स्कूल की बातें याद करता हूं, तो गणतंत्र मतलब सेब-बुंदिया ही समझ आता है, वो भी प्लेट भर-भरकर लेना और सरस्वती पूजा का इंतज़ार करना। ताकि फिर से सिर्फ सेब- बुंदिया ही नहीं, बल्कि मिश्रीकंद, गाजर, पूरी और सब्ज़ी सब कुछ।
इन सबके बीच रट्टा मारकर अगर मंच पर चढ़कर भाषण दे दिया, फिर तो दोस्तों के सामने अगले गणतंत्र दिवस तक कॉलर ऊंची। गणतंत्र दिवस के रोज़ गाने भी ऐसे ही बजते थे, “मेरे देश की धरती सोना उगले, उगले हीरे मोती।” उसी वक्त से ही दिमाग में बैठ गया था हीरा, मोती, सोना, चांदी जैसी तमाम चीज़ें धरती के अंदर से ही निकलती हैं।
घर से स्कूल आते वक्त दृश्य भी बहुत देशभक्ति वाला होता था। गरीबों का ब्याज़ खाने वाला और उनकी चीज़ें गिरवी रखने वाला बनिया भी चमकदार कुर्ता, जेब में गुलाब फूल और हाथ में तिरंगा लिए गुज़रता था। रिश्वत लेने वाला पुलिस भी देशभक्ति की धुन में सराबोर होता था।
आज लगभग ढाई दशक बाद जब वह दिन याद आता है, तो यही लगता है कि गणतंत्र मतलब जितना हो सके देशभक्ति साबित करो। अपनी छत के ऊपर झंडा फहरा दिया, फिर तो क्या ही कहने!
आज का गणतंत्र आधुनिक हो चुका है। इस आधुनिक होते गणतंत्र दिवस के रोज़ सरकारी बाबुओं द्वारा झूठ की नुमाइंदगी बड़े शान से पेश की जाती है।
झांकियों के ज़रिये सरकारी योजनाओं का झूठ दिखाना
“पुलिस लाइन मैदान” है हमारे शहर में एक, जहां गणतंत्र दिवस के रोज़ झूठ की खेती होती है और वो भी ट्रकों में लादकर साज-सज्जा के साथ। अब झांकी तो ट्रकों के ज़रिये ही दिखाई जाती है ना!
देश का दुर्भाग्य और सरकारी योजनाओं की विफलता दोनों ही पुलिस लाइन के उस मैदान से दिखती थी। “मनरेगा योजना”, जिसके बारे में माननीय चौकीदार जी यह तक कह चुके हैं कि मनरेगा बंद नहीं होगा, क्योंकि यह काँग्रेस की विफलताओं का स्मारक है।”
इस योजना की विफलताओं को ट्रक में लादकर सफल दिखाने की पुरज़ोर कोशिश की जाती रही है। ट्रक में आकृतियों के माध्यम से यह दिखाया जाना कि मनरेगा के तहत मज़दूरों को 100 दिन का रोज़गार मिल रहा है। जब झांकी उस बैरिकेटर पर आई, जहां मैं खड़ा था, बगल वाला मज़दूर बोल उठा, “साला काम तो मिलता नहीं, इ का है?”
मतलब दुर्दशा देखिए कि सरकारी योजनाएं लोगों तक पहुंच नहीं रही हैं और केवल झूठ को ट्रक में लादकर बारी-बारी से लोगों को दिखाया जा रहा है।
मनरेगा के बाद स्वास्थ्य विभाग की ओर से ट्रक आई, जिसमें ये दावे किए जा रहे थे कि सरकारी अस्पतालों में HIV को लेकर सारी सुविधाएं दुरुस्त हैं मगर मेरे एक मित्र को HIV टेस्ट के दौरान पूछा गया था, “तुमलोग कितना सेक्स करते हो बे?”
शौचालयों के नाम पर झूठ की खेती
अब बारी आई स्वच्छ भारत मिशन के तहत बनवाए गए शौचालयों की सफलताओं पर बात करने की। ड्राइवर झपकियां मार रहा था, क्योंकि जिस तरह से बगैर शौचालय बने ही शहरों, गाँवों, और प्रखंडों को ODF घोषित कर दिया जाता है, वैसे ही झूठ दिखाने के लिए अंतिम समय में मज़दूरों को रात रातभर जगाकर झांकियां बनवाई जाती हैं।
इस दौरान नारे भी लग रहे थे कि मोदी है तो मुमकिन है फिर क्या था माहौल और भी देशभक्ति वाला हो गया, क्योंकि हमारे देश में कुछ एक लोग अपने आपमें देश मान लिए गए हैं।
मतलब हद है, एक शौचालय बनवाने के लिए सरकार 12,000 रुपए देती है, जिनमें से मुखिया 500 से 1000 खा लेता है, सरकार द्वारा शौचालय की फोटो खींचने के लिए भेजा गया व्यक्ति जल सहिया को हड़काकर 100-500 खा लेता है, ग्रामीण विकास कार्यालय के कुछ कॉन्ट्रैक्ट वाले कर्मचारियों का कमीशन अलग से फिक्स रहता है।
अब 12,000 में से सर्वाधिक पैसे तो दान-पुण्य में ही चले गए। ऐसे में जो शौचालय बन गए, वे या तो बारिश में खराब हो गए या उनमें कूड़ा-कड़कट भरकर रख दिया गया लेकिन चौड़े होकर गणतंत्र दिवस के रोज़ हमें दिखाना है कि सरकारी योजनाओं में सब कुछ ठीक है, क्योंकि देशभक्ति में सब जायज़ है।
अब सवाल यह है कि गणतंत्र दिवस की सार्थकता को मैं कैसे देखता हूं? तो सुन लीजिए..एक ऐसा देश, जहां सरकारी योजनाओं के नाम पर झूठ ना परोसा जाए, जहां मनरेगा जैसी योजनाओं का ढोल पीटने के लिए झांकी बनाने वाले मज़दूरों को रातभर जगाकर झूठ ना पेश की जाए, जहां HIV टेस्ट के नाम पर यह ना कहा जाए कि कितना सेक्स करते हो बे?
मगर क्या करें, यही तो देश का दुर्भाग्य है। कुछ ही रोज़ में बजट पेश किया जाएगा और योजनाओं के नाम पर लूट होगी। हम देशभक्ति के नाम पर सब कुछ जस्टिफाई करते रहेंगे। गणतंत्र दिवस में पूरी भी खाएंगे, बुंदिया भी खाएंगे और झूठ देखने-सुनने के लिए अलग-अलग जगहों पर झांकी यात्रा में भी शामिल होंगे।