भाई हमारे यहां गोकलपुरी में जो मस्ज़िद है। उसे जलाने की कोशिश हो रही है। दंगाइयों के झुंड के झुंड मस्ज़िद के पास जमा हो गए हैं। ‘जय श्री राम’ के नारे ज़ोर-ज़ोर से लगा रहे हैं। भाई दोबारा फोन करता हूं।
दिल्ली दंगों के बीच मेरे दोस्त ने फोन कर ये बातें मुझसे कहीं। थोड़ी दे बाद फिर फोन आता है और वे कहते हैं, “भाई, अभी वे लोग आग लगाने की कोशिश कर रहे हैं। भाई इन्होंने आग लगा दी।”
मैंने पूछा, “पुलिस आई क्या?”.
मेरे दोस्त ने कहा, “भाई पुलिस तो वहीं खड़ी है मगर कुछ कर नहीं रही है। अभी एक न्यूज़ वालों को गाली देकर भगा दिया। भाई गली के बाहर जो दुकानें थीं, उन्हें भी जला दिए गए। एक चार मंज़िला दवाइयों का स्टोर भी पूरा जला दिया गया। भाई एक-एक दुकान और घर चिन्हित करके जला रहे हैं। भाई हम कुछ कर सकते हैं क्या?
मैंने कहा, “हम कुछ नहीं कर सकते, कर भी क्या सकते हैं?”
शाम होते-होते फिर फोन आता है और मेरे दोस्त मुझसे कहते हैं, “भाई तुम कहां हो?” मैंने कहा, “दफ्तर में।”
फिर उसने मुझे कहा, “भाई तुम घर आ जाओ हमें यहां से निकाल लो। लोगों का कुछ पता नहीं, ये लोग मस्ज़िद को गैस सिलेंडर से उड़ाने का प्लाोन कर रहे हैं। इन सबको पता है कि मेरी मुसलमान लड़कों से दोस्ती है। क्या पता रात को हमारे घर पर भी हमला कर दे। तुम गाड़ी लेकर आ जाओ हम सब तैयार बैठे हैं।” मैंने कहा, “मैं पहुंच रहा हूं, मुझे 30 मिनट लगेंगे पहुंचने में।”
दंगों के बीच जब मैं दोस्त को बचाने निकल पड़ा
मैं दफ्तर से जैसे मुख्य सड़क पर पहुंचा तो देखा कि रोज़ की तरह ट्रैफिक नहीं थी। सड़क खाली पड़ी थी, बहुत कम गाड़ियां दिख रही थीं और सवारी भी स्टैंड पर कम ही थी। मैंने तय किया कि सीमापुरी गोल चक्कर से होते हुए, गगन सिनेमा जाऊंगा ओर हालात का भी पता भी लग जाएगा।
सीमापुरी गोल चक्कर पहुंचने से पहले मन में ख्याल आया कि उधर जाकर कहीं मैं फंस ना जाऊं। फिर मैंने स्कूटी दिलशाद गार्डन की ओर मोड़ दी। जल्द ही गगन सिनेमा के पास पहुंच गया। मंडौली चुंगी का फ्लाई ओवर चढ़ा तो अंधेरा छाया हुआ था।
सड़क पर एक भी लाइट नहीं जल रही थी। मैंने स्कूटी स्लो की और आसमान को देखा। पूरे आसमान को काले धुएं ने ढक दिया था। मुझे समझने में देरी नहीं लगी कि अब यहां से हालात ज़्यादा गंभीर हैं। थोड़ा आगे बढ़ा तो सड़क के दोनों ओर भीड़ इकट्ठा थी और आग लगाने की तैयारी चल रही थी।
पुलिस कहीं भी नज़र नहीं आ रही थी
पुलिस कहीं नज़र नहीं आ रही थी। थोड़ी हिम्मत करके दंगाईयो के बीच से निकलने का मन बनाया, भीड़ के हाथ में लोहे की छड़ें, लकड़ी के डंडे थे। भीड़ ने मुझे देखकर ‘जय श्री राम’ के नारे लगाने शुरू कर दिए।
