वर्ष 2019 लोकतंत्र की अग्निपरीक्षा का वर्ष था। इस वर्ष में लोकतंत्र के सिद्धांतों और आदर्शों को स्थापित करने के लिए
- ट्रिपल तलाक को अवैध घोषित करने,
- आम जनमानस की आस्था एवं आदर्शों से जुड़ा हुआ बहुप्रतीक्षित अयोध्या बाबरी मस्जिद का फैसला,
- धारा 370 की समाप्ति और
- सूचना के अधिकार के दायरे में अब चीफ जस्टिस ऑफ इंडिया का ऑफिस भी आएगा
जैसे ऐतिहासिक फैसले आए, जिनसे आम जनमानस का अपने संविधान और लोकतंत्र के आदर्शो में विश्वास और आस्था बढ़ी। साथ ही कुछ फैसले ऐसे भी आए जैसे,
- जेएनयू की फीस वृद्धि,
- अधिवक्ताओं और पुलिस में आपसी मूल्यों पर संघर्ष,
- बीएचयू में एक मुस्लिम अभ्यर्थी का संस्कृत पढ़ाये जाने का विरोध जिनके खिलाफ पूरे देश में विरोध, प्रदर्शन और धरना आदि हुए।
इस साल के अंत में एक महत्वपूर्ण फैसला नागरिकता संशोधन बिल (CAA) भी आया, जिसने पूरे देश की आत्मा को झकझोर दिया। जिसके विरोध में पूरे देश में इसके असंवैधानिक एवं अलोकतांत्रिक होने के कारण, पूरब से पश्चिम और उत्तर से दक्षिण तक जनता का सामूहिक विरोध, खासकर देश के तमाम विश्वविद्यालयों के विद्यार्थियों द्वारा उभर कर आया है। जिसके खिलाफ पूरे देश में विरोध प्रदर्शन ,शांतिपूर्ण धरना और जुलूस हो रहे हैं।
इसके फलस्वरूप देश के कई हिस्सों में हिंसा, पुलिस द्वारा लाठीचार्ज, आंसू गैस, वॉटर कैनन की खबरें भी हैं।
क्या बनाता है इस कानून को असंवैधानिक?
सवाल यह है कि इस नागरिकता कानून का ऐसा कौनसा महत्वपूर्ण तत्व है, जो इसे हमारे संविधान के आदर्शों एवं सिद्धांतों से इतर असंवैधानिक एवं अलोकतांत्रिक बनाता है? इस नागरिकता संशोधन बिल का वह सबसे महत्वपूर्ण तत्व यह है,
इसके आधार पर हमारे पड़ोसी देश पाकिस्तान, बांग्लादेश और अफगानिस्तान में धार्मिक आधार पर प्रताड़ना झेलने वाले केवल उन हिन्दू, बौद्ध, सिख, जैन, पारसी और ईसाइयों (कुल 6 धर्मों ) पर ही लागू होगा, जो 31 दिसंबर 2014 से पहले भारत आ चुके हैं।
इस बिल में सदियों से भेदभाव एवं धार्मिक प्रताड़ना झेल रहे हिन्दू, बौद्ध, सिख, जैन, पारसी और ईसाइयों (कुल 6 धर्मों) को तो इस बिल में स्थान दिया है लेकिन बस मुस्लिम सम्प्रदाय से सम्बन्ध रखने वाले नागरिकों को स्थान नहीं दिया है। जैसा कि हमारे देश की पवित्र संविधान की पुस्तक की उद्देशिका में उल्लेखित है,
हम भारत के लोग, भारत को एक सम्पूर्ण प्रभुत्व संपन्न समाजवादी पंथनिरपेक्ष लोकतंत्रात्मक गणराज्य बनाने के लिए तथा उसके समस्त नागरिकों को सामाजिक, आर्थिक और राजनीतिक न्याय, विचार, अभिव्यक्ति, विश्वास, धर्म और उपासना की स्वतंत्रता प्रतिष्ठा और अवसर की समता प्राप्त करने के लिए तथा उन सब में व्यक्ति की गरिमा और राष्ट्र की एकता और अखंडता सुनिश्चित करने वाली बंधुता बढ़ाने के लिए दृढ़ संकल्प होकर अपनी इस संविधान सभा में आज तारीख 26 नवंबर 1949 को एततद्वारा इस संविधान को अंगीकृत,अधिनियमित और आत्मार्पित करते हैं।
