महिला दिवस पर मैं एक पुरुष होने के दृष्टिकोण से महिलाओं के संदर्भ में अपने विचार रखना चाहता हूं। एक पुरुष होने के दृष्टिकोण से मैं बताना चाहता हूं कि महिलाओं के साथ कैसा बर्ताव करना चाहिए।
पितृसत्ता के जीवाणु हमारे देश में कई सालों से फल-फूल रहे हैं, जिसे हर कोई साधारण बात समझता है मगर यह साधारण बात नहीं है। यह एक असाधारण तथ्य है, जो सदियों से बदस्तुर जारी है।
मैं मानवतावादी पुरूष हूं। मेरी प्राथमिकता व मेरी सोच नारीवादी है। मैं महिलाओं के सशक्तिकरण के लिए समाज में बदलाव चाहता हूं। मैं यह बदलाव व्यक्तिगत तौर पर नहीं समाजिक तौर पर चाहता हूं। मैं समानता की नींव से उपजे नियम व कानून समाज में फैलाना चाहता हूं।
महिलाएं भी समानता की हकदार हैं
मुझे असमानता से कोई सरोकार नहीं है। ना मेरे व्यक्तिगत सोच में इस शब्द की कोई परिभाषा है। ईश्वर ने सबको समान अधिकार दिए हैं। मैं महिलाओं के लिए होने वाले भेदभाव को दूर करना चाहता हूं।
मैं लोगों को जागरूक करना चाहता हूं कि महिलाएं भी उसी समानता की हकदार हैं, जिस समानता का पुरुष हकदार समझा जाता है। मैं पूरे विश्व में समानता की धरती चाहता हूं और समानता का ही आसमान, अर्थात हर ओर समानता ही समानता हो, ना कोई ऊंच-नीच और ना कोई शोषण।
आखिर लोग क्यों नहीं समझते कि महिलाएं भी इंसान हैं?
महिलाएं भी इंसान हैं, उनके भी भाव हैं और संवेदनाएं भी। उनको फूलों की भांति सहेजकर रखने की ज़रूरत है। घरेलू हिंसा, यौनिक प्रताड़ना, ऐसे ही ना जाने कितने नकरात्मक चेहरे हैं, जो हमारे समाज की आत्मा को झकझोर रहे हैं।
समाज को जागरूक होने की ज़रूरत है। अन्यथा कई पीढ़ियों तक इस समाज के धब्बे की छींटे असमानता के बीज बोती चली जाएंगी। इसका परिणाम यह होगा कि महिलाओं का आत्मसम्मान क्षीण और कमज़ोर होता जाएगा। पुरुष को बदलना होगा और यह बदलाव लाना अनिवार्य है।
- पुरानी और विषैली रूढ़ियों का जड़ से सफाया किया जाना बेहद ज़रूरी है।
- तुम महिला हो, रात को घर से नहीं जा सकती वाली मानसिकता खत्म करनी होगी।
- तुम महिला हो, छोटे कपड़े नहीं पहन सकती जैसी मानसिकता के लिए हमारे समाज में कोई जगह नहीं होनी चाहए।
- तुम महिला हो, पिता और भाई से पहले खाना नहीं खा सकती जैसी मानसिकता की तिलांजली देनी होगी।
- तुम महिला हो, अपनी पसंद से विवाह नहीं कर सकती जैसी मानिसकता का खात्मा करना होगा।
ये कथन हम एक बेटे से क्यों नहीं बोल सकते? नहीं बोल सकते, क्योंकि पुराना स्टीरियोटाइप समाज अपनी गंदी, घिसीपिटी पुरानी सोच के आगे बेबस है।
महिलाओं की समानता के लिए ज़रूरी है रूढ़िवादी विचारधारा का खत्म किया जाना
महिलाओं की समानता के लिए हमको एक यह भी कदम उठाना चाहिए कि इन रूढ़ियों को खत्म कर दें, जड़ से मिटा दें। अन्यथा समाज में विकास नहीं विनाश होगा।
आज भी हमारे समाज के ग्रामीण क्षेत्रों में यही परम्परा चली आ रही है, जिसे लोग खुशी-खुशी अपनाते हैं मगर यह नहीं सोचते कि जिस नारी का तिरस्कार करके आप अपने मन की कुंठा को ठंडक पहुंचा रहे हैं, वह एक दिन लावा की भांति फट भी सकती है। उस दिन हम असमानता और समानता के बीच का तांडव देखकर असहज ना हो जाएं, क्योंकि यह हमारे द्वारा ही लगाई गई आग है।
