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“हुकूमत की दलाली करने वाले पत्रकार शाहीनबाग का दर्द क्या ही समझेंगे”

शुरू करने से पहले हुकूमत के दलाल सुधीर चौधरी, दीपक चौरसिया, अमिश देवगन, रोहित सरदाना, अंजना ओम कश्यप, रुबिका लियाकत, सुरेश चाणक्य, रजत शर्मा जैसे पत्रकारों पर कुछ अनमोल पंक्तिया…

पत्रकार नहीं बनि‍या हैं
चार आने की धनि‍या हैं।
खबर लाएं बाज़ार से
करें वसूली प्‍यार से
पत्रकार नहीं, ये बनि‍या हैं।
चार आने की धनि‍या हैं।

करें दलाली भरकर जेब
जेब में इनकी सारे ऐब
दफ्तर पहुंचकर पकड़ें पैर
जय हो सुनकर होवैं शेर
पत्रकार नहीं ये बनि‍या हैं,
चार आने की धनि‍या हैं।

ब्लैकमेलिंग में फंसे सुधीर चौधरियों और फिक्सर पत्रकार दीपक चौरसियाओं से हमें पहले भी उम्मीद नहीं थी कि ये जनहित के लिए पत्रकारिता करेंगे। दुखद यह है कि पत्रकारिता की पूरी की पूरी नई पीढ़ी ने इन्हीं निगेटिव ट्रेंड्स को अपना सुपर आदर्श मान लिया है और ऐसा करने बनने की ओर तेज़ी से अग्रसर हैं।

एक दलालों की मीडिया और एक गरीबों की मीडिया

यह खतरनाक ट्रेंड बता रहा है कि अब मीडिया में भी दो तरह की मीडिया है, एक दलाल, उर्फ पेड, उर्फ कॉर्पोरेट, उर्फ करप्ट मीडिया और दूसरा गरीब, उर्फ जनता का मीडिया।

यह जनता का मीडिया ही न्यू मीडिया और असली मीडिया है। जैसे सिनेमा के बड़े परदे के ज़रिए आप देश से महंगाई, भ्रष्टाचार खत्म नहीं कर सकते हैं, उसी तरह टीवी के छोटे परदे के ज़रिए अब आप किसी बदलाव या खुलासे या जन पत्रकारिता का स्वाद नहीं चख सकते हैं।

दैत्याकार अखबारों जो देश के सैकड़ों जगहों से एक साथ छपते हैं, उनसे भी आप पूंजी परस्ती से इतर किसी रीयल जर्नलिज़्म की उम्मीद नहीं कर सकते हैं, क्योंकि इनके बड़े हित, बड़े नेताओं और बड़े सत्ताधारियों से बंधे-बिंधे हैं।

सुधीर चौधरी और दीपक चौरसिया शाहीनबाग पहुंच गएं पर लोगों ने इनके प्रति अपनी नफरत को दिखा दिया। जब तक ऐसे ही हुकूमत के दलाल बने रहेंगे, तब तब जनता ही इनको अपने से दूर करती रहेगी। ऐसे खतरनाक और मुश्किल दौर में न्यू मीडिया की ज़िम्मेदारी बढ़ जाती है।

इस तरह के कुछ और पत्रकारों की खूबियों को जानें

व्यावसायिकता की आड़ में भारतीय मीडिया का स्वरूप एक ना एक दिन बदलना तो तय था लेकिन इस तरीके से मीडिया का परिवर्तन होगा इसकी कल्पना किसी ने नहीं की थी। मीडिया के संदर्भ में चाहे न्यूज़ चैनलों की बात हो या अखबारों का ज़िक्र हो, दोनों ही एक नीति के तहत काम कर रहे हैं, जिनमें जनहित कहीं नहीं है। इन चीज़ों की वजह से लोगों का विश्वास कुछ न्यूज़ चैनलों और पत्रकारों से उठता जा रहा है।

इस दौर में कुछ न्यूज़ चैनलों के एंकर व संपादक खबरों का विश्लेषण और समीक्षा ना करके उन्हें गलत तरीके से पेश करते हैं। इस सूची में रिपब्लिक टीवी के संपादक अर्णव गोस्वामी सबसे शीर्ष पर चल रहे हैं। वहीं, दूसरे नंबर पर न्यूज़ 18 के अमिश देवगन हैं, जबकि तीसरे नंबर पर आज तक के रोहित सरदाना हैं।