जैसे ही उन्होंने नारा लगाया, मेरे मुंह से भी ‘जय श्री राम’ निकला और भीड़ ने मुझे बिना कुछ कहे जाने दिया। लोनी गोल चक्कर का फ्लाई ओवर क्रॉस करते ही पेट्रोल पंप के सामने दंगाइयों ने आग लगा रखी थी। उत्तेजित आवाज़ में जय श्रीराम के नारे लगा रहे थे। वहीं, बगल में पुलिस की जिप्सी खड़ी थी। सड़क पर एक भी वाहन नहीं थी।
बस एक लड़का पैदल जा रहा था। उसने मुझे लिफ्ट के लिए इशारा किया। मैंने स्कूटी रोककर उसको बैठा लिया। मैंने पूछा,”कहां जाओगे?” उसने कहा, “भजनपुरा से भी आगे जाना है।” मैंने कहा, “मैं तो गोकुलपुरी तक ही जाऊंगा।”
उसने कहा, “कोई बात नहीं, वहीं छोड़ देना।” मैंने उसको गोकुलपुरी फ्लाई ओवर के नीचे उतार दिया। जैसे ही मैंने गोकुलपुरी के लिए स्कूटी मोड़ी कि गोकलपुरी की मुख्य सड़क पर लड़कों ने बैरीकेड से सड़क को बंद कर रखा था। सभी के हाथ में रॉड, डन्डे थे। उन्होंने मुझे देखकर बैरियर को थोड़ा हटाकर जगह दी और मैं निकल गया।
दंगों के बीच कैसे दोस्त की दीदी को घर से सुरक्षित निकाला
दोस्त का घर मस्ज़िद के पास ही है। मैंने मस्ज़िद को देखा तो मस्ज़िद जल रही थी। दरवाज़ों को तोड़ा जा चुका था। दोस्त की गली में 15-16 साल के लड़के अपने-अपने घरों में रॉड तलाश रहे थे। जिन्हें डंडा मिल गया था, वे गली में घूम रहे थे। उन्होंने मुझे देखा मगर कुछ कहा नहीं।
मैंने दोस्त को आवाज़ दी और आवाज सुनते ही उन्होंने दरवाजा खोला। वे 8 से 10 थैलों के साथ तैयार थे। शायद मेरा ही इंतज़ार कर रहे थे। दोस्त ने कहा, “यार आने में बहुत समय लगा दिए।”
मैंने उसका जवाब नहीं दिया। मैंने बोला, “पहले कौन जाएगा?” दोस्त ने कहा, “दीदी।” मैंने कहा, “जल्दी बैग दो।” मैंने दो बैग आगे रखे और एक बैग लेकर दीदी स्कूटी पर बैठ गईं। मेरे मन में ख्याल आया कि कहीं रास्ते में दंगाई ने रोक लिया तो क्या जवाब दूंगा? मैंने सोचा बोल दूंगा कि दोस्त की कल शादी है। शायद यह कहने पर जाने दे।
जैसे ही मैं मुख्य सड़क पर पहुंचा तो मैंने स्कूटी सड़क की बाई ओर से चलाता हुआ आगे बढ़ा, क्योंकि दाईं ओर आग लग सकती थी। उस सड़क पर दंगाइयों का कब्ज़ा था। खैर, मैं मीतनागर वाले फ्लाई ओवर के पास पहुंचने वाला ही था कि मैंने देखा मेरी साइड में भी दंगाई सड़क पर बैरियर लगा कर रास्ता रोक रहे थे।
वहीं पास में पड़ी एक मोटर साईकिल को उन्होंने आग के हवाले कर दिया था। पुलिस फ्लाई ओवर के पास आराम से खड़ी सब देख रही थी। बिना आहत हुए मैं और दीदी घर पहुंच गए।
दोस्त का छोटा भाई सहम गया था
अब दोबारा दोस्त को लेने फिर जाना था। मैंने जल्दी ही स्कूटी फिर घुमाई और गोकुलपुरी चल दिया, फिर दंगाईयो के बीच से होता हुआ दोस्त के कर पहुंचा। दोस्त के छोटे भाई को सामान के साथ स्कूटी पर बैठाया और चल दिया।
चलते ही उसको मैंने बोला कि अगर कोई रोक ले तो डरना मत। उसने कोई जवाब नहीं दिया। थोड़ी देर बाद बोला, “भाई ये सब क्या हो गया है? लोग इतने नफरत से क्यों भरे हुए हैं? पढ़े-लिखे लोग समझदारी क्यों नहीं दिखा रहे हैं?”
