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“गाँधी खोजने पर भी नहीं मिलते मगर गोडसे हर युग में मिल जाता है”

गाँधी

गाँधी

इतिहास आपको बहुत कुछ सिखाता है। सीख देता है, सलाह देता और हिदायत देता है लेकिन इन सबके रूप प्रति व्यक्ति अलग पाए जाते हैं। अलग इसलिए पाए जाते हैं, क्योंकि हर व्यक्ति के दिमाग में एक विशेष प्रकार की विचारधारा स्थापित है और वह उसी विचारधारा के मापदंडों के तहत इतिहास की व्याख्या करता है एवं आत्मसात करता है।

30 जनवरी 1948 को गोडसे ने गाँधी की हत्या की, जो इतिहास में काले अक्षरों के रूप में दर्ज़ है। गाँधी की हत्या होने पर पूरे देश ने शोक प्रकट किया और इसे क्षति की तरह लिया गया, लेकिन इसी के समानांतर एक विचारधारा और पनप रही थी, जिसके तहत गोडसे के कृत्य को सही ठहराया जा रहा था।

विचारधारा को पैदा करने वाले लोगों का भले अंत हो जाए लेकिन उनका विचार ज़िंदा रहता है और सदियों-सदियों तक वह घर कर लेता है।

समय दर समय उसकी मरम्मत होती है और उसकी नींव और गहरी होती जाती है। इसी प्रकार उस विचारधारा का नायक हर युग में पैदा होता है और उसी कृत्य को अंजाम देने की कोशिश करता है, जिसे उसके पूर्वज ने दिया था।

सस्ता और महत्वहीन हो गया है रामभक्त शब्द

प्रतीकात्मक तस्वीर। फोटो साभार- सोशल मीडिया

ऐसा ही कुछ दिल्ली के जामिया में हुआ। बस फर्क इतना था कि इस बार उस खास विचारधारा का नायक किशोर था लेकिन जब आप किसी खास विचार को आत्मसात कर लेते हैं या आपको आत्मसात करवा दिया जाता है, तो उम्र का ताल्लुक खत्म होता जाता है और नायक बनने की होड़ मच जाती है।

हालांकि यह बात अलग है कि किसी विशेष विचारधारा के अनुसार आप भले ही नायक हो परन्तु इसके विरुद्ध आप समाज में खलनायक कहलाते हैं।

जामिया के छात्र सीएए के विरुद्ध मार्च कर रहे थे कि तभी उन्हीं में से निकलकर एक 17 वर्षीय नौजवान उनसे आगे दौड़ता है, पीछे मुड़ता है और छात्रों पर गोली चला देता है। गोली चलाते हुए कहता है, “ये लो आज़ादी।”

पुलिस उसके पीछे हाथ बांधे खड़ी है और गोली चलाने के बाद एक पुलिस वाला आता है, उसे आराम से पकड़ता है, बंदूक लेता है एवं उसे पुलिस की गाड़ी में बैठाया जाता है। जब रिपोर्टर उसका नाम पूछते हैं, तो गर्व के साथ कहता है ‘रामभक्त गोपाल’।

अब आप ही सोचिए कि ‘रामभक्त’ शब्द कितना सस्ता अथवा महत्वहीन हो गया है। एक 17 वर्षीय लड़का जिसे रामभक्त का अर्थ भी नहीं पता, जिसने ठीक से रामायण को पढ़ा अथवा समझा भी नहीं है, वह रामभक्ति के खातिर गोली चला दे, तो ‘रामभक्त’ की महत्ता क्या रह जाती है।

रामभक्ति के नाम पर घोला जा रहा है ज़हर

फोटो साभार- सोशल मीडिया

आप सोच सकते हैं कि किस प्रकार उसे रामभक्त की परिभाषा से परिचित करवाया गया होगा और रामभक्ति के नाम पर उसमें किस स्तर का ज़हर घोला गया होगा। यह प्रक्रिया छोटी नहीं है, घर करने में इसे समय लगता है और स्तर दर स्तर इसका ज़हर बढ़ता जाता है।

