शिक्षा एक ऐसा माध्यम है, जो हमें अज्ञान के अंधेरे से निकलकर विज्ञान का रास्ता दिखाता है। ऐसा रास्ता जो तर्कशीलता की कसौटी पर हर बात को तोलता है। ये रास्ता हमें आडम्बरों के जाल से निकालकर हमारी सोच को आज़ाद करता है।
यह शिक्षा ही है जो चमत्कार के झूठे पर्दे को चीरकर तर्कशील विज्ञान से हमें रूबरू करता है। लेकिन कैसा महसूस होगा अगर शिक्षा के भूमिस्थल पर कोई आडम्बरों के बीज बोने की कोशिश करें।
गुजरात के हॉस्टल में हुई अमानवीय घटना
ऐसा उदाहरण हाल फिलहाल में गुजरात के भुज ज़िले में लड़कियों के हॉस्टल की वॉर्डन ने दिया है। उन्होंने इस बात को साबित कर दिया है कि शिक्षित व्यक्ति भी आडम्बरों में फस सकता है।
गुजरात के भुज ज़िले में लड़कियों के हॉस्टल में इस्तेमाल किया गया सैनिटरी पैड मैदान में पड़ा था। जिसे देखकर हॉस्टल में हड़कंप सा मच गया था। हॉस्टल के मैदान में इस्तेमाल किया गया सैनिटरी पैड किसने फेंका, इसकी जांच करने के लिए 68 लड़कियों के कपड़े उतरवाए गए। ऐसा इसलिए किया गया क्योंकि हॉस्टल के नियम के अनुसार पीरियड के दिनों में कोई लड़की हॉस्टल के रूम में ना रहकर बेसमेंट में रहती है। यहीं नही उस दौरान लड़की ना तो किचन में जा सकती है और उसके खाना खाने के बर्तन भी अलग होंगे।
एक तरफ जहां हम स्कूल स्तर पर पीरियड फ्रेंडली टॉयलेट और जागरूकता के लिए लड़ाई लग रहे हैं, वहीं दूसरी तरफ अमानवीय तरीके से हॉस्टल में भेदभाव व आडम्बरों की पाठशाला खुले आम चल रही है।
शिक्षा के भूमिस्थल पर कोई भेदभाव व आडम्बरों के बीज भला कैसे लगा सकता है? इस तरह की घटनाएं साफ तौर पर मानव अधिकारों का उल्लंघन हैं।
हॉस्टल में माहवारी प्रबंधन की बहुत बड़ी
इसके इलावा यह इस बात की तरफ भी इशारा करता हैं कि हॉस्टल में माहवारी प्रबंधन की बहुत बड़ी कमी है, जिसके चलते इस्तेमाल किये गए सैनिटरी पैड का निपटारन नहीं हो रहा है।
वास्तव में यह विचारणीय विषय है, जिसपर गहन चर्चा और सुधार की ज़रूरत है। आज भी पीरियड को लेकर शिक्षति वर्ग में भी बहुत सारी गलत धारणाएं जड़ पकड़े हुए है। इन गलत धारणाओं के ना टूटने का एक कारण स्कूल स्तर पर बायोलॉजी से जुड़े चैप्टर को अध्यापक के द्वारा ना पढ़ाया जाना भी है। बायोलॉजी का चैप्टर हमें पीरियड के पीछे के विज्ञान को समझने में मदद करता है।
स्कूलों में आज भी लड़कियों के लिए साफ सुधरे टॉयलेट की कमी है। पीरियड फ्रेंडली टॉयलेट और जागरूकता के अभाव में ना जाने कितनी लड़कियां अपनी स्कूली शिक्षा से भी वंचित रह जाती हैं।
ASER 2018 की रिपोर्ट के अनुसार लड़कियों में 11 से 14 साल की आयु में 7.4% लड़कियां स्कूल छोड़ देती हैं। दसरा (Dasra) NGO की 2014 की रिपोर्ट के अनुसार 70% किशोरियों को पीरियड के बारे में पर्याप्त जानकारी का अभाव है। कहीं ना कहीं लड़कियों के सपनों को पूरा करने के लिए हमें इस मुद्दे को उठाना चाहिए।
अगर स्कूल स्तर पर इन मुद्दों पर चर्चा हो तो भुज ज़िले जैसी घटनाएं फिर से नहीं होंगी। जब स्कूल स्तर पर पीरियड फ्रेंडली टॉयलेट और माहवारी सम्बंधित जानकारियां होंगी तो किशोरियां गरिमा और आत्मविश्वास के साथ शिक्षा के क्षेत्र में आगे पढ़ सकती हैं। नीति आयोग को भी इस मुद्दे को अपनी पॉलिसी में प्रमुखता से रखना चाहिए। तभी सतत विकास के लक्ष्यों की प्राप्ति का रास्ता बन पाएगा।