कितने लोगों ने सुना है कि औरत को ही एडजस्ट करना पड़ता है। कितने लोग सोचते हैं कि मार-पिटाई सिर्फ गरीब औरतों के ही पति करते हैं। कितने लोग मानते हैं कि शिक्षित आदमी कभी हाथ नहीं उठाता। कितने लोग अपनी बेटियों और बहुओं से कहते हैं कि कोई बात नहीं बेटा, ऐसा हमारे साथ भी हुआ है लेकिन देखो आज हम कितने खुश हैं।
मैं निर्देशक की राजनीतिक विचारधारा का समर्थन नहीं कर सकती हूं या कुछ मुद्दों पर कुछ एक्टर्स से असहमत हो सकती हूं लेकिन एक महिला को मारना ठीक नहीं है। एक थप्पड़ भी नहीं।
-केंद्रीय मंत्री स्मृति ईरानी
अगले सप्ताह महिलाओं के साथ होने वाली ‘आम’ घरेलू हिंसा पर केंद्रित फिल्म ‘थप्पड़’ रिलीज़ हो रही है। 31 जनवरी को इस फिल्म का ट्रेलर रिलीज़ हुआ और तब से अब तक करीब 17 करोड़ लोग इसे देख चुके हैं। करीब एक लाख बार यह शेयर हो चुका है। कारण, इस ‘थप्पड़’ ने समाज के सामने कई ऐसे ज़रूरी सवाल उठाए हैं, जिनके बारे में हम शायद ही कभी सोचते हैं और उनमें से सबसे ज़्यादा ज़रूरी सवाल यह है कि ऐसा हुआ क्यों? इस फिल्म के बहाने ऐसे ही चंद सवालों का विश्लेषण करता यह मेरा लेख है।
क्या यह आपकी फैमिली हिस्ट्री है?- नहीं
क्या उसका किसी और के साथ अफेयर है?- नहीं
क्या आपका किसी और से अफेयर है?- नहीं
मतलब यह सिर्फ एक थप्पड़ का मामला है?- हां, सिर्फ एक थप्पड़… पर नहीं मार सकता।
‘थप्पड़’ फिल्म का ट्रेलर इन्हीं चंद डायलॉग्स के साथ शुरू होता है, जिसमें फिल्म की अभिनेत्री तापसी पन्नू और उसकी वकील के मध्य का संवाद दिखाया गया है लेकिन यह सिर्फ चंद सवालात या उसके जवाब नहीं हैं? यह किसी औरत के प्यार, भरोसे, रिश्तों को बनाए रखने की उसकी हर संभव कोशिश और उसके पूरे अस्तिस्व पर लगने वाला एक प्रश्नचिन्ह है।
वैसे थप्पड़ क्या, कइयों को तो लात-घूंसे भी पड़ते हैं, कइयों के शरीर को जलती सिगरेट या चिमटे के दाग दिया जाता है या फिर पति देव थोड़े लिब्रल टाइप हुए, तो बस कई दिनों तक भूखा रखकर या फिर बिस्तर पर ‘अतिरेक प्रेम’ की वर्षा करके उन्हें छोड़ देते हैं।
इन सबके बाद भी कितनी आसानी से कह देते हैं, ‘जाने दो ना यार, क्या करूं? हो गया ना।’ ज़रा सोचिए कि अगर यही थप्पड़ किसी महिला द्वारा अपने पति के गालों पर जड़ा जाता, तो क्या उसे भी ‘जाने दो ना यार… क्या करूं? हो गया ना!’ कहकर खुद को जस्टिफाई करने का मौका मिलता?
आखिर कहां से मिलती है यह हिम्मत?
‘सबसे ज़्यादा ज़रूरी सवाल यह है कि ऐसा हुआ क्यों?’ फिल्म के ट्रेलर में तापसी के पिता भी यही सवाल उठाते हैं। आखिर किसी पुरुष को अपनी पत्नी पर हाथ उठाने या उसे ‘थप्पड़’ मारने की हिम्मत मिली कहां से?
