त्रिपुरा के देब बर्मा आदिवासियों के लिए मकर संक्रांति एक तीर्थ की तरह होता है। इस समुदाय के आदिवासी मकर संक्रांति के दिन खेतों पर धान को काटकर बंबू से घर बनाते हैं। इस घर को ‘मेरा’ कहा जाता है।
गॉंव के बच्चे और युवा मकर सक्रांति की पहले वाली रात को इस घर में खाना पकाते हैं और नाच-गाने के साथ उस घर में रात बिताते हैं। इस ‘मेरा’ घर पर रात बिताने वाले बच्चे और युवा सुबह पशु-पक्षी उठने से पहले नहा-धो लेते हैं और उसके बाद मेरा घर को जलाकर घर वापिस चले जाते हैं।
देब बर्मा समुदाय का मानना है कि जो व्यक्ति मकर संक्रांति के दिन पशु-पक्षी उठने से पहले नहा-धो लेता है, वह इंसान पाप-मुक्त हो जाता है।
बड़ों का आर्शीवाद लेने की परंपरा
सुबह ‘मेरा’ घर को जलाकर बच्चे और युवा जब घर जाते हैं, तब वे गॉंव के सभी बड़े लोगों का आशीर्वाद लेते हैं। उस दिन सभी बड़े लोगों को भगवान की तरह अगरबत्ती जलाकर प्रणाम करते हैं। गॉंव में रहने वाले सब लोगों के घर जाकर बच्चे और जवान बड़ों का आशीर्वाद लेते हैं।
एक जगह इकट्ठा होकर मिलजुल खाते हैं पकवान
सुबह 5:00 बजे उठकर सब लोग अपने-अपने घरों में तरह-तरह के पकवान बनाते हैं। खाना बनाने के बाद गॉंव के मुखिया या गाँव के सबसे बुज़ुर्ग व्यक्ति के घर से एक व्यक्ति सबको उनके घर में इकट्ठा होने का निमंत्रण देते हैं। सबके घर का काम खत्म होने के बाद लोग नहा-धोकर अपने घर से थोड़ा-थोड़ा पकवान मुखिया के घर लेकर जाते हैं, वहां पर जो भी बड़े लोग आते हैं, उनसे आशीर्वाद लेते हैं और मिल-बांटकर सबके घर के लाए हुए पकवान खाते हैं।
यह सब पकवान खाने के बाद गॉंव के बुज़ुर्ग लोग देसी दारू पीते हैं। यहां दारू पीना स्वाभाविक और साधारण बात है। कहा जाता है कि बड़ों को दारू पिलाना मतलब सम्मान देने जैसा होता है।
मकर संक्रांति को अस्थियां विर्सजित करने की परंपरा
मकर संक्रांति त्रिपुरा के आदिवासीयों के लिए ऐसा त्यौहार है, जो गॉंव के सभी लोगों को एक साथ मिल-जुलकर रखने में सहायता करता है। मकर संक्रांति के दिन जिसके घर पर अस्थियां होती हैं, वे लोग इस मकर संक्रांति के दिन अस्थियों का विसर्जन करते हैं, चाहे वह कुछ महीनों से रखी हुई अस्थियां ही क्यों ना हो।
जब तक मकर संक्रांति नहीं आती है, तब तक अस्थियों को घर के बाहर एक छोटा सा घर बनाकर रखा जाता है। जब संक्रांति आए, उस दिन उन अस्थियों की पूजा करके उनका विसर्जन किया जाता है।
मकर संक्रांति के दिन को यहां के आदिवासी बहुत शुभ दिन मानते हैं, जैसे गंगा नदी को अस्थि-विसर्जन के लिए पवित्र माना जाता है, वैसे ही यहां संक्रांति के दिन को अस्थि-विसर्जन के लिए शुभ माना जाता है।
कहने को तो त्रिपुरा राज्य बहुत छोटा है लेकिन यहां के आदिवासी हर त्यौहार का मन और लगन से पालन करते हैं। इस राज्य में लोग हिंदू हो, मुस्लिम हो या क्रिश्चियन, सब लोग सभी धर्मों का सम्मान करते हैं और हर त्यौहार का सब लोग मिलकर आनंद लेते हैं।
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लेखिका के बारे में- बिंदिया देब बर्मा त्रिपुरा की निवासी है। वह अभी BA के छट्ठे सेमेस्टेर में है। वह खाना बनाना और घूमना पसंद करती है और आगे जाकर प्रोफेसर बनना चाहती है।