30 जनवरी 1948 भारतीय इतिहास का वह काला दिन है, जब नाथूराम गोडसे ने महात्मा गाँधी की गोली मारकर हत्या कर दी थी। कल 30 जनवरी 2020 को गोपाल शर्मा ने राजघाट की तरफ प्रदर्शन करने वाले लोगों पर तमाम मीडिया और पुलिसकर्मियों की मौजूदगी में खुले आम गोली फायर करके, लोकतंत्र के काले अध्याय में एक नए घटनाक्रम को जोड़ दिया है, जिसे इतिहास देश, संविधान पर हमले के रूप में याद रखेगा।
गोडसे से गोपाल तक
इन दोनों ही घटनाक्रम में सबसे बड़ी समानता यह है कि गोडसे और गोपाल कुछ खास सोच और संगठनों की रचित नफरत की सियासत की पैदाइश हैं। 1948 के दौर में यह सियासत हाशिए पर थी लेकिन आज मुख्यधारा की राजनीति बन गई है।
शांतिपूर्ण प्रदर्शन कर रहे विद्यार्थियों पर हिंसक हमलावर के गोली चलाने और इस दौरान पुलिस के लिए कुछ ना करने पर सोशल मीडिया पर उठाए जा रहे सवालों का ज़वाब भले पुलिस, प्रशासन और सरकार के तरफ से नहीं मिले। लेकिन वहीं दिल्ली विधानसभा चुनाव के दौर में तमाम राजनीतिक दलों से बयानबाज़ी का दौर शुरू हो गए हैं।
यह घटना एक लोकतांत्रिक देश के रूप में भारत के लिए कहीं से भी सही नहीं है। यदि हमने इसे हलके में लिया या फिर आज हम इसके प्रति गंभीर नहीं हुए, तो कल स्थिति भयावह होगी।
संविधान को समझने में चूक रहे हैं हम
हमें इस बात को समझना होगा कि हमें हमारा संविधान इस बात की पूरी इजाज़त देता है कि हम स्वेच्छा से किसी भी चीज़ का समर्थन और विरोध दोनों कर सकते हैं। परंतु, किसी भी विषय पर समर्थन और विरोध के लिए हिंसक तरीकों का इस्तेमाल आज हमारे सामने एक नया सवाल भी पैदा करता है कि
- क्या भारत सच में अहिंसा की धरती कहा जाने वाला देश रह गया है?
- भारत अपनी नई पहचान गढ़ने के मुहाने पर खड़ा है?
- सत्ता हासिल करने के लिए उत्तेज़क बयानबाज़ियों से आतंकवादी बनाया जा रहा है?
- बहुसंख्यकवादी कट्टरपंथ, राजनीति का इजेक्ट किया हुआ वायरस है जो अब बेकाबू हो चुका है?
इन सवालों के जवाब हमसे-आपसे बने समाज को और समाज से बने देश को खोजना होगा। अगर हम इन सवालों का जवाब खोजने में असफल रहते हैं। तब यकीन मानिए विश्व में शांति और सद्भाव का अलख जलाने वाला देश आने वाले समय में अपनी जो छवि पेश करेगा, उस पर किसी भारतीय को नाज़ नहीं होगा और ना ही हमारे अज़ादी के नायकों और महापुरुषों ने उस देश की कामना सपने में भी नहीं की होगी।