संविधान की उद्देशिका से स्पष्ट है कि हमारा देश के किसी भी नागरिक के साथ उसके धर्म के आधार पर भेदभाव नहीं करेगा ना ही ऐसे किसी क़ानून का निर्माण करेगा जिससे देश के संविधान की अस्मिता पर खतरा आये। लेकिन यह बिल हमारे संविधान के आदर्शो और उसके मूल आधार प्रस्तरों पर चोट करता है,धार्मिक भेदभाव वाली हिंसा को बढ़ाता है,सामाजिक आर्थिक और राजनैतिक न्याय के आधार पर भेदभाव करता है।
यह हमारे संविधान में दिए गए समानता के मौलिक अधिकार का उल्लंघन करता है जिसके कारण यह बिल हमारे संविधान के आदर्शों ,सिद्धांतो एवं हमारे संविधान की मूल ढांचे की आत्मा पर कुठराघात करता है।
अशान्तिपूर्ण एवं असौहार्दयता का वातावरण
इस बिल के आने से देश में अशान्तिपूर्ण एवं असौहार्दयता का एक वातावरण निर्मित हो गया है क्योंकि मुस्लिम समुदाय के जो नागरिक सदियों से इस देश के रहवासी हैं, उन्हें अब इस बात का डर एवं एक आंशिक खतरे का आभास हो रहा है कि यदि वे अपने पूर्वजों के इस देश में रहने के कागज़ात ना दे पाये तो वे साबित नहीं कर पाएंगे कि वे इसी देश के वासी हैं। ऐसे में उनसे अगले ही पल इस देश की सरज़मीं एवं इस देश के सम्मानित नागरिक होने के मूल अधिकारों से वंचित कर दिया जाएगा।
मौजूदा सरकार का तर्क है कि यह कानून हमारे पड़ोसी देशों में भेदभाव एवं प्रताड़ना से पीड़ित शरणार्थियों के लिए है। इससे उन पीड़ित लोगों को नागरिकता मिलेगी।
बहुत अच्छी बात है कि आप मानवता का कार्य कर रहे हैं लेकिन मेरा मौजूदा सरकार एवं देश के प्रधानसेवक से सवाल है कि अगर पडोसी देशों के पीड़ितों को शरण देनी थी तो नेपाल, श्रीलंका, म्यांमार के पीड़ित लोगों के लिए इसे लागू क्यों नहीं किया गया?
अगर भेदभाव झेल रहे लोगों की मदद करनी थी,
- तो पाकिस्तान के बलूचिस्तान, नेपाल के तराई, श्रीलंका के तमिल हिन्दुओं के लिए लागू क्यों नहीं किया गया?
- अगर धार्मिक आधार पर भेदभाव झेल रहे लोगों को शरण देनी थी तो बर्मा के रोहिंग्या जिन पर बौद्ध लामाओं ने भी अत्याचार किये हैं, उनके लिए क्यों लागू नहीं किया ?
- ठीक वही पडोसी देशों के प्रताड़ित नागरिकों को लागू करना था तो पाकिस्तान के शिया और अहमदिया मुसलमानों को इस में शामिल क्यों नहीं किया? उन के ऊपर भी बहुत लम्बे समय से अत्याचार हो रहे हैं।
- अफगानिस्तान के हज़ारा समुदाय को क्यों शामिल नहीं किया?