आपको नहीं लगता कि उसे यह थप्पड़ मारने की हिम्मत और ताकत हमने, हमारे मां-बाप ने और हमारे समाज ने ही तो दी है। हमने ही तो उसे पति या दोस्त मानने की बजाय, ‘परमेश्वर’ बना दिया है। उसकी हर इच्छा के आगे अपनी ‘इच्छा’ को कुर्बान करते गए। अपने पास ‘अपना’ कुछ बचाकर रखा ही नहीं।
पति को अरहर की दाल पसंद हो, तो आपने भी वही खाना सीख लिया, भले ही मायके में आप अरहर की दाल को देखते ही नाक-भौंह सिकोड़ लेती हों। ऐसी ही कई चीज़ें हैं, जहां आपने अपनी पसंद भूलाकर पति और बच्चों की पसंद को अपना लिया लेकिन इसमें गलती आपकी नहीं है।
समाज सिखाता है औरतों को ‘बर्दाश्त करना’
दरअसल, हमारे माता-पिता ने भी तो हमें यही सीख देकर अपने आंगन की देहरी से विदा किया था कि बेटी, आज से तुम्हारा ससुराल ही तुम्हारा घर है और पति तुम्हारा देवता। उन्हें खुश रखना और उनकी इच्छाओं का मान-रखना ही अब तुम्हारा धर्म है।
उन्होंने कभी यह सिखाया ही नहीं,
बेटी, तुम्हारा भी अपना एक ‘सेल्फ’ या ‘आत्मस्वाभिमान’ है। ससुराल में हर किसी की खुशियों का ख्याल रखना भले ही तुम्हारी ज़िम्मेदारी है लेकिन ऐसा करने के लिए कभी अगर तुम्हें अपने सेल्फ से कॉम्प्रोमाइज़ करना पड़े, तो वह मत करना।
रही बात समाज की, तो समाज ने तो हमेशा से हमें यही समझाया है कि पुरुष चाहे कितनी भी क्रूरता या कठोरता बरते, वह ‘पुरुष’ है, महिलाओं का शासक, उसका अधिकारी, उसका भोगकर्ता है वो। महिलाओं को हर हाल में पुरुषों के अधीन रहना चाहिए। अगर कभी कोई औरत अपने पति या ससुराल की कोई शिकायत करती भी है, तो उसे यही समझाया जाता है कि जाने दे बेटी, थोड़ा बर्दाश्त करना सीखना चाहिए औरतों को। वरना उस पर ‘तलाकशुदा’, ‘विधवा’, ‘परित्यक्ता’, ‘बदचलन’ आदि जैसे टैग लग जाएगा।
प्रेम में हिंसा की कोई जगह नहीं
फिल्म के ट्रेलर में एक सहायक अभिनेता का डायलॉग है, “वी आर ट्रुअली इन लव और थोड़ी-बहुत मारपीट तो एक्सप्रेशंस ऑफ लव ही है ना।”
क्या वाकई प्रेम में हिंसा या नफरत की कोई जगह है? नहीं, शायद बिल्कुल भी नहीं और फिर पति-पत्नी के रिश्ते का तो आधार ही परस्पर प्रेम और भरोसे की नींव पर टिका होता है। हर दिन, हर पल एक-दूसरे को नए-नए तरीके से समझने की उनकी कोशिश ही तो उनके दांपत्य का सबसे खूबसूरत एहसास होती है। तभी तो कहा गया है,
रिश्ते बनाने में उतनी एफर्ट नहीं लगती, जितनी निभाने में लगती है।
ऐसे में अगर एक बार भी इस रिश्ते में दरार आ गई, तो उसे पाटना बेहद मुश्किल हो जाता है, क्योंकि पता है उस एक थप्पड़ से क्या होता है? उस एक थप्पड़ से उसे वे सारी अनफेयर चीज़ें साफ-साफ दिखने लग जाती हैं, जिन्हें अनदेखा करके अब तक वे मूव ऑन करती जा रही थीं। वह एक ‘थप्पड़’ उसके पूरे अस्तित्व पर एक प्रश्नचिन्ह खड़ा कर देता है। उसके भरोसे और उसके प्रेम की मज़बूत नींव को दरका देता है। ऐसे में दोबारा से वह चाहकर भी उन सबको वापस समेटकर उस इंसान से नहीं जोड़ पाती है। वैसे भी अगर जोड़कर रखनी पड़े कोई चीज़, तो मतलब टूटी हुई है ना।
बारीक फर्क है ‘अभिमान’ और ‘स्वाभिमान’ में
एक बार फिर से वहीं सवाल, “आखिर ऐसा हुआ क्यों?” ऐसी नौबत आए ही ना, इसके लिए बहुत ज़रूरी है कि हम अपने बेटे और बेटियों, दोनों को अपने कर्तव्यों और अधिकारों के बीच फर्क करना सिखाएं। हम उन्हें यह बताएं कि अभिमान और स्वाभिमान के बीच बेहद बारीक फर्क होता है। वह अपने पति से प्यार करती है, ससुरालवालों की इज्ज़त करती है और उनके मान-सम्मान व खुशी का ख्याल रखती है, अच्छी बात है, लेकिन ऐसा करते हुए वह अपने सम्मान से कॉम्प्रोमाइज़ ना करे।
अपनी खुशियों और अपनी इच्छाओं के लिए भी कुछ समय निकाले, क्योंकि वह भी इंसान है। खुद खुश और संतुष्ट रहकर वह दूसरों को खुश रख सकती है। रही बात रिश्तों में समझौता करने की तो, रिश्तों की खूबसूरती को बनाए रखने के लिए कई बार वह भी बेहद ज़रूरी होता है लेकिन बस इतना याद रखें कि झुकें वहीं, जहां आपको झुकाने की ज़िद ना हो। केवल तभी आप यह कहने का हक रखती हैं, “हां, सिर्फ एक थप्पड़ ही है पर नहीं मार सकता”।