तेरे गुरूर को जलाएगी, वो आग हूं,
आकर देख मुझे, मैं शाहीन बाग हूं।
नागरिकता संशोधन कानून और NRC को लेकर महिलाओं के अहिंसक प्रतिरोध की यह आग अब शाहीन बाग से निकलकर देश के कई हिस्सों में फैल चुकी है। इस आंदोलन से प्रेरणा लेकर देश के विभिन्न हिस्सों में इसी तरह के विरोध प्रदर्शन हो रहे हैं। चाहे दिल्ली में सीलमपुर हो या पटना का सब्ज़ीबाग, या इलाहाबाद में रोशनबाग।
भारत जैसे लोकतांत्रिक देश में ये स्थल अब अहिंसक प्रतिरोध के नए मंदिर हैं। यह आंदोलन ना केवल नागरिकता जैसे सवाल को, बल्कि मुस्लिम महिलाओं की घर-परिवार-समाज में उनकी सामाजिक स्थिति को भी प्रभावित करेगा।
औपनिवेशिक शक्तियों से देश को आज़ाद हुए सत्तर साल बीत चुके हैं लेकिन आज़ादी के लिए अपने-अपने तरीकों से लड़ने वालों ने आज़ाद भारत का जैसा सपना देखा था, वैसी आज़ादी आज भी नहीं मिल पाई है। क्या कारण है कि आज़ादी के इतने साल बीतने के बाद भी आज आज़ादी का वह चेहरा हमारे सामने नहीं है, जिसकी कल्पना की गई थी।
सन् 1905 में जब जब लॉर्ड कर्जन ने एकतरफा फैसला लेकर बंगाल विभाजन घोषित कर दिया था, तब राष्ट्रीय आंदोलनकारी इस बात पर एकमत नहीं थे कि प्रतिरोध का रास्ता क्या हो। ऐसे समय में रबीन्द्रनाथ टैगोर ने कहा था, “जोदि तोर डाक शुने केऊ ना ऐसे तबे एकला चलो रे” अर्थात आपकी बात का कोई उत्तर नहीं देता है, तो आप अपने तरीके से अकेले चलें।
यह लेख इलाहाबाद के मंसूर अली पार्क (रोशनबाग) में बीते 12 जनवरी से नागरिकता संशोधन कानून और NRC को लेकर चल रहे आंदोलन से उपजे कुछ सवालों से निकला है। दिल्ली के शाहीनबाग की ही तरह इलाहाबाद में भी पहले कुछ मुस्लिम महिलाओं ने अहिंसक आंदोलन करना शुरू किया और फिर कारवां बढ़ता गया।
अब यह आंदोलन किसी एक धर्म या जेंडर का आंदोलन नहीं रहा है, अलग-अलग समुदाय इसे समर्थन दे रहे हैं। ये महिलाएं घरों से बाहर आ चुकी हैं और देश में अपनी हकदारी को बनाए रखने के लिए वे तरह-तरह के नारों का इस्तेमाल कर रहीं हैं, जैसे- “जीतेंगे तो वतन मुबारक, हारेंगे तो कफन मुबारक”।
एक स्त्री होने के नाते मैं ये अच्छी तरह से कह पा रही हूं कि आज जब हम 21वीं सदी में हैं, तब भी महिलाओं के लिए यह आसान नहीं है कि वे घर से बाहर आकर किसी आंदोलन का हिस्सा बने लेकिन इन महिलाओं का कहना है कि अब हम घर से कदम निकाल चुके हैं और सरकार से बिना अपनी बात कहे नहीं जाएंगे।
महिलाओं को इस आंदोलन से क्या मिला है?
