JNU, इसके नाम से सियासत थरथराते हैं और बेबस हौसला पाते हैं। 5 जनवरी को JNU में ऐसी हिंसा हुई, जो किसी भी लोकतंत्र के लिए शर्मिंदगी की बात है। निहत्थे, मासूम स्टूडेंट्स पर ये हमला किसी आंतकी हमले से कम नहीं है।
सुनसान सड़क में आज़ादी
दिल्ली को भले ही रेप सिटी के नाम जाना जाता हो लेकिन JNU इसके बिल्कुल विपरीत है। JNU दिल्ली, यहां तक कि देश की भी सबसे सुरक्षित जगह है। महिलाएं रात के 2 बजे भी सुनसान सड़कों में बेकौफ घूम सकती हैं। जिस प्रकार से महिलाओं पर बर्बरता से हमला हुआ है, यह JNU की फितरत बिल्कुल भी नहीं है।
पढ़ने-लिखने की आज़ादी
हिंसा भारत की सभ्यता में गढ़ी हुई है। जातिवाद और पितृसत्ता हर एक दिन इतने लोगों को ज़ख्मी करती है और दर्द देती है कि हम उसकी कल्पना भी नहीं कर सकते हैं।
JNU में तीन महीनों से हिंसा हो रही है। ये हिंसा यहां के वीसी कर रहे हैं। फीस इतनी बढ़ा दी गई कि स्टूडेंट्स ने इसका विरोध किया। स्टूडेंट्स की चिंताओं को प्रशासन द्वारा नहीं सुने जाने पर वह लॉकडॉउन करने को मजबूर हुए। दिल्ली की रिकॉर्ड तोड़ शीत लहरी ठंड में स्टूडेंट्स अपने डिपार्टमेंट्स में डटे रहें, इस उम्मीद में कि यह प्रशासन बात करे और फीस हाईक के मनमाने फतवा को वापस लें।
लेकिन उन्हें मिले तो सिर्फ कंप्लेन लेटर्स और नोटिस कि वे विश्वविद्यालय का नाम और लॉ एंड ऑर्डर भ्रष्ट कर रहे हैं। और तो और हिंसा में घायल हुई छात्र नेता आइशी घोष और 14 अन्य लोगों के खिलाफ ही FIR दर्ज किया गया, अपराधी खुले घूम रहे हैं।
जब इंसान की बुनियादी ज़रूरतों पर हमला हो तो वे कैसे शांत रहें? सच क्या है- प्रोटेस्ट करने वाले स्टूडेंट्स पढ़ाई नहीं होने दे रहे हैं, या प्रशासन सभी को पढ़ने नहीं दे रहा है?
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इतना हंगामा क्यों करते हैं JNU वाले
JNU ऐसी ही हिंसा के खिलाफ हर दिन आवाज़ उठाता है, उन्नाव के रेप केस से लेकर गोरखपुर के अस्पताल में आवश्यक साधन ना होने से बच्चों की मौत तक। यहां तक कि मज़दूर और किसान, जिन्हें नेता बस वोट के समय याद करते हैं, JNU के स्टूडेंट्स हमेशा उनकी बात करते हैं।
JNU के स्टूडेंट्स को अन्याय इतना मचलता क्यों है? जर्मनी के हौलोकौस्ट के समय कॉन्सेंट्रेशन कैंप में कैद इस इस्राइली बाल मनोवैज्ञानिक और शिक्षक, हाइम गिनौट के वाक्य इसे समझाते हैं,
मेरी आंखों ने वो देखा, जिसे किसी इंसान को नहीं देखना चाहिए, गैस चेंबर्स जो ज्ञानी इंजीनियर्स द्वारा बनाए गए थे। बच्चों को ज़हर देते हुए शिक्षित फिजिशियंस, नवजात की हत्या करती प्रशिक्षित नर्स, महिलाएं और शिशुओं पर गोली चलाते स्कूल और कॉलेज के विद्यार्थी।, इसलिए, मैं शिक्षा पर संदेहजनक हूं।
मेरी ये गुज़ारिश है कि अपने बच्चों को इंसान बनने में सहायता करें। आपके प्रयास कभी भी ज्ञानी दरिंदे, कौषिल मनोरोगी या शिक्षित एइच्मं नहीं बनाना चाहिए। पढ़ना, लिखना और अकड़न ज़रूरी है, पर केवल तब ही जब ये हमारे बच्चों को ज़्यादा मानवीय बनाए।
