अनुभव सिंहा की ‘मुल्क’ देश को मेल व भाईचारे के नज़रिए से समझने वाली ज़रूरी फ़िल्म है। हाल के बरसों में ऐसी फिल्में कम ही बनी हैं। फिल्म का टाइटल अपने आप में बड़ा संदेश है।
फिल्म बड़ी शिद्दत से कह गई कि कोई भी देश कागज़ के नक्शों पर रेखाएं खींचने से नहीं बंटता है, बल्कि लोगों की मानसिकता से बंटता है। यह हम-वतनों को बांटने वाली मानसिकता पर सवाल खड़ा करती है। फिल्म भरोसे व आत्मविश्वास से अपनी बात कहती है।
कोई मुसलमान अपनी देशभक्ति प्रमाणित कैसे करे?
‘मुल्क’ पूरे आत्मविश्वास के साथ कहती है कि कोई मुसलमान अपनी देशभक्ति प्रमाणित कैसे करे? क्यों करे? वह स्वयं पर चस्पां कर दिए गए आतंकवादी कौम के चक्रव्यूह को तोड़ने के लिए क्या करे? इस्लामोफोबिया की गलत राजनीति को तोड़ने के लिए क्या करे? क्या करे कि सरकार और पड़ोसियों को लगे कि वह भी एक सच्चा भारतीय है? अनुभव सिंहा इन सवालों से निर्भीक होकर टकराते हैं।
बनारस की कहानी है ‘मुल्क’
‘मुल्क’ बनारस की एक कहानी लेकर बढ़ती है। एक मोहल्ला जिसमें हिंदू और मुसलमान मिलकर रहते हैं। आपसी भाईचारे में राजनीतिक नारा सेंध लगाता है। वह दुष्प्रचार करता है कि हिंदू और मुसलमान एक नहीं हैं। हिंदू और मुसलमान अलग-अलग कौम हैं।
हिन्दुस्तान सिर्फ और सिर्फ हिंदुओं का है और मुसलमानों को पाकिस्तान चले जाना चाहिए। कहानी में जब एक नौजवान आतंकवादी बन जाता है, तो उसकी दीवार पर रात के अंधेरे में नारा लिख दिया जाता है कि पाकिस्तान जाओ। फिल्म सवाल करती है कि अगर वह नौजवान किसी दूसरी कौम का होता, तो क्या उसके साथ भी यही रवैया होता?
फिल्म सच्चे अर्थों में हिंदू होने का मतलब समझाने की कोशिश करती है। अपनी-अपनी धार्मिक मान्यताओं में आस्था रखते हुए एक-दूसरे के साथ मिलकर रहने की वकालत करती है।
अनुभव सिंहा की फिल्म यह भी बता रही कि छुआछूत और सामाजिक वैमनस्यता के तत्वों से फायदा उठाते हुए धार्मिक एजेंडे वाली राजनीतिक पार्टियों को राजनीति करने का अवसर मिल जाता है। बचपन से ही दिमागों में झूठे प्रपंच भरे गएं, गलत चीज़ें बताई गईं, जिसके चलते एक खास कौम को लोग अपना दुश्मन मान बैठे।
ना सिर्फ मुस्लिम भाइयों बल्कि दलितों को लेकर ऐसे विचार निर्मित किए जाते हैं। फिल्म बताती है कि समाज में गलतफहमी को हवा देना भी अक्षम्य अपराध है। वैमनस्य से कभी किसी समाज का भला नहीं हो सकता है।
मुल्क आज के हिंदुस्तान के समक्ष बारीक चुनौतियों का सामना करती है। समस्याओं को पहचान करके समाधान सुझाने का प्रयास करती है। हो सकता है कि इसकी कुछ बातों से आप सहमत ना हों, फिर भी सोच का एक नया नज़रिया उठाने में फिल्म सफल है। संभव हो कि कुछ भाइयों को शिकायत भी होगी किंतु फिल्म से गुज़रकर यह पता चल जाएगा कि कहानी अपना धर्म निभा जाती है। यह ‘मुल्क’ की तार्किक जीत है।
मुल्क’ एक तार्किक फिल्म है। तर्कों के बल पर वैचारिक बनती है। ऐसे तर्कों पर कैंची चलाना बहुत कठिन होगा। यह कतई भावुक नहीं इसलिए मज़बूत है। मुल्क हिंदू-मुसलमान के सामाजिक ताने-बाने को बड़े कायदे से बताती है।