उसको लेकर मैं उन्हीं रास्तो से घर पहुंचा। हम सब सही सलामत घर पहुंचे मगर डर अभी भी दिल में घर कर गया था। पता नहीं अब आगे क्या होगा?
घर पहुंचकर एक हफ्ते का राशन लाने निकला
माँ मुझसे नाराज़ थीं, क्योंकि मैं घर देर से पहुंचा था। नफरतों का बाज़ार गरम था। माँ ने गुस्से से कहा, “सब घर का सामान ले आए। हमारा ही नहीं आया। तू जल्दी से घर के लिए एक हफ्ते का सामान आज ही लेकर आ जा।”
मैंने कहा, “माँ ऐसा भी क्या हो गया है, जो सारा सामान आज ही चाहिए?” माँ बोलीं, “मत ला, जब कुछ नहीं होगा बनाने को तो पता चल जाएगा।” मैं दो थैले लेकर बाज़ार पहुँचा। बाज़ार में रोज़ से ज़्यादा भीड़ थी। सभी दुकानों पर लोग जल्दी-जल्दी सामान खरीद रहे थे। मैंने सोचा ऐसा आज क्या हो गया कि सभी दुकानों पर भीड़ है। मैं सोचता हुआ आगे बढ़ा कि पहले सब्ज़ी खरीद लेता हूं।
सब्ज़ी की ठेली में लोग आलू लूट रहे थे
सब्ज़ी वालों के पास भी बहुत भीड़ थी। अब जाकर मेरी समझ में आया कि दंगे के डर से सभी सामान खरीद रहे हैं। देखते ही देखते सभी सब्ज़ियां महंगी हो गई थीं। जो सब्ज़ी 20 रुपए किलो थी, वो अब 40 रुपये किलो हो गई थी। मैंने भी आधा किलो पत्ता गोभी और आधा किलो गाजर ली। मैंने पूछा, “आलू है क्या?” सब्ज़ी वाला बोला, “आज बाज़ार में आलू खत्म है और 10 दिन अभी सब्ज़ी नहीं आएगा।”
मैंने कहा क्यों? सब्ज़ी वाला बोला, “जिस सब्ज़ी मंडी से सब्ज़ी आती है, वहां ज़्यादातर लोग मुसलमान हैं। सब्ज़ी मंडी में जा नहीं सकते, क्योंकि सभी जगह दंगे हो रहे हैं। सब्ज़ी लालबाग मंडी से आती है। वहां तो सभी मुसलमान हैं।”
अब मेरे भी दिल में डर घर कर गया था। सब्ज़ी के बिना कैसे गुज़ारा होगा, उसी डर में मैं आलू ढूंढने लगा। एक ठेले पर 8-10 किलो आलू नज़र आया। मैं ठेले के पास पहुंचा, कुछ महिलाएं और लोग आलू खरीद रहे थे। सभी को आलू ही खरीदना था। मैंने भी कहा, “3 किलो आलू मुझे भी दो।” सब्ज़ी वाले ने मेरी तरफ ध्यान नहीं दिया।
मैंने खुद ही एक पन्नी ली ओर आलू उठाकर भरने ही वाला था कि एक बुढ़िया पन्नी को मुझसे छीनने लगी। मैंने बोला कि अम्मा क्या कर रही हो? मुझे आलू भरने दो। उसने मुझे बिना देखे, जवाब ना देते हुए, मेरे हाथ से पन्नी छीन ली। मैंने कहा, “लो तुम ही भर लो आलू।”
सभी लोग बदहवास होकर थैली में आलू भरने लगे। एक औरत ने आलू को अपने पल्ले में भर लिया। एक औरत आलू के ऊपर झुक गईं बोली ये मेरे हैं। एक आदमी दूसरे आदमी के आलू तुले हुए अपनी थैली में डालने लगा, जिसके आलू थे वो चिल्लाया मगर किसी को कुछ फर्क नहीं पड़ा।
