2 महीने से ज़्यादा हो चुके थे देश में CAA, NRC और NPR के खिलाफ विरोध प्रदर्शन होते हुए। निजी तौर से मैं CAA का समर्थक रहा हूं, क्योंकि NPR 10 साल पहले भी लागू हो चुका है, तब कोई आपत्ति नहीं थी।
हालांकि NRC को लेकर कुछ शक है इसलिए उस पर चर्चा होनी चाहिए। ऐसा मेरा मानना है मगर जब तक ये शांतिपूर्ण प्रदर्शन हो रहे थे, तब तक सब ठीक था। 3 दिन पहले जो हिंसा दिल्ली में फैली, उस नज़ारे को देखकर लोगो को 1984 के सिख विरोधी कत्ल-ए-आम और दंगे याद आ गए होंगे।
कई लोग इस हिंसा को मुस्लिम विरोधी हिंसा कह रहे हैं लेकिन मैं इसे भारत विरोधी हिंसा बोलूंगा, क्योंकि मरने वालों में सिर्फ मुसलमान नहीं बल्कि दूसरे धर्म के लोग भी हैं।
मस्ज़िद पर केसरिया झंडा लगाया गया
जिस तरह अशोक विहार में 2 मस्ज़िदें जलाई गईं और एक मस्ज़िद पर कट्टरवादी गुंडो ने तोड़-फोड़ मचाकर भगवान हनुमान का झंडा लगा दिया, बतौर हिन्दू मैं आहत हूं। मुझे ऐसा लागा कि मेरे देश और मेरे धर्म के मूल सिद्धांतों पर किसी ने भारी भरकम हमला किया हो।
सबसे दुख की बात तो यह है कि ऐसा घिनौना काम करने वाले उस दौरान भगवान राम के नाम का जयकारा लगा रहे थे।
जिनकी मानवतावादी सोच की तारीफ सिर्फ भारत वर्ष में ही नहीं, बल्कि साउथ कोरिया और पूरे दक्षिणी एशियाई महाद्वीप में दी जाती है, कभी-कभी डर लगता है कि जैसे लश्कर और बाकी संगठनों ने अल्लाह-हु-अकबर जैसे एक पाक नारे को बदनाम कर दिया, वैसे ही इन कट्टरवादियों की हरकतें जय श्रीराम नारे को भी गंदा ना कर दें।
कितने बेगुनाहों के खून के दिल्ली दागदार हुई
मुझे धक्का लगा यह सुनकर कि दिल्ली में भीड़ ने एक 85 साल की मुस्लिम महिला को उसी के घर ज़िंदा जला दिया। मतलब कैसे जल्लाद थे वे जो दादी की उम्र की औरत पर भी तरस नहीं खाए।
उसी दिल्ली में अंकित शर्मा जैसे एक वफादार आईबी अधिकारी को काटकर गटर मैं फेंक दिया गया, जिसका इल्ज़ाम आम आदमी पार्टी के पार्षद ताहिर हुसैन पर लग रहा है, जो कि खुद अंकित शर्मा के माँ-बाप ने लगाया है।
राहुल सोलंकी, जो दिल्ली के मुज़्जफराबाद में रहते थे जिन्हें दंगाइयों ने गर्दन पर गोली मारी और उनके भाई रोहित सोलंकी के मुतबाकि उनका इलाका मुस्लिम बहुल था मगर आज तक उनके यहां हिन्दू-मुसलमान का झगड़ा नहीं हुआ था। उनका यह भी कहना है कि उनके भाई को मारने वाले मुसलमान नहीं थे, बल्कि बाहर से आए लोग थे।
दिल्ली में मरने वालों का आंकड़ा 35 पार कर गया है। हालांकि दिल्ली सरकार ने मरने वालों को 10 लाख और दिल्ली पुलिस अधिकारी रतनलाल साहब के परिवार को 1 करोड़ की सम्मान राशी देने का फैसला किया है। फिर भी सवाल यह है कि क्या इन सब परिवारों के ज़ख्म कभी भर पाएंगे? क्या जो खो गया है, वह कभी वापिस आ पाएगा?