यही कारण है कि कश्मीर, ट्रिपल तलाक और अयोध्या पर लगभग अविरोध की स्थिति से हटकर नागरिकता संसोधन अधिनियम और राष्ट्रीय नागरिकता रजिस्टर के मोर्चे पर पूरब से पश्चिम तक और उत्तर से दक्षिण तक देश का आम जनमानस सरकार का घनघोर विरोध कर रहा है। जनता के विरोध को अपने तथ्यों से तरोड़मोड़ कर और सरकार की हर बात पर हामी भरने वाली जनतंत्र के चौथे स्तम्भ के रूप में स्थापित मीडिया को भी आमजनमानस कठघरे में खड़ा कर रहा है।
संविधान का उद्देश्य
किसी भी देश का संविधान उस देश के नागरिकों और राज्य के बीच के इस पवित्र रिश्ते को परिभाषित करता है कि राज्य और नागरिक के मध्य क्या सम्बन्ध है, जो उसे एकता और समरसता के धागे में पिरो के रखता है। अगर हम भारतीय संविधान को देखें तो उसके तीन आधारभूत उद्देश्य साफ तौर पर नज़र आते हैं।
पहला बड़ा उद्देश्य है राष्ट्र की एकता और अखंडता को कायम रखना। उसके लिए संविधान ने कार्यपालिका जनता के कल्याण के लिए अपार शक्तियां दी हैं।
कार्यपालिका आवश्यकता अनुरूप सेना,पुलिस और दूसरे सशस्त्र बलों का प्रयोग कश्मीर से पूर्वोत्तर तक करती रहती है। दूसरा महान उद्देश्य सामाजिक,आर्थिक और राजनैतिक न्याय और तीसरा आमजनमानस की निष्ठा के लिए लोकतंत्र कायम रखने का है। बाद के दोनों उद्देश्यों के लिए नीति निर्देशक तत्त्व और मौलिक अधिकार दिए हैं। यही संविधान का बुनियादी ढांचा है जिसे सरकार किसी भी मौजूदा स्थिति में इस में कोई संशोधन नहीं कर सकती है।
उच्चतम न्यायालय ने केशवानंद भारती (1973 )के वाद में स्पष्ट रूप से कहा है,
धर्मनिरपेक्षता संविधान के बुनियादी ढांचे का एक अभिन्न हिस्सा हैं। उसे देश की सुरक्षा या अन्य किसी भी उद्देश्य के आधार पर संशोधित नहीं किया जा सकता है।
डॉक्टर आंबेडकर ने संविधान सभा में साफ़ कहा था कि एक उद्देश्य के लिए दूसरे को दबाया जाना विधिसम्मत और संवैधानिक नहीं है। लोकतंत्र के आदर्शो के नाम पर सामाजिक न्याय को दरकिनार कर देना उचित नहीं है और ना ही एकता और अखंडता के नाम पर संविधान के मूल आधारों का उलंघन करना भी कहां न्यायोचित है।
सरकार की ज़िम्मेदारी
मौजूदा सरकार को इस संवदेनशील मुद्दे को आमजनमानस के समक्ष रखने से पहले जनता की राय पूछनी चाहिए थी। सरकार इस के लिए जनमत संग्रह भी करा सकती थी।
बल्कि इसके इतर सरकार ने संविधान के बुनियादी ढांचे को तोड़मरोड़ कर केवल धार्मिक आधार पर अपना संविधानवाद थोपने की कोशिश की जो कि स्वयं को विश्वगुरु और विश्व के सबसे बड़े लोकतांत्रिक देश कहलाने के अस्तित्व की अस्मिता पर सवाल है? नागरिकों के साथ किसी भी आधार पर अन्याय करने से उनमे गुस्सा और अलगाव पैदा होता है, जिससे देश कमज़ोर होता है।
संविधान किसी पर थोपा नहीं जा सकता उस के लिए आमजनमानस का उस देश के संविधान के आदर्शो और सिद्धांतो में अटूट आस्था और विश्वास होना चाहिए। टैगोर ने कहा है ,
देशभक्ति हमारा आखिरी आध्यात्म सहारा नहीं बन सकता मेरा आश्रय मानवता है।
वर्तमान में देश गिरती हुई अर्थव्यस्था, चौपट कृषि, अशिक्षा, भुखमरी, रोज़गार जैसे संवदेनशील मुद्दों पर जूझ रहा है। मौजूदा सरकार को इन संवदेनशील मुद्दों पर अपना रुख स्पष्ट करना चाहिए ना कि आमजनमानस के लिए परेशानियां खड़ी करनी चाहिए।
सरकार को आमजनमानस की पीडा को समझना चाहिए विश्व के सबसे बड़े लोकतांत्रिक देश होने के नाते नागरिकों के जीवन की मूलभूत आवश्यकताओं एवं देश की गिरती हुई अर्थव्यवस्था एवं अन्य मुद्दों पर कार्य करना चाहिए जो की एक देश के विकास के मूलभूत आधार हैं। लोकतंत्र के अर्थान्वयन के लिए देश के नागरिकों को एक समृद्ध और शिक्षित राष्ट्र चाहिए लेकिन उसके भीतर सामाजिक आर्थिक समानता और अपने असंतोष को व्यक्त करने के लिए लोकतंत्र भी चाहिए।
जैसा कि विंस्टन चर्चिल ने कहा है कि महानता की कीमत ज़िम्मेदारी है। क्या हमारा देश अपने नागरिकों के प्रति अपनी ज़िम्मेदारी निभा रहा है? यह साल लोकतंत्र की अग्निपरीक्षा के लिए जाना जायेगा।