कभी-कभी सोचता हूं कि हमारे सपनों के भारत को कैसा होना चाहिए था? बड़ी उलझन होती है, जब सपनों के उस देश से अपने देश की तुलना करता हूं। यह कहना बहुत आसान है कि हमारे देश में बहुत सारी खामियां हैं पर हमारा देश महान है।
किसी देश की महानता इस बात पर निर्भर नहीं करती है कि उस देश के लोग उसे किस नज़र से देखते हैं, बल्कि यह इस बात पर निर्भर करती है कि अन्य देशों के लोग उसे किस नज़र से देखते हैं।
जब मैं विदेशी निगाहों से अपने देश को देखता हूं तो पाता हूं कि यह देश कई मानकों पर महानता के मापदंड पर खरा नहीं उतरता है। किसी देश के नागरिक अगर देशहित पर भी एक ना हो सकें, देश विभिन्न जातियों और धर्मों में विभक्त हो, सरकार के कानून और समाज के कानून में व्यापक अंतर हो, गरीबी और अशिक्षा से देश भरा हो, स्त्रियां सड़कों पर सुरक्षित नहीं हो, तो ऐसे देश को महान कहना अंधभक्ति हो सकती है, देशभक्ति नहीं।
प्रश्न उठता है कि यह किसकी ज़िम्मेदारी थी, किसकी लापरवाही से देश का यह हाल हुआ और अभी भी हो रहा है। क्या केवल राजनीतिक सरकारों को घेरने और उन पर ज़िम्मेदारी डाल देने से हमारी समस्याओं का हल हो सकता है?
राजनीतिक महत्त्वाकांक्षाएं देश को बर्बाद कर रही हैं
देश के विभिन्न राज्यों की सरकारों के रवैये से यह बहुत स्पष्ट नज़र आता है कि राजनीतिक महत्त्वाकांक्षाएं इतनी मुखर हैं कि राज्य सरकारें देश की सरकार को चुनौती देकर राज्यों को देश घोषित करने की अप्रत्यक्ष कार्रवाई कर रही है।
यह अवस्था ना केवल हास्यास्पद है, बल्कि भयानक रूप से खतरनाक भी है। यह तरीका देश को भीतर से खोखला करती जा रही है। सरकारें जब चुनी जाती हैं तो वे केवल दलगत राजनीति को जीवित रखने के लिए नहीं होती हैं, बल्कि पूरे देश को एक सूत्र में जोड़ने की महत्ती भूमिका निभाने का भी दायित्व इनको सौंपा जाता है, जिसमें यह लगातार असफल होती रही हैं।
राजनीतिक महात्त्वाकांक्षाएं और नेताओं की लघुता ने राजनीति में अहंकार के नए अध्याय को लिखना शुरू किया है, यह अहंकार देश को जला रहा है, भीतर-भीतर देश सुलग रहा है।
सिर्फ सरकार ही नहीं हम आम जनता भी हैं ज़िम्मेदार
देश की दुर्दशा में सरकारों की असफलता के साथ-साथ इसकी जनता की असफलता का भी बड़ा योगदान रहा है। हम अपनी ज़िम्मेदारियों से दूर भागते हैं पर अपने अधिकारों के प्रति बहुत सजग रहने वाले लोग हैं। हम दूसरों पर नज़र रखने वाले लोग हैं पर अपनी ओर से हमेशा आंख मूंद कर रहने वाले लोग हैं।
मुझे याद है कि किसी एक सरकारी कार्यक्रम में एक बड़े अधिकारी ने बारह रुपए की काजू कतली खाते हुए कहा था कि बारह हज़ार रुपये के शौचालय में यदि किसी ने बारह पैसे भी खाने की कोशिश की तो उसे वे बारह साल के लिए जेल भेज देंगे। मज़े की बात यह थी कि वह बारह रुपये का काजू भी ‘उसी मद’ के रुपये से आई थी।
आज सबकी हालत एक सी है। लोगों का नैतिक पतन हो चुका है और वे देश को भी पतन की ओर ले जा रहे हैं। सबको बस अपनी और अपनों की ही फिक्र है। परोपकार और सद्भावना खारिज किए गए विचार बन चुके हैं। जिस देश में स्त्रियों की पूजा की जाती है, वहीं आज स्त्रियां तरह-तरह की मानसिक और शारीरिक यातनाएं झेल रही हैं।
मैं सभी लोगों से माफी चाहता हूं कि मैंने आप लोगों की उग्र देशभक्ति को छेड़ने की कोशिश की है परंतु सच कहता हूं कि मैं दिल से देशभक्त हूं, बस अंधभक्त नहीं बन पाता हूं।