किसी भी महिला के लिए देश में एकता और अखंडता का मतलब क्या है? इस सवाल का प्रैक्टिकल जवाब चाहिए तो जामिया मिल्लिया इस्ला+मिया से सटे शाहीन बाग इलाके में आइए, जहां महिलाएं लगातार नागरिकता संशोधन कानून (CAA) के खिलाफ प्रदर्शन करके उस प्रश्न का जवाब दे रही हैं, जिसे आरम्भ में पूछा गया।
शाहीन बाग की इन जुझारु महिलाओं द्वारा बुलंद की गई आवाज़ से प्रेरणा लेकर देश के कई दूसरे भागों में भी महिलाओं का प्रदर्शन शुरू हो चुका है। यही नहीं, इस प्रदर्शन के प्रति अपना समर्थन जताने के लिए समाज के विभिन्न तबकों से लोग जमा हो रहे हैं, जो अपना प्रतिरोध भी शाहीन बाग इलाके की औरतों के साथ दर्ज़ करा रहे हैं।
इन महिलाओं का आंदोलन एक तबके को हजम नहीं हो रहा है
महिलाओं का इस तरह से अचानक बाहर निकलकर नागरिकता संशोधन कानून के खिलाफ प्रदर्शन करके पितृसत्तामक समाज को भी चौंका रहा है। इस प्रदर्शन में वे महिलाएं भी शामिल हैं, जिन्हें पर्दा और घूंघट की बेड़ियों में जकड़ी हुई महिला की संज्ञा दी जाती रही है। ऐसे में यह कहना गलत नहीं होगा कि पितृसत्तात्मक समाज को चुनौती देने वाली महिलाओं का आंदोलन वाकई में सुखद है।
घर-आगंन में कैद महिलाओं का अचानक मुखर हो जाना एक तबके को हजम नहीं हो रहा है। उस तबके द्वारा कभी हो रही ट्रैफिक की दिक्कतों का हवाला दिया जा रहा है, तो कभी इस प्रदर्शन को विपक्ष द्वारा प्रायोजित बताकर आरोप लगया जा रहा है कि महिलाओं को पैसे देकर बुलाया गया है।
नागरिकता को लेकर जब भी महिलाओं की चर्चा होती है, तो ‘वर्जिनिया वुल्फ’ का ज़िक्र आता है। एक महिला, जिसे शिक्षा से लेकर संपत्ति का अधिकार नहीं मिलने पर उन्होंने कहा था,
एक औरत के रूप में मेरा अपना कोई देश नहीं है, एक औरत के रूप में मैं अपना कोई देश चाहती भी नहीं हूं, क्योंकि एक औरत के रूप में पूरा विश्व ही मेरा देश है।
अधिकांश नारीवादी लेखन में पुरुषों और महिलाओं को नागरिकता हासिल करने के इतिहास की व्याख्या करने के लिए “घर और बाहर” के दायरे की थीसिस का सहारा लिया गया, जिसमें दावा किया गया कि जेंडर के आधार पर स्थान को संगठित किया जाए और इसी आधार पर सामाजिक भूमिकाएं भी तय हुईं।
यही कारण है कि महिलाओं की पुरुषों पर आत्मनिर्भरता बढ़ती चली गई। हालांकि इसकी सार्वभौमिकता को लेकर कोई मज़बूत आधार देखने को नहीं मिलती है। यही कारण है कि महिलाओं की सामाजिकता में कमी आई होगी, इससे इंकार नहीं किया जा सकता है।
असल में राष्ट्र, राष्ट्रवाद और नागरिकता जैसे सवालों पर ज़्यादातर पुरुष ही बातें करते हैं, वह भी पुरुषों के ही संदर्भ में। उनके बीच स्त्रियों की नागरिकता से जुड़े सवालों पर ज़्यादातर चुप्पी ही बनी रहती है।
शाहीन बाग की महिलाओं से लेकर उनके जैसी तमाम औरतें संशोधित नागरिकता कानून और एनआरसी की मुखालफत मुखर होकर कर रही हैं। उन्होंने ना केवल ‘वर्जिनिया वुल्फ’ को एक दायरे में कैद कर दिया, बल्कि राष्ट्र, राष्ट्रवाद और नागरिकता के सवाल को स्त्री-पक्ष से पुर्नपरिभाषित करने का प्रयास किया।
‘नागरिकता के स्त्री-पक्ष’ पुस्तक में क्या है?
