सन 1947 के विभाजन के उस दौर में मौलाना अबुल कलाम आज़ाद ने मुसलमानों को जामा मस्ज़िद से संबोधित करते हुए कहा था,
अहद करो!
ये मुल्क़ हमारा है। हम इसी के लिए हैं
और इसकी तक़दीर के बुनियादी फ़ैसले
हमारी आवाज़ के वगैर अधूरे ही रहेंगे।
जिन मुसलमानों ने मौलाना आज़ाद की बात को तरज़ीह दी, उन्होंने भारत को अपने वतन के रूप में स्वीकारा और जिन्हें लगा कि भारत अब उनका मुल्क नहीं है, उन्होंने मोहम्मद अली जिन्ना के साथ पाकिस्तान को चुना। आज एक बार फिर से भारत के मुसलमान मौलाना आज़ाद की बातों को वर्तमान हुक्मरान को बारंबार याद दिला रहे हैं।
टेंट लगाकर सड़क के बीच डटी हैं शाहीन बाग की महिलाएं
15 दिसंबर 2019 से दिल्ली के शाहीन बाग में औरतें आंदोलन कर रही हैं। पहले तो यह कि 15 दिसंबर 2019 से चल रहे है आंदोलन में मैं बहुत देरी से पहुंची। बाकियों की तरह मेरा कारण भी यही रहा कि ये औरतें आखिर कितने दिन तक आंदोलन कर सकेंगी!
वह भी ऐसे दौर में जब आंदोलनकारियों पर लाठियां बरसाई जा रही हों। जब लोग प्रोटेस्ट में शामिल होने से इसलिए डर रहे हों कि पता नहीं कौन सी संगीन धारा लगाकर अंदर कर दिए जाएं या प्रोटेस्ट में जाने से पहले जानने वाले यह बोलकर चेतावनी दे रहे हों, “देखना कहीं पुलिस की लाठी ना पड़ जाए।” मेरे मन में भी यही सब चल रहा था कि ये औरतें कितने दिन टिकेंगी?
हरियाणा-दिल्ली-यूपी को जोड़ने वाली नोएडा-सरिता विहार रोड पर शाहीन बाग के सामने औरतें टेंट लगाकर सड़क के बीचों-बीच बैठी हैं। सड़क को बैरिकैड्स लगाकार घेर दिया गया है।
पिछले 26 दिनों से इस रूट की ट्रैफिक डीएनडी से होकर जा रही है। ट्रैफिक की समस्या को लेकर हाई कोर्ट में एक याचिका दी गई थी कि आंदोलनकारियों को कहीं और शिफ्ट किया जाए लेकिन दिल्ली हाई कोर्ट ने उस याचिका को खारिज़ कर दिया।
ऐसा मैंने सुना था कि मंच से सटे बैरिकैड्स किसी के लिए नहीं हटाए जाते लेकिन जब मैं वहां पहुंची, तो मैंने कुछ और ही देखा। अचानक मंच संचालक ने घोषणा की, “एक एंबुलेंस आ रही है, दौड़कर जाइए और रास्ता दे दीजिए।”
मंच के दोनों तरफ लिखे गए हैं कोटेशन्स
बी.आर अंबेडकर, महात्मा गाँधी, मौलान आज़ाद, अशफाकुल्लाह खां और राम प्रसाद बिस्मिल की तस्वीरों से सजे मंच पर मोटे-मोटे अक्षरों में लिखा गया है, “रिजेक्ट एनआसी, रिजेक्ट सीएए।”
मंच के दोनो तरफ अलग-अगल कोटेशन लिखे गए हैं। एक तरफ सभी धर्मों के चिन्ह बनाए गए हैं जैसे कि ‘ओम’ और ‘क्रॉस’। दूसरी तरफ लिखा है, “हिन्दुस्तान एक बाग है हम ‘शाहीन’ हैं इस बाग के।”