आज पूरी दुनिया दिल्ली हिंसा पर भारत पर कीचड़ उछाल रही है, जिसमें अमेरिका के मशहूर और लोकतांत्रिक नेता बर्नी सैंडर्स भी हैं। हालांकि सबकी बातें हम सुन भी लें मगर दो ऐसे लोग हैं, जिनको मेरा संदेश यही है कि वे अपना गंदा दामन पहले देखें फिर हिंदुस्तान को कोसें।
पहले खुद को देखे इरदुगान और इमरान साहब
ये 2 महान शख्स हैं पाकिस्तान के प्रधानमंत्री इमरान खान और टर्की के राष्ट्रपति रजब तैयब इरदुगान, हालांकि इनके जीवन की एक सचाई मैं सबके सामने पेश करना चाहूंगा। टर्की के राष्ट्रपति इरदुगान ने 19वीं शताब्दी में ऑटोमोन साम्राज्य द्वारा अर्मेनिया के क्रिश्चियन समुदाय के नरसंघार को सिर्फ दुनिया को दिखाने के लिए मुखालफत की।
लेकिन जब अमेरिका ने इसी नरसंहार को कलंक ठहराने की कोशिश की तब इनकी टर्की सरकार ने अमेरिका को धमकी दी और आज इरदुगान के कुछ समर्थक उस नरसंहार को दोहराने की धमकी देते हैं। आज सीरिया के कूर्द समाज के लोगों को भी यही इंसान मार रहा है। क्या कूर्द मुस्लिम नहीं हैं?
जहां तक इमरान खान की बात है, तो मैं उन्हें यह याद दिला देना चाहूंगा कि उनके ही राज में ननकाना साहिब गुरुद्वारे पर हमला हुआ। उन्हीं के राज में कई हिन्दू और सिख लड़कियों का जबरन धर्मान्तरण हुआ, जिसे लेकर वहां के जज ने टिप्पणी करते हुए कहा, “हमेशा कम उम्र की हिन्दू लड़कियों का ही धर्म परिवर्तन क्यों हो रहा है, बड़ी उम्र की औरतों का क्यों नहीं?” तो इन दोनों से मेरा यही कहना है जिनके खुद के घर शीशे के हों, वे दूसरों के घरों पर पत्थर नहीं मारते।
भारत की एकता की भी मिली हैं मिसालें
आज भले ही इस हिंसा के कारण लोग यह कह रहे हों कि भारत की पहचान खतरे में है। देश में संप्रदायिक उन्माद है मगर फिर भी भाईचारे की कई मिसालें आ रही हैं उसी दिल्ली से। दिल्ली के सारे गुरुद्वारों ने दंगा पीड़ितों, चाहे वे हिन्दू हों या मुसलमान सबको शरण देने और लंगर सेवा करने का फैसला किया है।
चांदबाग और मौजपुर में मुस्लिम समुदाय के लोगों ने मानव श्रृंखला बनाकर मंदिरों की हिफाज़त की, जिसकी तारीफ वहां के हिन्दुओं ने की है। इस बीच प्रेमकांत बघेल की कहानी भी जाननी ज़रूरी है, क्योंकि इस इंसान ने मानवता की नई मिसाल पेश कर दी। अपने पड़ोस में रहने वाले एक मुसलमान परिवार के 6 लोगों को बचाते हुए खुद आग में झुलस गए और आज जीवन और मृत्यु के बीच संघर्ष कर रहे हैं।
एक अंकित नाम के लड़के ने एक मुस्लिम बुज़ुर्ग और उसके 2 पोतों को बचाया। इंसानियत की ऐसी और भी मिसालें हैं, जिसे आज पूरा भारत सलाम करता है, जो बताती हैं कि इस देश में आपसी भाईचारा अभी मरा नहीं है।
पता नहीं एकता की मिसाल कही जाने वाली दिल्ली, जहां मैंने अपनी ज़िंदगी के 4 साल से भी ज़्यादा बिताए, वहां की गंगा-जमुनी तहज़ीब का गवाह मैं खुद हूं, वह इस सदमें से कब उबर पाएगी? यह दंगा हमेशा प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी का पीछा करता रहेगा जैसे कि 1984 का दंगा सारी ज़िन्दगी राजीव गाँधी का पीछा करता रहा।