JNU के विद्यार्थी सिर्फ विज्ञान और अर्थशास्त्र के फॉर्मूले और थियोरी के रट्टे नहीं लगाते हैं, वे उत्तेजित होते हैं कि आखिर इतनी असमानता है क्यों? इस चीज़ का वे शिक्षा से मुकाबला करते हैं। वे प्रश्न उठाते हैं, बात करते हैं, विवाद करते हैं, लेकिन मार पीटकर हिंसा कभी नहीं करते। हां, वे हिंसा के शिकार ज़रूर होते हैं।
JNU ऐसा साहस रखता है, जो संसद के MP, MLA तक के पास नहीं है, जिन्हें X से लेकर Z सिक्युरिटी मिलती है। JNU के पास क्या सिक्युरिटी है? कुछ भी नहीं। कैंपस में सुरक्षाकर्मियों की संख्या कम कर दी गई है। प्रशासन को डफली के धुन पर नारा लगाते स्टूडेंट्स खतरा लगते हैं। स्टूडेंट्स के पास ऐसे हखियार हैं, जिसकी बारूद कभी खत्म नहीं होगी, वे हथियार हैं- ज्ञान, विवेक और सच्चाई।
स्टूडेंट्स की आवाज़ को दबाने की चाल
उनकी सच्चाई में इतनी ताकत थी कि इसने पूरी सियासत को जड़ों तक हिला दिया। स्टूडेंट्स का कहना है कि जब हमला हुआ, पुलिस कैंपस के अंदर तैनात थी लेकिन उन्होंने गुंडों को हिंसा करने से नहीं रोका।
वहीं, भारी पुलिस दरवाज़ों पर भी थी, जो किसी भी मीडिया या एम्बुलेंस को मदद के लिए अंदर नहीं जाने दे रही थी। पुलिस वीसी की इजाज़त नहीं मिलने का हवाला दे रही थी पर जब ऐसी बर्बरता हो रही थी, तो JNU में नई तैनात सिक्युरिटी साइक्लोप्स (सुरक्षा चक्र) कहां थी?
स्टूडेंट्स बताते हैं कि नई कंपनी के साथ सिक्युरिटी गार्डस की संख्या भी बहुत कम कर दी गई थी। कम संख्या में सिक्युरिटी गार्डस दोगुना काम कर रहे थे। स्टूडेंट्स का डर था कि कम सिक्युरिटी का हवाला देकर डिपार्टमेंट्स, लाइब्रेरी, ढाबा और हॉस्टल्स में आने जाने और आज़ाद घूमने पर पाबंदी लगाई जाएगी।
स्टूडेंट्स ने इसका भी विरोध किया कि साइक्लोप्स से पूर्व सिक्युरिटी कंपनी, जी फोर्स के सिक्युरिटी कर्मचारियों को कुछ ही दिनों के नोटिस पर बरखास्त कर दिया गया था। उनका कसूर- वे यूनियन बनाते और जीविका वेतन की मांग करते थे।
मामला साफ नज़र आ रहा है कि यह सोचा-समझा प्लान किया हुआ हमला था। लोगों को JNU में हमले के लिए बाहर से भेजा गया था। 3 महीने पहले जब JNU वीसी ने फीस बढ़ाई, तो पूरा JNU इसके विरोध में खड़ा हो गया।
बात सिर्फ 500 या 5000 रुपए की नहीं है। बात है शिक्षा के कीमत की। JNU मानता है कि शिक्षा की कीमत नहीं क्योंकि शिक्षा कोई सामान नहीं, जिसे खरीदा या बेचा जा सकता है। यह एक जन्मसिद्ध अधिकार है, जिसे हर एक व्यक्ति को मिलना चाहिए।
3 महीने से यहां के विद्यार्थी स्कूल लॉकडाउन में हैं। सारे डिपार्टमेंट्स के बिल्डिंगों के दरवाज़ों को बंद किया गया था। क्यों? ताकि शिक्षा का दरवाज़ा सबके लिए खुला रहे। अगर आप इन प्रोटेस्ट्स के स्थानों में जाएंगे तो आपको लाठी हथियार नहीं मिलेंगे। पर आप यहां शोर सुनेंगे, विचारों का, किताबों का, सामाजिक बुद्धिजीवियों का, आज़ादी के गीतों का और किसान मज़दूरों के संघर्षों का।
कौन है हिंसा के लिए ज़िम्मेदार?