गोडसे ने जब गाँधी को गोली मारी थी, तो गाँधी के अंतिम शब्द थे, “हे राम।” अब ठीक इसके विरुद्ध देखिए एक 17 साल का लड़का छात्रों पर गोली चलाता है और खुद के नाम के आगे ‘रामभक्त’ लगाता है। इसका प्रत्यक्ष अर्थ यही है कि 72 वर्ष के इस अंतराल में राम का अर्थ एवं अस्तित्व परिवर्तित हो गया है।

एक समय ऐसा था जब रामभक्त ‘मर्यादापुरुषोत्तम’ के संदर्भ के तहत कार्य करता था, समाज में ‘राम’ के नाम को सकारात्मक रूप से परिभाषित करता था और रामायण द्वारा दर्शाए गए राम के चरित्र को आत्मसात करता था, परन्तु समय की खास बात है कि वह परिवर्तनशील है। हालांकि यह हम पर निर्भर करता है कि परिवर्तन की श्रेणी को नकारात्मकता में रखते हैं अथवा सकारात्मकता में।

एक विशेष समय के अंतराल के पश्चात फिर एक बार ‘रामभक्त’ अस्तित्व में आता है लेकिन इस बार उसके हाथ में गाँधी बाबा की तरह लाठी नहीं होती, होठों पर अहिंसा का पाठ नहीं होता और चेहरे पर हल्की मुस्कान नहीं होती।

नए अवतार में रामभक्त

अनुराग ठाकुर। फोटो साभार- सोशल मीडिया

इस बार रामभक्त नए स्वरूप में सामने आता है। हाथ में तमंचा होता है, होठों पर कड़वे शब्द होते हैं और चेहरे पर एक विशेष वर्ग के लिए गुस्सा होता है, जिसे सोशल मीडिया की अदालत ‘सच्चा रामभक्त’ करार देती है और समाज के नायक के रूप में स्थापित करने की कोशिश करती है।

हालांकि नायक बनाने की कोशिश सिर्फ सोशल मीडिया पर ही नहीं हुई, बल्कि गोली चलने के एक दिन पहले ही भाजपा के प्रतिष्ठित मंत्री अनुराग ठाकुर ने गोली मारने की
नसीहत दे डाली थी।

जब नेतृत्व करने वाला व्यक्ति ऐसा कह सकता है, तो आश्चर्य की बात नहीं कि अनुसरण करने वाला व्यक्ति ऐसा कर सकता है। वैसे प्रक्रिया दो या तीन दिन पुरानी नहीं है, यह प्रक्रिया कई सालों से जारी है जिसका परिणाम अब दिख रहा है।

फेसबुक और इंस्टाग्राम पर जब 14 से 27 वर्ष के लड़के बंदूक के साथ फोटो डालते हैं और ऊपर भगवा रंग के झंडे के साथ जय श्री राम लिखा रहता है, तो डर लगने लगता है कि किस दिशा एवं किस अंजाम की ओर भारत अग्रसर है।

कभी-कभार लगता है कि ये 90 के दशक के बाद वाली पीढ़ी सब ले डूबेगी। जितना भी, जैसा भी हमने सहेजा था वो सब बर्बाद हो जाएगा। हर घर का लड़का भगवा या हरा झंडा लिए नेता बनने निकल पड़ा है, जिस पीढ़ी ने राजनीति शास्त्र पर एक किताब भी ना पढ़ी हो, किसी नेता की जीवनी ना समझी हो और वो भगवा के नाम पर सियासत करने निकले पड़े, तो भय का होना स्वभाविक है।

इन सबसे इतना तो स्पष्ट है कि हर दौर में गोडसे पैदा होता है। उसका रूप अलग होता है, कद अलग होता है लेकिन मकसद वही होता है, जो 72 वर्ष पहले था। गोडसे हर युग में बिना खोजे मिल जाता है, बस गाँधी ही है जिसे खोजा भी जाता है और वो खोजने पर भी नहीं मिलता। लगता है गाँधी सिर्फ एक दौर में पैदा हुआ था, उसी दौर के लिए बना था और उसी दौर में चल बसा।

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