जहां एक और बसंत की आहट है, वहीं बजट की सुगबुगाहट भी बढ़ गई है और इस सुगबुगाहट के बढ़ने की एक खास वजह गिरती इकोनॉमी और बेरोज़गारी है। जिसे 40 साल की सबसे खराब स्थिति माना जा रहा है। वहीं अर्थशास्त्र विशेषज्ञों, बजट गुरुओं ने उम्मीद जताई है कि वित्तमंत्री सीतारमण कुछ ऐसा लायेंगी जो आम जनता पर कर्ज का बोझ कम करेगा।
स्वतंत्र भारत का पहला बजट 28 फरवरी 1950 को जॉन मथाई ने पेश किया था और यह परंपरा तब से अब तक चली आ रही है। जिसे 2016 से 28 फरवरी को बजट पेश करने का दिन 1 फरवरी तय कर दिया गया। आम बजट में पूरे वित्त वर्ष के आय–व्यय का लेखा जोखा किया जाता है।
आज पेश हुआ आम बजट 2020, आंगनबाड़ी सेविकाओं के हिस्से ये रहा
आज जब बजट पेश करते हुए वित्तमंत्री निर्मला सीतारमण ने आंगनवाड़ी सेविकाओं का ज़िक्र किया तो लगा कि कुछ अच्छी खबर सुनने को मिलेगी लेकिन
- 6 लाख आंगनबाड़ी वर्कर्स के पास स्मार्ट फोन है, जिससे उन्हें काम करने में सुविधा हो रही है।
- आंगनवाड़ी में काम करने वाली महिलाओं ने खानपान का डेटा अपलोड किया है, जिससे कुपोषण के स्तर का अंदाज़ा होगा।
इन दो मुख्य बिंदुओं पर बात करके बजट में उनकी चर्चा समाप्त हो गया।
वित्तमंत्री निर्मला सीतारमण द्वारा पेश किया दूसरा आम बजट हुआ। बजट से सभी को उम्मीदें हैं फिर वह आमजन हो या कोई कॉर्पोरेट आयदाता। लेकिन मेरा प्रश्न यह है कि ऐसा क्या है, जो केंद्र में होकर भी केंद्र द्वारा चलाई जा रही अव्यस्थित पदों की सुध कोई नहीं लेता ना बजट, ना ही सरकारें और यही वजह है कि भ्र्ष्टाचार, कमीशनखोरों, बाबुओं, प्रधानों के रूप में पैर पसार रहा है।
ऐसे ही कुछ पद जिनसे काम तो लिया जाता रहा है लेकिन कोई निश्चित दाम नहीं दिया जाता।
पिछले साल संसद में भाषण देते हुए कार्यवाहक वित्तीय मंत्री पीयूष गोयल ने कहा कि सरकार लाखों आंगनवाड़ी कार्यकर्ताओं और सहायकों के मानदेय में 50 प्रतिशत की बढ़ोतरी करने जा रही है। इसको लेकर पिछले साल काफी उम्मीद जगी लेकिन आज इस बजट के बीच उन कार्यकर्ताओं और सहायकों का हकीकत क्या है, इसको जानने के लिए धरातल में जाने की ज़रूरत है।
आंगनबाड़ी सेविका
महिला बाल विकास मंत्रालय के अंतर्गत आने वाली ये सेविकाएं ICDS चार्ट के तहत 0-6 साल तक के बच्चों, उनकी माताओं और गर्भवती महिलाओं को पोषण और खान–पान की जानकारी देती हैं। इसके अलावा भी राशनकार्ड, टीकाकरण, और सरकार की लाभकारी योजनाओं का कार्य देखती हैं।
सामान्यतः आप पाएंगे इन पर बचतखोरी का आरोप लगाया जाता रहा है। लेकिन हकीकत यह है कि सेविकाओं से 10-10 घण्टे काम लेकर भी उन्हें संतुष्टिपूर्ण मनोदय नहीं दिया जाता। जो की हर राज्य में अलग–अलग तय है।
यह बात किसी बजट ने महत्वपूर्ण नहीं मानी है। सरकारें अपनी योजनाएं जिन कार्यकर्ताओं के बल पर ज़मीनी स्तर पर पूरी करवाती हैं। उन्हें ही जब–तब अपनी आवाज़ों के लिए सड़कों पर उतरना पड़ता है।
इसका ताज़ा उदाहरण देहरादून का है जहां 25 जनवरी को आंगनबाड़ी कार्यकर्ताओं ने विधायक मुन्ना सिंह का रास्ता रोका और अपनी मनोदय सम्बन्धी मांगें रखी जिसके बाद 27 जनवरी को 15 कार्यकर्ताओं की सेवाएं ही निरस्त कर दी गईं।
इसमें ही दूसरी कड़ी मानी जाती है पोषण सखी
पोषण सखी का काम ग्रामीण इलाकों में यह सुनिश्चित करना है कि गर्भवती महिलाओं, कुपोषित बच्चों तक पोषण आहार पहुंचें और समय–समय पर टीकाकरण हो। इसके अंतर्गत निश्चित तिथि पर पोषण आहार भी बांटा जाता है और आंगनबाड़ियों में बच्चों को स्व–सहायता केंद्र की मदद से भोजन भी दिया जाता है। लेकिन इन पोषण कार्यकर्ताओं का अपना पोषण किस तरह होता है, इसकी जानकारी कोई नहीं लेना चाहता।
सरकार की कुपोषण जन जागरण योजना हो या कोई भी और योजनाएं, सब इनके दम पर ही सफल बन पाती हैं। लेकिन जहां इन योजनाओं के नाम पर करोड़ों का बजट तय किया जाता है, वहां इनको मिलने वाला मनोदय जो अधिकतम 3000 है, उसका ना कोई स्थायित्व है और ना ही समय पर दिया जाता है।
