जब से नागरिकता संशोधन अधिनियम कानून की शक्ल में आया है, तब से पूरे देश में विरोध प्रदर्शन हो रहे हैं। देश के हर शहर के विश्वविद्यालयों और कॉलेजों तक प्रदर्शन हो रहे हैं।
इन प्रदर्शनों को प्रधानमंत्री और भाजपा नेता भले ही काँग्रेस और विपक्ष समर्थित आन्दोलन कहें या ना कहें, यह उनका राजनीतिक मामला है। लेकिन वास्तव में ये आंदोलन राजनितिक नेतृत्व-विहीन आन्दोलन है।
इनका नेतृत्व ज़्यादातर जगहों पर औरतें और लड़कियां ही कर रही हैं।चाहे वह जेएनयू हो, जामिया हो, अलीगढ़ हो, शाहीन बाग हो, पटना हो, मुंबई हो, बंगाल हो या फिर बेंगलूरु हो।
तेरे माथे पे यह आंचल बहुत ही खूब है लेकिन
तू इस आंचल से एक परचम बना लेती तो अच्छा था।
उर्दू के इंकलाबी शायरों में से मजाज़ लखनवी का यह शेर शायद कभी दिल्ली की शाहीन बाग में रहने वाली औरतों ने सुना होगा जिसको आज वे अमल में ला रहीं हैं। उन्होंने अपने सिर पर बंधे हिजाब को अपना परचम ही बना लिया है, जिसे अब वे सिर पर बांधे चल रहीं हैं।
एक महीने से चल रहा है आंदोलन
एक महीने से ज़्यादा का वक्त बीत गया है। इतनी कड़ाके की ठण्ड में जहां लोगों के जिस्म थरथरा रहे हैं, वहीं शाहीन बाग की औरतों के हौसले डगमगा नहीं रहे हैं और अब भी वे सड़कों पर डटी हुईं हैं।
बुर्का, हिजाब, चूड़ी और बिंदी जिन्हें कभी पितृसत्ता की निशानी माना जाता था, अब वे क्रांति और विरोध की निशानी बन चुके हैं। ये महिलाएं अब सरेआम सड़कों पर उतरकर उनको चुनौती दे रही हैं, जो इनके देश के संविधान और नागरिकों की नागरिकता को चुनौती दे रहे हैं। इनकी चूड़ियों की खनक इतनी तेज़ है कि इनकी आवाज़ पूरा देश सुन रहा है। लेकिन यह आवाज 7 रेस कोर्स तक नहीं पहुंच पा रही है और ना ही इसे हमारे देश के गृहमंत्री सुन पा रहे हैं।
जो नेता रैलियों में यह कहते थे कि उन्हें मुस्लिम-बहनों की बहुत फिक्र थी और उन्होंने तीन तलाक का कानून बना दिया है, उन्हें अब ठण्ड में ठिठुरती हुई वे मुस्लिम बहनें नहीं दिखती हैं। अब पीएम मोदी को मुस्लिम बहनों की फिक्र नहीं है और तो और हद तो तब हो गई जब भाजपा आईटी सेल के हेड अमित मालवीय उन औरतों पर बिकाऊ होने का आरोप लगाते हैं। उनका कहना है कि ये महिलाएं पैसे लेकर धरने पर बैठी है।
जो लोग अक्सर यह कहते थे कि मुस्लिम औरतों को घर की चार-दीवारी के दायरे में कैद कर के रखा जाता है, उन्हें देखना चाहिए कि वे औरतें अपने मज़हब के लिए ही नहीं बल्कि एक भारतीय के तौर पर अपनी पहचान और अपने संविधान को बचाने के लिए सड़कों पर उतर आई हैं।
घर की नहीं देश के मनुवादी की पितृसत्ता से लड़ रही हैं
कुछ लोग कहते हैं कि मुस्लिम महिलाओं को घर पर कैद करके रखा जाता है। चलिए अगर उन लोगों का यह आरोप मान भी लिया जाए कि मुस्लिम महिलाओं को घर में कैद करके रखा जाता है, तो इसका मतलब मुस्लिम महिलाएं अपने घर-परिवार में मौजूद पितृसत्ता से लड़ चुकी हैं और उसको कुचल कर ही वे सड़कों पर उतरी हैं और अब वे ब्राह्मणवादी और मनुवादी पितृसत्ता से लड़ रहीं हैं, जो उनसे उनकी पहचान छीनना चाहता है।
हालांकि इस ब्राह्मणवादी पितृसत्ता से सिर्फ मुस्लिम औरतें ही नहीं गैर-मुस्लिम औरतें भी लड़ रही है। क्योंकि यह लड़ाई मज़हब की नहीं पहचान की लड़ाई है, जिसको अगर नहीं जीता गया तो सबसे ज़्यादा नुकसान अल्पसंख्यकों और महिलाओं के साथ दलितों और गरीबों को ही होगा।
महिलाएं हर तरह से अपना विरोध दर्ज कराने का प्रयत्न भी कर रहीं हैं। बंगाल का एक वीडियो वायरल हो रहा है जिसमें महिलाएं ‘द रेपिस्ट इज़ यू नाम के चिली गाने को बंगाली वर्ज़न में गा रही हैं, तो कुछ महिलाएं हाथ में पोस्टर लिए खड़ी है जिसपर लिखा है ‘हिन्दू राष्ट्र इज़ रेपिस्ट’।
आज हाथों में तख्तियां लेकर महिलाएं सडकों पर हैं क्योंकि अगर हिन्दू राष्ट्र संघ का एजेंडा कामयाब होता है, तो उससे सबसे ज़्यादा प्रभावित महिलाएं ही होंगी। क्योंकि धर्म के आधार पर बना कोई भी देश या उसका संविधान महिलाओं को पुरुषों के समान अधिकार नहीं देगा।
कोई भी धर्म पुरुष और महिलाओ में समानता स्थापित नहीं कर सकता बल्कि पहले से मौजूद समानता को खत्म ही करता है। इसीलिए अपने अस्तित्व और अपनी पहचान के लिये ये औरतें सड़कों पर है। आखिर में शाहीन बाग और मुल्क की तमाम औरतों के लिए अल्लामा इकबाल का एक शेर,
तू ‘शाहीन’ है परवाज़ है काम तेरा
तिरे सामने आसमां और भी हैं।