ठिठुरती-कंपाती हवाएं बसंत को दस्तक दे चुकी हैं। शायद सच ही कहते हैं कि यही समय है, जब प्रकृति प्रेम के चरमोत्कर्ष पर होती है। सरसों की महक और गेहुओं की बालियां खुले आकाश में इतरा रही होती हैं। कोपलें पत्तों में तब्दील होती और कलियां फूल बन महक उठती हैं।
शायद इसलिए अंग्रेज़ी कैलेंडर ने इसे मुहब्बत का (फरवरी) महीना कहा है लेकिन जहां एक ओर प्रकृति हमें प्रेम का उत्सव मनाना सिखाती है, वहीं दूसरी और आज का युवा मुहब्बत के नाम से ही कतराता नज़र आता है।
हमारा धैर्य भी टूट रहा है
टेक्नोलॉजी और रोबॉटिक मशीनों के दौर में हमारे युवा बहुत आगे निकल आए हैं। उनकी उम्र से कहीं बड़े उनके सपनों का आकार हो चला है और ये सपने उनकी संवेदनशीलता खत्म कर रहे हैं।
वहीं, ये मशीनें जितना हमारा वक्त बचा रही हैं उतना ही हमें जल्दबाज़ बना रही है। माना यही आज की ज़रूरत है वरना आप पीछे रह जाएंगे, लेकिन हमारे युवा आधुनिकता के होड़ में कितना भी आगे बढ़ जाएं, मुहब्बत के नाम पर एक कदम पीछे हटते नज़र आते हैं।
वैसे भी मुहब्बत कोई मशीन थोड़े ही है! वो तो एक लम्हे का ताउम्र चुकाया जाने वाला हर्जाना है और आज का युवा मुहब्बत से नहीं, बल्कि इस हर्जाने से डर गया है।
दौड़ती– भागती ज़िन्दगी की धूप में मुहब्बत ठहर सके इतनी छांव अब किसी के पास है ही नहीं और इस मुहब्बत से घबराने की एक खास वजह है हमारे धैर्य का टूटना। हमारा युवा उस समय बड़ा हो रहा है, जब ऑनलाइन पिज़्ज़ा10 मिनट में पहुंचाया जाता है, जहां घर से निकलते ही हमें कैब मिल जाया करती हैं और जहां दिल मिलने से कहीं पहले घरों के पते मिल जाया करते हैं।
रिश्तों में खामोशी
लेकिन मुहब्बत तो इंतज़ार की आंच पर पकाया जाने वाला ही पकवान है और वही इंतज़ार हमारी ज़िन्दगी की घड़ियों से दूर होता चला जा रहा है। ई-मेल के ज़माने में चिट्ठियों की महक तलाशना यूं भी आसान नहीं है।
इतनी तेज़ी से वक्त आगे बढ़ चला है कि हमने अपने घरों के साथ–साथ मन के दरवाज़ों पर भी तख्तियां लगा ली हैं और अपने आस–पास, अपने ही घरों में दिखता बिखराव, अविश्वास युवाओं को अंदर से तोड़ रहा है। मुहब्बत की सब गुज़ाइशें उसने आप ही खत्म कर ली हैं।
किसी भी रिश्ते, रिवायत को बचा लेने की पहली कड़ी संवाद होता है लेकिन आज हर किसी ने चुप्पी ओढ़ रखी है। रिश्ते अपने आप ही खामोशी में दम तोड़ने लगे हैं।
मुस्कुराहटें खो सी गई हैं
आधुनिकता ने निजता पर जितना प्रहार किया है, उतना किसी और चीज़ ने नहीं। भरोसे की कड़ियां उलझने लगी हैं।अब लास्ट सीन हमारी नैतिकता तय करने लगे हैं। हम इतने ज़्यादा सोशल एक्टिविस्ट बन गए हैं कि हमें हमारे नज़दीक बैठे अपनों की आवाज़ सुनाई नहीं देती और इसी बात से हर कोई हैरान है कि इतनी भीढ़ तन्हाई कहां से कुरेद लाती है।
सेल्फी और हैशटैग के ज़माने में युवाओं ने तस्वीरें तो जोड़ ली हैं लेकिन मुस्कुराहटें कहीं खो दी हैं और मुहब्बत से आज का युवा घबराया नहीं है, उसने बस नए प्रतिमान गढ़ लिए हैं।
दादी-नानी के झुर्रियोंदार चेहरों पर लिखी प्रेम कहानियां अब झूठी लगती हैं। आज हर कोई आज़ाद ख्याल चाहता है, जिसमें उसका कोई दोष नहीं है। इस रवैये में परिवार, समाज हम–आप सब ही सहयोगी हैं। हर कोई चाहता है कि उससे सवाल ना किया जाए। समाज के खांचो में फिट बैठने की ललक घर, मोहल्ला, शहर सबसे काटने लगी है।
मुहब्बत अब दिल की कोई नाज़ुक नज़्म नहीं रही है, यह तो फैशन के दौर का सामान बन गई है, जिसे स्टेट्स के लिहाज़ से कभी भी बदला जा सकता है।
नोट: सृष्टि तिवारी Youth Ki Awaaz इंटर्नशिप प्रोग्राम जनवरी-मार्च 2020 का हिस्सा हैं।