वहीं इतनी कम राशि में ये (पौषण सखी) अपना घर चला रही होती हैं।
जलसहिया
जलसहिया ग्रामीण क्षेत्र की एक महत्वपूर्ण ईकाई है। प्रधानमंत्री स्वछता अभियान के तहत (ODF) शौच से मुक्त करने का कार्य में एक महत्वपूर्ण नाम है।
इस योजना के अंतर्गत 12000 रुपये की राशि एक शौचालय के निर्माण के लिए दिए जाते है। जो कि सहिया कार्यकर्ता सयुंक्त हस्ताक्षर से ही निकाल सकती है। लेकिन प्रश्न फिर वही खड़ा होता है कि जहां सरकार द्वारा इन योजनाओं के लिए हज़ारों करोड़ों का बजट बनाया जाता है। वहीं इन (सहिया) कार्यकर्ताओं के लिए कोई बात ही नहीं कि जाती।
इन्हें प्रति शौचालय 79-150 रुपये मिलने का प्रावधान है और यदि ये निश्चित समय पर नहीं मिलते, तब इनके खाते स्वतः ही बंद कर दिए जाते हैं। जो कि अक्सर ही नहीं मिल पाता है। फिर उनसे अपेक्षा भी की जाती है कि वे इस राशि(12000) में शौचालय भी बनवाएं, मध्यस्थों को कमीशन भी दें और घर भी चलाएं। वह भी तब जब आठ साल में इनके लिए कोई मनोदय तय नहीं किया है और जिन राज्यों ने घोषणा की है वहां भी स्थिति में कोई सुधार नहीं है।
ऐसी योजनाएं अथवा नौकरियां रोजगार की गारंटी तो नहीं देती लेकिन भ्र्ष्टाचार को बढावा ज़रूर देती हैं।
सहिया
सहिया (दीदी) ग्रामीण क्षेत्र की वो महत्वपूर्ण इकाई जिसका काम घर–घर तक स्वास्थ्य सेवाएं पहुंचाना और गर्भवती महिलाओं को प्राथमिकी स्वास्थ्य केंद्र तक ले जाना है जिसके बदले उन्हें कोई मनोदय नहीं दिया जाता है। जिनकी समस्याओं को किसी भी मंच, कहीं भी कागजों में दर्ज नहीं किया जाता है।
यह बेहद ही चिंता का विषय हैकि सहिया दीदी, जिनका काम है गर्भवती महिलाओं को नज़दीकी अस्पताल तक ले जाना, उन्हें ही सरकार द्वारा कोई राशी नहीं दी जाती है। वे मरीज़ों के परिजनों पर ही निर्भर रहती हैं कि शायद कुछ पैसे दे दें ये। प्रत्येक डिलिवरी पर अस्पताल से उन्हें कुछ रकम मिलता है, जो मिलना या ना मिलना एक ही बात है।
ऐसा ही एक और नाम है आशा कार्यकर्ता
स्वास्थ विभाग के अधीन ये सारे ही कार्य करती हैं। लेकिन अभी तक इनके लिए कोई एक मुश्त राशि तय नहीं की गयी है। जैसे टीकाकरण पर 100 रुपए और प्रसव पर 600 रुपए। इस तरह इन्हें कार्यानुरूप भुगतान किया जाता रहा है, जिसे बाद में 1000 कर दिया गया है। लेकिन क्या इतनी सीमित राशि किसी को काम करने की ऊर्जा दे सकती है।
इन सभी नौकरियों में प्रधान, सचिव, स्व– सहायता केंद्र और भी कई मध्यस्थ या कहिये कड़ियां होती हैं और इन महिला कार्यकर्ताओं का निश्चित मनोदय कहीं भी तय नहीं होता है। जिससे केंद्र की ये नीतियां, बजट में ये उन्मुखीकरण (ध्यान न देना) सिर्फ बईमानी और अराजकता को ही बढावा दे सकता है और कुछ भी नहीं।
क्या होना चाहिए था इस बजट में
मेरा मानना है कि आज यानी कि 1फरवरी को आए आम बजट में वित्त मंत्रालय को
- इनकी नौकरियों पर बात करनी चाहिए थी।
- महिला बाल विकास के अंतर्गत इसके लिए एक निश्चित बजट राशि दी जानी चाहिए थी।
यदि सरकार अपनी योजनाओं को बगैर किसी लूट–खसोट के सफल और प्रभावी बनाना चाहती है, तो यह उनका प्राथमिक कर्तव्य होना चाहिए कि वे अपने कार्यकर्ताओं को इस भय और आशंका से निकाल सकें कि उनके काम का दाम उन्हें निश्चित रूप से एक निश्चित राशि के रूप में दिया जाएगा।
एक निश्चित बजट जिसमें उनका कार्यकाल और मनोदय दोनों ही तय किये किये जायें। तब उनके काम करने का ढंग और भी प्रभावी होगा। चूड़ी, बिंदी पर टैक्स कम करने या बढ़ाने की बात से कहीं बहुत ज़्यादा ज़रूरी यह है कि हम उनके लिए उनके हक की बात कर पाएं।
नोट: सृष्टि तिवारी Youth Ki Awaaz इंटर्नशिप प्रोग्राम जनवरी-मार्च 2020 का हिस्सा हैं।