अब तक भारतीय नागरिकता का विमर्श औपनिवेशिक राज्य की दास्तां से मुक्ति, समानता और आत्म-निर्णय लेने के लोकतांत्रिक अधिकारों से बंधा हुआ रहा है। नागरिकता के उतार-चढ़ाव और संकरे रास्तों में समतामूलक समाज को अंतर स्पष्ट करते हुए महिलाओं की नागरिकता को शामिल किया भी गया और उससे बाहर भी रखा गया।
बहरहाल, “नागरिकता के स्त्री-पक्ष” किताब में लेखिका अनुपमा राय ने भारत और बाकी दुनिया में महिलाओं के राजनीतिक अधिकार हासिल करने से जुड़ी लड़ाईयों से रुबरु कराया है। किताब में उपनिवेशवाद के दौर से भारत में पनपे राष्ट्रवाद और पूंजीवाद के उत्थान तक के समय में महिला नागरिकता के प्रश्न पर घर-परिवार और राजनीतिक-सामाजिक चुप्पी को टटोला गया।
शाहीन बाग में हो रहे प्रदर्शन की सबसे बड़ी खासियत क्या है?
भारत के वर्तमान राजनीतिक दौर में राष्ट्र, राष्ट्रवाद और नागरिकता के सवाल पुन: परिभाषित हो रहे हैं। महिलाएं अपनी नागरिकता के लिए संगठित होकर मुखालफत करने लगेंगी, इसका अनुमान ना ही किसी समाजशास्त्री ने किया था और ना ही सरकारी हुक्मरानों ने। शाहीन बाग में हो रहे प्रदर्शन की सबसे बड़ी खासियत यह है कि इसका कोई नेता नहीं है और ना ही किसी सियासी दल की इसमें दखल है।
दुर्गा का रूप धारण कर चुकीं ये औरतें खुद इन प्रदर्शनों का नेतृत्व कर रही हैं। यही नहीं, विरोध की इस आवाज़ में अपनी पहचान भी बना रही हैं। अगर यह कहा जाए कि ये सभी स्वयं अपने प्रतिनिधित्व की मिसाल बन रही हैं, तो गलत नहीं होगा। शायद ही किसी को यह उम्मीद रही हो कि कमज़ोर कही जाने वाली औरतें एक दिन ऐसा विरोध प्रदर्शन करेंगी, जो ऐतिहासिक बनकर महिलाओं की नुमाइंदगी करने लगेंगी।
भले ही महिलाओं द्वारा की जा रही इस मुखालफत का कोई चेहरा या प्रतिनिधि ना हो, मगर भारतीय महिलाओं का नागरिकता के सवाल पर जाति, वर्ग, धर्म और तमाम भाषाई विविधताओं को पीछे छोड़कर संगठित होना, एक साथ कई सवालों को बहस में लाकर छोड़ देता है।
मसलन, मुख्य सवाल तो यह बनता ही है कि क्यों भारत जैसे राष्ट्र में अमूमन महिलाओं को ही राष्ट्र का प्रतीकात्मक धारक माना गया है? राष्ट्रीय एजेंसी या नागरिकता से जेंडर के किसी सीधे सम्बन्ध को क्यों नाकारा गया है? राष्ट्रीय परिकल्पना के जेंडर आधारित होने के बाद भी इस संदर्भ में सीमित जानकारी क्यों है?
इन सवालों का पुर्वलोकन समाजशात्रियों, अकादमिकों और नारीवादियों को खोजना होगा। हक और इंसाफ के वंचना में महिलाओं का संघर्ष निरंतर चलता रहता है। वे निरंतर संघर्ष की स्थिति में रहकर अपने लिए एक नई ज़मीन की तलाश कर लेती हैं, जिसे स्त्री संघर्ष के इतिहास की मान्यता मिलती है। जो हमारे आस-पास और घर-बाहर के दायरे में घट तो रहा होता है मगर हम उनसे अनजान रहते हैं।