पिछले एक महीने में विश्वविद्यालयों में जैसे हमले हुए हैं, उससे सरकार इसकी सीधी जवाबदेही में आती है। जामिया और BHU में पुलिस द्वारा हिंसा साफ है। हिंसा का विरोध करने पर हॉस्टल्स और लाइब्रेरी में पुलिस ने स्टूडेंट्स में खौफ का माहौल बना दिया है। JNU में भी पुलिस ने घुसपैठी ABVP के लोगों को हिंसा करने के लिए सहायता दी। कैंपस के अंदर पुलिस होने के बाद भी कैंपस में आतंक फैला रहे गुंडों को नहीं रोका।
JNU स्टूडेंट यूनियन 3 महीनों से संघर्ष कर रहा है लेकिन आज तक कोई भी हिंसा की खबर नहीं आई है। जब इनके संघर्ष को प्रशासन तोड़ नहीं पाई तो उन्हें चुप करने के लिए हिंसा का रास्ता अपनाया गया। JNU वीसी कहते हैं कि वे प्रोटेस्ट कर रहे स्टूडेंट्स की बात ही नहीं सुनते। उन्हें बस नज़रअंदाज कर देना उनका उपाय है। स्टूडेंट्स से तो बात नहीं करते लेकिन सोशल मीडिया पर स्टूडेंट्स के खिलाफ ज़रूर बात करते हैं।
जेएनयू के वीसी का ट्वीट। https://twitter.com/mamidala90/status/1214067160420536320?s=20
ये किस प्रकार के वीसी हैं? उनकी विचारधारा किसी शासक से कम नहीं है, जिनके लिए उन्हें नियुक्त किया गया है उनकी ही भावनाओं और ज़रूरतों को नहीं समझते, जिनके लिए उन्हें काम करना है, उन्हें ही प्रताड़ित कर रहे हैं।
इस हिंसा से मालूम होता है कि सरकार और सत्ता में बैठे लोगों के खिलाफ जब स्टूडेंट्स आवाज़ उठाते हैं, तो वह कितना डर जाते हैं। JNU भारतीय लोकतंत्र का अगुवा रहा है और अब ये दूसरे विश्वविद्यालयों में भी फैल रहा है।
इस आवाज़ को जितना दबाया जाएगा, ये उतना ही शोर मचाएगी। एक भी ज़ुबान छीनी गई, तो दस साथ में बोलेंगे। देश में अर्थव्यवस्था, सामाजिक एकता और लोकतांत्रिक आज़ादी, सब मिटाया जा रहा है। अगर अब नहीं बोलेंगे तो बहुत देर हो जाएगी। अगर आज इस हिंसा के असली अपराधी को दोषी नहीं ठहराया गया, तो कल ना बोलने की आज़ादी होगी, ना पढ़ने की, ना ही खुले सड़क में आज़ाद घूमने की।
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लेखिका के बारे में- दीप्ती मेरी मिंज (Deepti Mary Minj) ने JNU से डेवलपमेंट एंड लेबर स्टडीज़ में ग्रैजुएशन किया है। आदिवासी, महिला, डेवलपमेंट और राज्य नीतियों जैसे विषयों पर यह शोध और काम रही हैं। अपने खाली समय में यह Apocalypto और Gods Must be Crazy जैसी फिल्मों को देखना पसंद करती हैं। फिलहाल यह जयपाल सिंह मुंडा को पढ़ रही हैं।)