ये सवाल पूछने पर कि इस आंदोलन से पिछले लगभग एक महीने में आप लोगों की ज़िन्दगी में क्या असर पड़ा है? ये बताती हैं कि इस आंदोलन से उनकी ज़िन्दगी में कुछ महत्वपूर्ण बदलाव हुए हैं, जैसे- लगभग सभी महिलाएं पहली बार अपनी राजनीतिक अभिव्यक्ति के लिए आंदोलन का हिस्सा बनी हैं, पहले ये केवल घर के कामों में ही व्यस्त रहती थीं लेकिन अब उनके परिवार के अन्य पुरुष सदस्य भी उनके कामों में हाथ बंटा रहे हैं, जिससे कि वे यहां के लिए समय निकाल सकें।
अब से पहले वे अपने पड़ोसियों को ठीक से नहीं जानती थीं लेकिन इस आंदोलन से उन्हें अब नई सहेलियां मिल गईं हैं। सबसे बड़ी बात जो वे ज़ोर देकर बोलती हैं कि इस आंदोलन से हम बोलना सीख गए हैं और हमें यह हिम्मत JNU और जामिया जैसी यूनिवर्सिटियों के उन नजवानों से मिली है, जो सरकारी पुलिस की बर्बरता के बावजूद अपने अधिकारों के लिए लड़ रहे हैं।
क्या है नागरिकता संशोधन कानून?
सरकार ने यह ऐलान किया कि उनका नागरिकता संशोधन कानून तीन पडोसी देशों- पकिस्तान, अफगानिस्तान और बांग्लादेश के अल्पसंख्यकों यथा- हिन्दू, सिख, ईसाई, बौद्ध, जैन एवं पारसी समुदाय को नागरिकता देने का कानून है। इसका देश के किसी नागरिक की नागरिकता लेने से कोई संबंध नहीं है।
लेकिन इसके साथ ही कई राज्यों ने NRC (नैशनल रजिस्टर ऑफ सिटीजन्स) पर काम करना शुरू किया है, जिसमें देश के कई लोग अपनी नागरिकता सिद्ध करने में नाकाम रहे हैं। असम में शुरू की गई इस पहल का व्यापक विरोध हो रहा है और सारे देश में इस पूरे पैकेज (CAA, NRC, और NPR) पर गहरा संदेह है।
इस मामले पर ये महिलाएं कहती हैं,
अगर ये नागरिकता देने का कानून है, तो सरकार ने हमारे धर्म का ज़िक्र क्यों नहीं किया? वे यह क्यों नहीं एक बार आकर बोलते कि यह आपका देश है, आप भी इस देश के नागरिक हैं।
एक महिला से बातचीत के दौरान उन्होंने कहा,
हमारे कागज़ तो हमारे बाप दादा के साथ कब्रिस्तान में दफन हैं, यहीं हम जन्मे, अब हम कहां जाएंगे? जब हम अपने देश में सुरक्षित नहीं हैं, तो कोई दूसरा वतन हमें क्यों अपनाएगा?
क्या ये महिलाएं महज़ भीड़ का हिस्सा हैं?
भारत में महिला अधिकारों के लिए होने वाले आंदोलनों पर हमेशा ये प्रश्न उठाए जाते हैं कि ये मुख्यत: शहरी, उच्च जातीय, अंग्रेज़ीदां महिलाओं द्वारा संचालित हैं और इनमें समाज के दलित, आदिवासी और अल्पसंख्यक समुदाय का प्रतिनिधित्व ना के बराबर है, इसके साथ ही ये इन समुदायों के वास्तविक प्रश्नों को गंभीरता से उठाने में नाकाम रहे हैं।
मुस्लिम महिलाओं द्वारा अपने हक के लिए ना तो 1985 में शाहबानो केस के फैसले को तत्कालीन कॉंग्रेस सरकार द्वारा पलटने के विरोध में कोई बड़ा आंदोलन किया गया और ना ही पिछले साल कानून बने तीन तलाक के पक्ष में ऐसा कोई व्यापक आंदोलन हुआ है।
इसलिए यहां यह सवाल उठाना ज़रूरी है कि क्या ये मुस्लिम महिलाओं का आंदोलन है या महिलाओं को यहां इस्तेमाल किया जा रहा है?