बड़े-बड़े अक्षरों में लिखा गया है, “नो कैश, नो पेटीएम, नो अंकाउंट।” साथ के साथ मंच संचालक बार-बार यह उद्घोषित करती हैं कि अगर आपको कोई पैसा या कुछ सामान देना चाहे, तो उन्हें लेकर मंच पर आएं। अपना पता, नाम किसी को ना बताएं। कोई फॉर्म ना भरें। फॉर्म भरवाने वाले को मंच पर लेकर आएं।
ये ना तो किसी पार्टी की नेता हैं और ना ही कोई न्यूज़ एंकर
मंच संचालक ने वक्ताओं को चेताते हुए कहा, “यहां सिर्फ और सिर्फ NPR, NRC, CAA और संवैधानिक मूल्यों पर बात हो। हमें यहां काँग्रेस-बीजेपी नहीं करना।” मंच के सामने वाली जगह जिसे पंडाल कहना ज़्यादा उचित होगा, वहां औरतें, जिनमें बुर्जुर्ग, युवती, बच्ची, लड़कियां सब बैठती हैं। पुरुषों का साथ भी है वॉलेंटियर के तौर पर या यूं कहूं तो एक मनोवैज्ञानिक साथ, जिसे मैं इस आंदोलन की ताकत समझती हूं लेकिन इसकी अगुवाई कर रही हैं औरतें।
ये औरतें विश्वविद्यालय में पढ़ाने वाली हमारी-आपकी महिला प्रोफेसर नहीं हैं। ये औरतें एक्टिविस्ट भी नहीं हैं। ये औरतें किसी पार्टी की नेता भी नहीं हैं। ये औरतें टीवी पर एंकरिंग करने वाली जर्नलिस्ट भी नहीं हैं। ये वे औरतें हैं, जो अब तक अपनी रसोई तक थीं, जिनके श्रम का कभी कोई हिसाब लगाया ही नहीं गया।
इस आंदोलन के दौरान भी ऐसा नहीं है कि इन औरतों ने अपने घर काम छोड़ दिया हो। ये वही औरतें जिनके बारे में अंग्रेज़ी में लोग कहते हैं, “You know Muslim women are very introvert.”
हाड़ कंपाने वाली ठंड और गोद में बच्चे
यह सब देखते-सुनते 6 बज गया, तभी मंच से एक घोषणा हुई जिन्हें नमाज़ पढ़ना है उनके लिए जगह छोड़ दीजिए। कुछ देर बाद मैंने देखा कुछ वॉलेंटियर जिनमें लड़के-लड़कियां दोनों ही थे, वे कुछ बांट रहे थे। दरअसल, इफ्तार का समय हो गया था। सबको पहले दो-दो छुहारे दिए जा रहे थे।
दरअसल, 5 बजे से 9 बजे तक का समय ही बहुत दिसचस्प होता है, पहले बैठी हुई औरतें घर जाती हैं, कारण उन्हें घर भी संभालना है और कुछ बैठती हैं। यह एक को-ऑर्डिनेशन है। ये औरतें हमें प्रतिरोध करना सिखा रही हैं।
शाहीन बाग की औरतें हमें यह सिखा रही हैं कि आंदोलन होता कैसे है? बिना पार्टी-नेता, एक्टिविस्ट और जर्नलिस्ट के एक शांतिपूर्वक आंदोलन किया जा सकता है। हाड़ कंपाने वाली ठंड में अपनी गोद में कुछ महीने की बच्ची को लेकर माँएं और बुर्ज़ुर्ग महिलाएं पहुंच रही हैं। बहुत ही सीमित संख्या में जामिया, डीयू से कुछ छात्र-छात्राएं वहां पहुंचते हैं।
जो वहां नहीं पहुंच पाए हैं, यह ज़रूरी नहीं कि इस आंदोलन को उनका समर्थन नहीं है मगर हां एक-एक संख्या से ताकत मिलती है, खून बढ़ता है, हौसला मिलती है। दिन-ब दिन गुज़रते जा रहे हैं लेकिन सरकार की तरफ से किसी भी तरह की नरमी की बात तो दूर, इस आंदोलन का ज़िक्र तक सुनाई नहीं दे रहा है, बल्कि CAA को तो लागू ही कर दी गई।