पहली बार “प्रेम” शब्द से मेरा सामना स्कूल की चौथी जमात में हुआ था, जब अचानक से “मैंने प्यार किया” फिल्म सुपरहीट हुई और उसके गाने मेरे सभी साथी-दोस्तों की ज़ुबान पर होते थे। मेरे यहां बच्चों को थियेटर जाकर फिल्म देखने का चलन नहीं था, इसलिए मैं इस फिल्म को नहीं देख सका था।
उस समय एक लड़की से मेरी गहरी दोस्ती थी। हमारा खाना-पीना-खेलना सब साथ ही था। धीरे-धीरे क्लास की लड़कियों ने उसे समझाना शुरू किया वह लड़की है और उसे लड़कियों के साथ रहना चाहिए। उसने मुझसे बातचीत कम कर दी, हमारे स्कूल में लड़के-लड़कियां आपस में बात नहीं करते थे, इसलिए मेरे बालमन ने भी इस घटना पर कोई प्रतिक्रिया व्यक्त नहीं की।
लड़कों को भईया पुकारने का चलन
जैसे-जैसे हम लोग बड़े होते गएं, लड़के-लड़कियों को नाम से पुकारते पर लड़किया किसी भी लड़के को भईया ही कहकर पुकारती थी। शायद उनको डर था कि कोई भी स्कूल में लड़के-लड़कियों के संबंध को प्रेम की तरफ ना मोड़ दे।
इसके बाद मेरा नामंकन ज़िला स्कूल में हुआ, जहां सह-शिक्षा नहीं थी। प्रार्थना के एक प्रतिज्ञा होती थी, “भारत मेरा देश है और समस्त भारतवासी मेरे भाई-बहन हैं”, हम लड़के इस लाइन के साथ धीरे से बोलते, एक को छोड़कर। माने एक साथी होगी और बाकी सब बहन।
कॉलेज में आने के बाद मैंने बहुत से लोगों को देखा जो एक-दूसरे को नाम लेने की बजाय भाई-बहन ही कहना पसंद करते थे, कोई लड़का अपनी प्रेमिका को लोगों से छिपाने के लिए उसे अपनी चचेरी बहन तक बना लेता था।
आगे चलकर समझ आया प्रेम एक अभ्यास की तरह है
यूर्निवर्सिटी में आने के बाद जब अच्छे साहित्य और किताबों से रिश्ता हुआ, तब यह बात धीरे-धीरे समझ में आने लगी है कि प्रेम एक अभ्यास की तरह है, बालपन में यह अभ्यास अपने परिजनों के साथ होता है, किशोरावस्था में मित्रों के साथ और व्यस्क होने पर उनके साथ, जिनके साथ हम अपना जीवन साझा करना चाहते हैं। व्यस्कता का संबंध स्वतंत्रता से है और स्वतंत्र व्यक्ति ही प्रेम का पात्र होता है।
प्रेम को लेकर संकीर्ण सोच का बहुत बड़ा कारण हमारा परिवार और समाज है। परिवार के दायरे में सभी स्त्री-पुरुष संबंध किसी-ना-किसी रिश्ते में परिभाषित होते हैं। यह परिभाषित व्याख्या ही भावनात्मक या शारीरिक निकटता की इजाज़त देता है। इस परिभाषित रिश्तों के दायरे में “दोस्ती” का रिश्ता तभी पवित्र माना जाता है, जब वह समान लिंग में हो। पर यह रिश्ता भी अगर भावनात्मक ना होकर शारीरिक होता है, तो अपवित्र हो जाता है।
“अच्छी लड़कियां प्रेम नहीं करती हैं”
पारिवारिक संबंधों के बाहर किसी भी मानवीय संबंध के विकल्पों का अभाव ही स्त्री-पुरुष या समान लिंगों के बीच भावानात्मक प्रेम के संबंध को तब तक स्वीकार नहीं करता है, जब तक परिवार उस संबंध को स्वयं नहीं परिभाषित करता है।
मानवीय संबंधों पर प्रेम की यही परिभाषा इस मिथक को भी रचती है. “अच्छी लड़कियां प्रेम नहीं करती हैं” इसलिए लड़कियां दोस्ती का रिश्ता तक बनाने में काफी सर्तक रहती हैं। साथ ही साथ वर्ग, जाति, धर्म और लिंग के आधार पर बंटे हुए समाज में प्रेम पर हिंसा हावी हो जाती है।
किशोरावस्था में प्रेम में जैविक संबंधों को लेकर भावनाओं का जो उफान है, उसे समाज हेय नज़रिए से देखता है और प्रोत्साहित नहीं करता है, ऐसे प्रेम के लिए शारीरिक व्यस्कता तो रहती है पर आमतौर पर मानसिक रूप से यह वयस्कता अर्जित नहीं कर पाता है।
“प्रेम” भले ही दुनिया का वह शब्द है, जिसपर बहुत कुछ लिखा-पढ़ा और सुनाया गया है पर मानवीय संबंधों में “प्रेम” वह शब्द है, जिसको लेकर सबसे अधिक निगहबानियां भी हैं, तो कहीं प्रेम को लेकर वर्चस्ववादी सोच भी है, जिसके कारण कहीं ऑनर-किंलिग के नाम पर घर वाले प्रेमी जोड़े को मौत के घाट उतार देते हैं, तो कहीं एक तरफा प्रेम के जुनून में कोई प्रेमी किसी मासूम लड़की के चेहरे पर तेजाब फेंक देता है।
प्रेम के लिए आज की ज़रूरत यह है कि प्रेम के असल मर्म को लोग पहचानें और अपने जीवन में उतारें। यह सुनिशिचत करें कि उसके जीवन में अहंकार के लिए कोई जगह ना हो। नकारात्मक जीव कभी भी प्रेम नहीं कर सकता है, बस प्रेम के होने का दावा कर सकता है, प्रेम के जुमले पढ़ सकता है।