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“विचारधाराओं के टकराव में ‘छपाक’ का संदेश छिप रहा है”

अभिनेत्री दीपिका पादुकोण की फिल्म ‘छपाक’ इन दिनों खासी चर्चा में है। एक संवेदनशील विषय पर बनी फिल्म का चर्चा में आना यूं तो स्वाभाविक है ही, परंतु यह विषय के अलावा राजनैतिक कारणों से भी चर्चा बटोर रही है।

दीपिका का जेएनयू जाना लोगों को पसंद नहीं आया

JNU प्रोटेस्ट में शामिल हुई दीपिका पादुकोण, फोटो साभार – सोशल मीडिया

दरअसल, बीते दिनों देश के प्रतिष्ठित विश्वविद्यालय जेएनयू में हॉस्टलों में कुछ नकाबपोशों द्वारा की गई गुंडागर्दी के विरोध में देश-विदेश के विद्यार्थी सड़कों पर हैं।

इन्हीं विद्यार्थियों के एक गुट, वामपंथी विद्यार्थियों के समर्थन में दीपिका का जेएनयू जाना, प्रतिद्वंदी दक्षिणपंथी समूह को रास नहीं आया और यही कारण है कि दक्षिणपंथी संगठन दीपिका की इस फिल्म का पुरज़ोर विरोध कर रहे हैं तथा लोगों से फिल्म के ‘बॉयकॉट’ की अपील कर रहे हैं।

वहीं वामपंथी संगठनों ने भी फिल्म के समर्थन में अपनी मुहिम शुरू कर दी है। इसी बीच सोशल मीडिया पर फैली एक अफवाह; जिसमें यह दावा किया जा रहा था कि सर्वाइवर लक्ष्मी अग्रवाल पर तेज़ाब फेंकने वाला अभियुक्त ‘नईम’ का नाम फिल्म में ‘राजेश’ कर दिया गया है। इस बात पर काफी हल्ला भी मचा हुआ है।

इसी बीच यह बात भी सामने आई है कि फिल्म में अभियुक्त का धर्म नहीं बदला गया है, अपितु उसका नाम ‘नदीम’ रखा गया है। दक्षिणपंथी संगठन यह आरोप लगा रहे हैं कि उनके विरोध को देखते हुए भारी दबाव में ऐन वक्त पर ‘राजेश’ को ‘नदीम’ कर दिया गया है।

फिल्म छपाक का दृश्य, फोटो साभार- Youtube

एसिड अटैक सर्वाइवर की कहानी है छपाक

विवादों से परे अगर हम फिल्म के मूल कथानक पर बात करें तो यह फिल्म तेज़ाब हमले की सर्वाइवर हुईंं लक्ष्मी अग्रवाल के अनथक संघर्ष और उनकी उत्कट जीजीविषा पर केंद्रित है।

यह अत्यंत दुर्भाग्य की बात है कि हमारे देश में महिलाओं को एक बड़ा तबका आज भी महज़ उपभोग की वस्तु समझता है और यही कारण है कि महिलाओं का उनकी बराबरी में खड़ा होना, उन्हें एकदम रास नहीं आता।

यही मानसिक विकृति महिलाओं पर होने वाले ज़ुल्म का मुख्य कारण है। मन की कुत्सित इच्छाओं के पूरा नहीं होने पर दिमाग में गंदगी भरे लोग महिलाओं से ‘बदला’ लेना शुरू कर देते हैं। महिलाओं को डराया-धमकाया जाता है, उनके साथ छेड़खानी होती है, उनके साथ बलात्कार किया जाता है, उन पर सरेआम तेजाब फेंक दिया जाता है या फिर उन्हें जलाकर मार दिया जाता है।

‘छपाक’ के संदेश को समझना हम सबकी ज़िम्मेदारी है

फिल्म छपाक का दृश्य, फोटो साभार- Youtube

हर रोज़ ऐसे सैकड़ों मामले देश में सामने आते हैं और महिलाओं पर ज़ुल्म लगातार बढ़ता रहता है। वाम और दक्षिण की लड़ाई से परे फिल्म ‘छपाक’ का संदेश बहुत ही मार्मिक है।

हम किसी भी धड़े के हों, चाहें फिल्म देखें या न देखें लेकिन इस फिल्म के संदेश को समझना, उसे महसूस करना और समाज में जागरूकता फैलाना हमारी प्रमुख ज़िम्मेदारी है। दुखद यह है कि वामपंथ और दक्षिणपंथ के विचारधाराओं की टकराहट में ‘छपाक’ का संदेश छिप रहा है। वामपंथी जहां सोशल मीडिया पर फिल्म की टिकटें साझा कर खूब खुश हो रहे हैं, वहीं दक्षिणपंथी ‘बॉयकॉट’ का नारा लगाने में मगन हैं।

हम फिल्म देखें या ना देखें, लेकिन वास्तव में इन तेज़ाबी हमलों के सरवाइवर्स के प्रति अगर हम संवेदनशील हैं, तो हमें अपने गाँव/शहर की ऐसी सरवाइवर्स की खोज करनी होगी।

अगर अपने रुपये आप फिल्म की टिकटों पर नहीं व्यय करना चाहते तो ना सही लेकिन उठिए, अपने घरों से बाहर निकलिए, अपने गाँव और शहर में जु़ल्म से लड़ती सरवाइवर्स की पहचान करिए। अपने रुपयों से इन सरवाइवर्स की मदद कीजिए, उनके लिए कार्यरत स्वयंसेवी संस्थाओं की आर्थिक मदद कीजिए।

सिर्फ फिल्म को ही नहीं अपनी ज़िम्मेदारी को भी समझें

सिर्फ सिनेमा हॉल में दो घंटे बिताना पर्याप्त नहीं है। अपने पास के बाज़ार और चौक पर भ्रमण के लिए निकलिए और पता करिए कि

उससे हाथ जोड़कर प्रार्थना करिए कि वह हर संभव कोशिश करे कि यह तेज़ाब गलत लोगों के हाथों में ना पहुंच पाए और अगर कोई चोरी- छिपे तेज़ाब की खरीद-बिक्री कर रहा है, तो एक ज़िम्मेदार नागरिक होने के नाते तुरंत पुलिस को सूचित करिए। आखिरकार हमें एक महिला ने ही जन्म दिया है।

फिल्म छपाक का दृश्य, फोटो साभार- Youtube

दरअसल, व्यवसायिकता के इस दौर में अधिकारों की गूंज के आगे हम अपने कर्तव्यों को भूल चुके हैं। हमें सरकार से सुधार की उम्मीद तो करनी ही चाहिए लेकिन उससे पहले यह हमारी ज़िम्मेदारी है कि हम स्वयं आगे बढ़कर पहल करें। बुराइयों को फैलने से रोकें। अपनी ज़िम्मेदारी को निभाएं।

संवेदनशील मुद्दों पर राजनीति समाज के मर चुके चरित्र को उजागर करती है। हम फिल्म देखें या न देखें, सहमति या असहमति के फेर में पड़े बिना हमें यह दिखाना होगा कि अभी हम मरे नहीं हैं। हम ज़िंदा हैं और स्वयं ही सक्षम हैं इन तेज़ाबी हमलों से अपनी माँ, बहन, बेटी, बहु और हर उस महिला को बचाने में। यही एक ज़िम्मेदार नागरिक की पहचान है और समाज की जीवंत संवेदनशीलता का उद्घोष भी।

 

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