महिलाओं का सशक्तिकरण
महिलाएं घर में बैठकर घर की नौकरानी या सेविका के रूप में ही कार्य कर रही हैं मगर कभी किसी ने उनके अंदर के कौशल को नहीं देखा। यदि किसी के द्वारा देखा भी जाता है, तो उसे नज़रअंदाज़ कर दिया जाता है।
महिलाओं के कौशल को पहचाने और उन्हें सशक्त होने का अवसर दें। कपड़े की कटाई, सिलाई, बुनाई आदि इन कामों के ज़रिये भी महिलाएं अपने जीवन में खुद के पैरों पर खड़ी हो सकती हैं और स्वयं को आत्मनिर्भर बना सकती हैं। यदि आवश्यकता है तो समाज के पुरुषों की सोच को बदलने की।
सम्पूर्ण नारी जगत सशक्त शिक्षा के साथ जीवन व्यतीत करें
शिक्षा केवल समाज को नौकरी दिलाने में ही मददगार नहीं है, बल्कि हर इंसान की सोच को और जीवन को भी सकरात्मक रूप से उज्ज्वल करती है। उसके अनुभव को निखारती भी है। हमारे देश के संविधान में निहित अनुच्छेद 21-‘क’ के अनुसार, 6 से 14 वर्ष के आयु समूह के सभी बच्चों को मुफ्त और अनिवार्य शिक्षा का प्रावधान रखा गया है।
प्रारंभिक शिक्षा के लिए प्रत्येक बच्चे का अधिकार है चाहे वह बेटा हो या बेटी। जब देश की सबसे बड़ी संस्था इस बात का निर्धारण कर रही है कि शिक्षा के क्षेत्र में समानता का रास्ता होना चाहिए, फिर समाज को क्या हुआ?
बेटे की शिक्षा हेतु विद्यालय ढूंढते हुए देखा जाता है। कहा जाता है कि बेटे हेतु कोई अच्छा प्राइवेट स्कूल होना चाहिए। वहीं, दूसरी ओर बेटियों के लिए कहा जाता है, “ये तो पराए घर जाएगी, इसको पढ़ने की क्या ज़रूरत।”
यही मानसिकता आज के समाज को प्रदूषित कर रही है, यह पुराने और बीते समय की बात नहीं, बल्कि यह आज की बात है। मेरी विनती है पुरुष समाज से कि बेटियों की शिक्षा के लिए प्राथमिकता दें, क्योंकि किसी भी छोटे बच्चे की पहली अध्यापिका उसकी माँ होती है। यदि वह शिक्षित होगी तो समाज भी शिक्षित होगा।
समाज मे बदलाव की ज़रूरत है
अब समाज में बदलाव की ज़रूरत है। पिता, पति, भाई, आदि जो भी पुरुष की छवि है, अब समय है उनको अपनी सोच को खुला रखने की। पिछले कई सदियों से हमारे समाज की महिलाएं यह सब सहती आ रहीं हैं।
पुरुषों को महिलाओं को स्पेस देना चाहिए, उन्हें उड़ने के लिए आत्मविश्वास से भर देना चाहिए, जिससे उन्हें भी लगे कि वे गुलाम बनकर नहीं, बल्कि आज़ाद परिंदे की तरह ज़िन्दगी जी पाने में सक्षम हैं। वैसे भी पितृसत्ता के ज़रिये महिलाओं को गुलाम बनाकर रखने की नीयत शर्मनाक ही है।
क्या विश्व महिला दिवस पर हम महिलाओं को स्वतंत्रता का अधिकार दे सकते हैं?
उन्हें भी वही एहसास होने चाहिए जो एक पुरुष महसूस करता है। अक्सर हमारे समाज में देखा जाता है कि बाहरी बाज़ार के काम पुरुष स्वयं करते हैं, कहीं भी आने-जाने में पुरुष के साथ ही जाना अनिवार्य माना जाने लगा है। ऐसा क्यों?
क्या महिलाएं चल नहीं सकती हैं? क्या वे बाहर की दुनिया को पहचानने में समर्थ नहीं हैं? मेरे विचार से महिलाओं को ऐसे अवसर दिए जाएं जिनमें वे अपनी ज़िंदगी को सुगमता से व्यतीत कर सकें। वे अपनी पसंद के कपड़े पहन सकें और अपनी उड़ान के लिए आत्मविश्वास पैदा कर सकें। क्यों ना हम उन्हें विश्व महिला दिवस पर यही तोहफा पेश करें।