आंदोलनों को हिंसक होने से बचाने के लिए इतिहास में ऐसे प्रयोग पहले भी किए जा चुके हैं, क्योंकि ऐसा माना जाता है कि महिलाएं स्वभावत: अहिंसक होती हैं। हमने कई बार ऐसा भी देखा है, जब पुरुषों ने अपने हितों के लिए महिलाओं को ढाल की तरह इस्तेमाल किया है।
पिछले कुछ सालों में स्वंभू बाबाओं ने पुलिस की कार्यवाही से बचने के लिए महिलाओं और बच्चों को ह्यूमन शील्ड की तरह इस्तेमाल किया है।
लेकिन इस आंदोलन में ना तो महिलाएं किसी दुरूह जगह बैठी हैं और ना ही उनके इस आंदोलन से कानून व्यवस्था के लिए कोई खतरा है। मंसूर अली पार्क में बैठी मुस्लिम महिलाओं के साथ उनके बच्चे भी शामिल हैं।
इन महिलाओं में शिक्षित और अशिक्षित दोनों समूहों की महिलाएं शामिल हैं। यह पूछने पर कि वे यहां किस तरह का विरोध करने आती हैं, तो उनका कहना है कि वे अपना घर-बार छोड़कर अपने बच्चों के भविष्य को दांव पर लगाते हुए अपने अस्तित्व की अहिंसक तरीके से लड़ाई लड़ने आई हैं।
ये महिलाएं अपने रोज़मर्रा के कामों को छोड़कर यहां सरकार से पूछ रही हैं कि क्या भारत उनका देश नहीं है? अब हमें अपने ही देश में रहने के लिए प्रमाणपत्र दिखाना होगा? उनसे बातचीत से पता चलता है कि वे अपनी इच्छा से आई हैं ना कि किसी ज़बरदस्ती से।
एक तरफ मुस्लिम महिलाओं के हक की लड़ाई और दूसरी तरफ नागरिकता पर प्रश्न चिन्ह?
बीते साल मुस्लिम महिलाओं के हक की लड़ाई के लिए तीन तलाक जैसे संवेदनशील मुद्दे पर भारत सरकार आगे आई और इसे खत्म करने के लिए संसद में कानून बनाया गया।
सरकार में बैठे नुमाइंदों ने इसे अपनी बहनों की जीत बताया। आज वही महिलाएं अपने अस्तित्व के प्रश्न को लेकर धरने पर बैठी हैं। महिलाएं अपनी चिंता व्यक्त करते हुए कहती हैं,
क्या ये वही सरकार है, जिसने हमारे लिए तीन तलाक जैसी प्रथा के खिलाफ कानून बनाया है और आज वही सरकार हमें अपनी नागरिकता साबित करने को कह रही है, तो उनके इस कानून से हमारा क्या फायदा होगा, जब हम इस देश के नागरिक ही नहीं रहेंगे।
क्या मुस्लिम महिलाओं का यह आंदोलन रंग लाएगा?
जानकार मानते हैं कि किसी आंदोलन या घटना का उसकी सफलता या असफलता के रूप में केवल एक ही परिणाम नहीं होता है। आंदोलनों के दीर्घकालीन रूप से कई परिणाम सामने आते हैं। आने वाले समय में यह साफ होगा कि सरकार को यह आंदोलन अपने फैसले पर पुनर्विचार करने के लिए विवश कर पाता है या नहीं और इस आंदोलन को जानबूझकर खत्म ना करके सरकार कैसे बहुसंख्यकों को अपने पक्ष में करने की कोशिश करती है।
इस आंदोलन में अपनी इच्छा से भाग लेने वाली महिलाओं की इच्छा में परिवार के पुरुष सदस्यों की कितनी इच्छा है? क्या महिलाएं उन धार्मिक-सामाजिक कुरीतियों के लिए भी ऐसे ही खड़ी हो पाएंगी, जो उन्हें अपने ही परिवार में दोयम दर्जे का बनाती है।
इन सवालों के जवाब तो आने वाला समय ही बतायेगा लेकिन इतना ज़रूर है कि इस आंदोलन से मुस्लिम महिलाओं को पितृसत्ता और उन पूर्वाग्रहों को तोड़ने में मदद ज़रूर मिलेगी, जिनके साथ सदियों से उन्हें बांधा गया है।