लेकर बनी हुई परंपरागत धारणा को तोड़ने में सकारात्मक भूमिका निभाएगा।
महिलाओं को सिर्फ पढ़ने-लिखने की आज़ादी देना पर्याप्त नहीं है ज़रूरी है महिलाओं की सोच को मुक्त करना। उन्हें फैसले लेने के लिए स्वंतत्र कर देना ताकि वह आत्मनिर्भर बन सकें।
अपने जीवन में स्वंत्रत होकर जीवनसाथी का चुनाव कर सकें। अगर लड़की दूसरे जाति के लड़के से शादी करने का फैसला लेती है, तो समाज को उस फैसले का सम्मान करना चाहिए न कि तलवार लेकर ऑनर किलिंग जैसी घटनाओं को अंजाम देना चाहिए।
महिलाओं को पुरुषों की तुलना में कम वेतन मिलता है
यूएनडीपी की रिपोर्ट के मुताबिक एक जैसा ही कामकाज करने के लिए महिलाओं को पुरुषों की तुलना में कम वेतन मिलता है। महिलाओं को वरिष्ठ पद पर पहुंचने के लिए कम अवसर मिलते हैं। अमेरिका की 500 बड़ी शेयर कंपनियों के कुल पदों में से केवल 6 प्रतिशत पर ही महिलाएं काम करती हैं।
कई अध्ययन से पता चला है कि महिला प्रोफेसर, डॉक्टर, सॉफ्टवेयर इंजीनियर, पत्रकार और कई अन्य क्षेत्रों में काम करने वाली महिलाओं को अपने पुरुष साथी से कम वेतन मिलता है।
अनुमान है कि महिला कारोबारी अपने साथी से करीब 45 फीसदी तक कम कमाती हैं। समान वेतन की मांगो को लेकर आज से 112 साल पहले महिलाएं संघर्षशील थीं जो आज भी हैं।
अंतरराष्ट्रीय महिला दिवस का इतिहास
अंतरराष्ट्रीय महिला दिवस की उपज एक मज़दूर आंदोलन से शुरू हुआ था। 1908 में न्यूयॉर्क शहर में करीब 15 हज़ार महिलाएं सड़क पर उतरकर समान वेतन और वोट देने के अधिकार को लेकर संघर्ष कर रही थीं।
महिलाओं के विरोध प्रदर्शन के एक साल बाद अमरीका की सोशलिस्ट पार्टी ने राष्ट्रीय महिला दिवस को मनाने की घोषणा कर दी।
इस दिन को अंतरराष्ट्रीय स्तर पर मनाने का विचार एक महिला क्लारा जेटकिन का था। बाद में 1975 में संयुक्त राष्ट्र महासभा ने 8 मार्च को अंतरराष्ट्रीय महिला दिवस के रूप में मनाना शुरू किया था।
हाल ही में यूनाइटेड नेशन की रिपोर्ट आई है, जिसमें बताया गया है कि करीब 90 प्रतिशत पुरुष महिलाओं के प्रति लैंगिक पूर्वाग्रह से ग्रसित हैं। ये रिपोर्ट आज के हमारे समाज की सच्चाई को बयान करती है। जिसमें पुरुष आधी आबादी के प्रति आज भी रूढ़ियों से जकड़ा है।
महिलाएं आज के समय में राजनीतिक, सामाजिक और आर्थिक क्षेत्रों में आगे बढ़ रही हैं लेकिन पुरुषों की अपेक्षा में अभी उनकी संख्या कम है। इसी रिपोर्ट में यह भी बताया गया है कि विश्व का ऐसा कोई देश नहीं है जहां लैंगिक समानता हो।