अर्णव गोस्वामी की बहस में भाजपा का समर्थन

अर्णव गोस्वामी की बहस में शामिल होने वाले अतिथियों के साथ बेहूदगी पूर्ण व्यवहार किया जाता है। खासकर उन लोगों पर टारगेट किया जाता है जो बीजेपी के अलावा किसी अन्य पार्टी से हों। डिबेट में TRP के लिए चिल्ला-चिल्लाकर विपक्ष पर आरोप और झूठी खबरों का अंबार लगाया जाता है।

अर्णव गोस्वामी को बीजेपी की नाकामियां नहीं दिखती हैं, क्योंकि उनके पापा मनोरंजन गोस्वामी भाजपा के बड़े नेता हैं। वह साल 1998 में बीजेपी से लोकसभा चुनाव भी लड़ चुके हैं। गौरतलब है कि उक्त बातें RJD के ट्वीटर हैंडल से ट्वीट की गई हैं।

हिन्दू-मुसलमानों के बीच फैलाते हैं नफरत

अमिश देवगन और रोहित सरदाना जैसे कुछ पत्रकार दिन-रात न्यूज़ चैनलों पर बहस के ज़रिए हिंदू-मुस्लिम के बीच ज़हर फैलाते हैं। इन्हें ना तो किसानों के मुद्दे से कोई मतलब है, ना महंगाई और ना ही चौपट होते उद्योग-धंधों से कोई मतलब है।

अमिश देवगन खुद को इतना काबिल समझते हैं कि चीख-चीखकर भाजपा विरोधी दलों के प्रवक्ताओं की आवाज़ बंद कराने की कोशिश ज़ोरों पर होती है लेकिन मोदी की आलोचना इन्हें कतई पसंद नहीं है। इसकी वजह यह है कि न्यूज़ 18 के मालिक अब अंबानी हैं और आप जानते हैं कि मोदी और अंबनी की दोस्ती तो शानदार है।

गौरतलब है कि न्यूज़ 18 और फर्स्टपोस्ट के मालिक अंबानी हैं, जिनके भाजपा से रिश्तों के बारे में आपको बताने की ज़रूरत नहीं है। वहीं, इंडिया टुडे ग्रुप के मालिक हैं अरुण पुरी है, जिनके साथ बीजेपी के खास रिश्ते हैं।

ज़ी मीडिया के सभी चैनलों के मालिक बीजेपी से राज्यसभा सांसद सुभाष चन्द्रा हैं। अब आप खुद ही अंदाज़ा लगा लीजिए कि इनसे निष्पक्ष पत्रकारिता की उम्मीद कैसे की जा सकती है। इन न्यूज़ चैनलों के ओनर्स का नाम जानकर आपको यह अंदाज़ा लग गया होगा कि आखिर क्यों इनके पत्रकार मोदी-मोदी कहते हैं।

जो भक्त लोग हैं, उन्हें मोदी की हर स्टाइल पसंद है। वे मोदी की कभी बुराई नहीं करते हैं और मीडिया की कभी तारीफ नहीं करते हैं। इन्हें ऐसी ही चारण मीडिया चाहिए, जिसे गरिया सकें, दुत्कार सकें और लालच का टुकड़ा फेंककर अपने अनुकूल बना सकें।

सवाल उन लोगों का है, जो आम जन के प्रतिनिधि के रूप में मीडिया में आए हैं, जिन्होंने पत्रकारिता के नियम-कानून पढ़े हैं और मीडिया की गरिमा को पूरे जीवन ध्यान में रखकर पत्रकारिता की है। क्या ये लोग इस हालात पर बोलेंगे या मीडिया बाज़ार के खरबों के मार्केट में अपना निजी शेयर तलाशने के वास्ते रणनीतिक चुप्पी साधे रहेंगे।

दोस्तों, जब-जब सत्ता सिस्टम के लालच या भय के कारण मीडिया मौन हुई या पथ से विचलित हुई है, तब-तब देश में हाहाकार मचा और जनता बेहाल हुई, आज फिर वही दौर दिख रहा है।

ऐसे में बहुत ज़रूरी है कि हम सब वह कहें, वह बोलें जो अपनी आत्मा कहती है। असल बात विचार, सरोकार, तेवर, नज़रिया, आत्मसम्मान और आत्मस्वाभिमान की है। जिस दिन आपने खुद को बाज़ार और पूंजी के हवाले कर दिया, उस दिन आत्मा तो मर ही गई।

आज राजनीति जीत गई और मीडिया हार गया। आज PR एजेंसियों का दिमाग सफल रहा और पत्रकारिता के धुरंधर बौने नज़र आएं। आइए, मीडिया के आज के काले दिन पर हम सब शोक मनाएं और कुछ मिनट का मौन रखकर दलाल, धंधेबाज़ और सत्ता परस्त पत्रकारों की मर चुकी आत्मा को श्रद्धांजलि दे दें।

 

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