सब अपनी मर्ज़ी से आलू उठा रहे थे। एक प्रकार से लूट रहे थे आलू। मैं आगे बढ़ा थोड़ा सा यह सोचकर कि आलू नहीं मिले तो कम-से-कम दाल, चीनी और आटा ही खरीद लूं। किराने वाले की दुकान पर भी भीड़ थी। मैंने सोचा अब तो सामान लेकर ही जाऊंगा, भले देर हो जाए।
जैसे-तैसे राशन लिया
खैर, किराने की दुकान वाले ने मुझे पहचान लिया। मैं अक्सर उसी की दुकान से रसोई का सामान लेता रहा हू। मैंने बोला, “भाई मुझे भी दाल, चीनी और आटा दे दो।” उसने मेरे सामान जल्द ही पैक कर दिए। अब मुझे दूध और आलू की तलाश करनी थी। डेरी पर दूध नहीं था और ना ही किसी और दूध की दुकान पर।
वहां से निराश होकर मैं घर की ओर चला तो एक दुकान पर आलू दिखे। सोचा यहां से ले लेता हूं मगर वहां भी भीड़ थी और ज़ोर आजमाइश के साथ लोग सब्ज़ी खरीद रहे थे। मैंने भी आंटे का थैला और दो समान से भरे थैले अपने पैरों के बीच में रखकर पुराने कटे हुए खराब आलू से कुछ ठीक ठाक से आलू छांटने लगा और वो भी बिना रेट जाने।
तभी सब्ज़ी की दुकान पर एक आलू से भरा बोरा आया और मैंने एक डलिया में दो किलो आलू फटा-फट भर लिए। दुकानदार को वजन करने के लिए कहा मगर दुकानदार कहां सुनने वाला था। उसके तो पसीने छूट रहे थे। सब्ज़ी वजन करने और पैसे गिनने में।
सभी चिल्ला रहे थे। पहले मेरे पहले मेरे! मैं भी सब की तरह हाथ में पैसे लिए चिल्लाने लगा मेरे सामान का भी वजन कर दो। 15 मिनट की जद्दोजहद के बाद उसने मेरे आलू वजन कर दिए। मैंने भी फटाफट उसकी तरफ पैसे फैंके और अपने थैले उठाने लगा। उसनें मेरे दिए हुए पैसे बिना गिने रख लिए।
अब मैं सोच रहा था कि दूध कैसे मिलेगा? मेरे बेटा रात को दूध पीता है मगर मेरे पास दूध नही था, फिर मैं सोचने लगा अगर यही हाल रहा तो सामान के दाम बहुत ज़्यादा बढ़ जाएंगे, गरीब आदमी आपने बच्चों को क्या खिलाएगा? कैसे वो काम पर जाएगा?
मैं सोचने लगा कि अब तो बच्चे स्कूल भी नहीं जा सकेंगे। मैं भी दफ्तर नहीं जा सकूंगा। जिनको अस्पताल जाना होगा, वे अपना इलाज कैसे कराएंगे? मैं डर को लिए हुए घर आया।
डर अब सर्वव्यापी हो गया है। डर से ही बाज़ार चल रहा है। डर से ही अभी पार्टी अपना वोट बैंक मज़बूत कर रही है। आदमी को आदमी से डर लग रहा है। जो घर नहीं पहुंचा, उसे घर ना पहुचने का डर है। जो घर पर है, उसको किसी के घर में घुस जाने का डर है। किसी को जान का डर है, तो किसी को माल लूट जाने का डर है।
हम को इंसानियत के मर जाने का डर है।