नीरज घेवान की ‘मसान’ जीवन-मृत्यु के पाटों की मर्मस्पर्शी कथा कहती फिल्म थी। बनारस के प्रसंग की एक महत्वपूर्ण फिल्म। जो परिवर्तन में निहित दुख का चित्रण करती है।
यहां श्मशान घाटों का ज़िक्र है, जहां अंतिम संस्कार किए जाते हैं। मुक्ति मार्ग के इस आध्यात्मिक शहर में ज़िंदा लोगों की भी एक कहानी है, जिनके साथ हादसे हुए हैं, जो माफी मांगना चाहते हैं, पश्चाताप करना चाहते है लेकिन ग्लानि उन्हें जीने नहीं देती और इन सबके बीच सपने भी हैं, ज़िंदगी है, मुहब्बत है और बिछोह है परिवर्तन है।
दो कहानियों का संगम
फिल्म में दो कहानियां साथ में चलती हैं और अंत में एक मोड़ पर इनका संगम हो जाता है।
पहली कहानी
पहली कहानी में देवी (ऋचा चड्ढा)) अपने दोस्त पीयूष के साथ एक होटल के कमरे में है। घटनाक्रम में पुलिस उस होटल में छापा मारती है। पुलिस से बचने के लिए लड़का खुद को खत्म कर लेता है।
अब ऋचा चढ्ढा के पिता विद्याधर पाठक (संजय मिश्र) से एक पुलिसवाला तीन लाख रुपये की डिमांड करता है। यह पैसे मामले को रफा दफा करने के लिए मांगे जाते हैं। अनचाहे देवी का घर मुसीबतों के चक्र में फंस जाता है।
यह हादसा देवी और बनारस के घाटों पर कर्मकांड कराने वाले उसके पिता विद्याधर पाठक (संजय मिश्रा) की ज़िंदगी बदल कर रख देता है। ‘छोटे शहर’ और अपने अंदर की ग्लानि से भरी बेटी आखिरकार आज़ाद होने का फैसला करती है।
हाल के बरसों में बनी फिल्मों में ‘मसान’ देखने लायक फिल्म है। बॉलीवुड को अलग लीग में लाने वाली बेहतरीन फिल्म है। मुख्य भूमिकाओं में ऋचा चढ्ढा, संजय मिश्रा, विक्की कौशल और श्वेता त्रिपाठी ने काम किया है। संगीत इंडियन ओशियन का है और लेखक हैं वरुण ग्रोवर और नीरज स्वयं।
दूसरी कहानी
दूसरी कहानी बनारस के ही दीपक (विक्की कौशल) की है। दीपक का परिवार गंगा के घाटों पर मृत शरीर को जलाने और क्रिया कर्म का काम करता है।
दीपक यूं तो सिविल इंजीनिरयिंग की पढ़ाई कर रहा है लेकिन वेह इस काम में अपने पिता और भाई का हाथ भी बंटाता है। बनारस के हरिश्चंद्र घाट पर जलती चिताओं के बीच एक और कहानी शुरु होती है। ऊंची जाति की लड़की शालू गुप्ता (श्वेता त्रिपाठी) से मुलाकात के साथ दीपक का कस्बाई इश्क परवाज़ पाता है। दोनों अलग जातियों से हैं और यह मिलन आसानी से मुमकिन नहीं है। ख्वाब चकनाचूर हो जाते हैं।
नीरज ने बनारस का जो वातावरण जिस सूक्ष्म तरीके से पर्दे पर उतारा है, उसकी डिटेलिंग एक बड़ा आकर्षण है। दीपक द्वारा बोली गई ये पंक्तियां,
तू किसी रेल सी गुज़रती है, मैं किसी पुल सा थरथराता हूं।
दुष्यंत कुमार की इस पंक्ति को फिल्म में कई बार मायने मिले हैं। फिल्म का साहित्य से मेल-मिलाप काफी सुखद अनुभव देता है ।
फिल्म यथार्थ के करीब
संवाद में बनारसी रंग खूब भरा है लेकिन उनकी खासियत यह है कि वे यथार्थ के करीब है। यह बनारसी टच किरदारों को अलग बना रहा है। फिल्म के गीत भी वरुण ने ही लिखे हैं। गीतों की गहराई छू जाती है। ‘मन कस्तूरी रे, जग दस्तूरी रे, बात हुई ना पूरी रे’ सरीखे गीत आजकल नहीं सुनने को मिलते हैं।
मसान के हीरो-हीरोइन ने लोकप्रिय ढांचे को तोड़ कर नया ढांचा रचा था। यह उन चुनिंदा फिल्मों में से है, जिसमें हर एक किरदार महत्वपूर्ण नज़र आ रहा है। संजय मिश्रा के समानांतर विक्की कौशल ने काबिले तारीफ अभिनय का दमखम दिखाया है। ज़िंदगी की उलझनों में उलझे युवा के किरदार में वे प्रभावित करते हैं।
फिल्म की कहानी, संगीत और संवाद उसकी जान हैं। इसे कान्स इंटरनैशनल फिल्म फेस्टिवल में दो प्रतिष्ठित पुरस्कारों से नवाज़ा गया था। हिंदी सिनेमा की एक अविस्मरणीय फ़िल्म । जीवन की सच्चाइयों पर केंद्रित एक बेहतरीन फिल्म ।