- 370 इन शाहीन बाग’
- पैसे लेकर उन्माद फैलाने वाली भीड़ का मेगा शो
कुछ इस तरह की हेडिंग और ट्विटर ट्रेंड मैं कल से देख रहा हूं। देश के सीनियर पत्रकार माने जाने वाले लोग ऐसी हरकतें कर सकते हैं, यह मेरी समझ से बिल्कुल बाहर था।
मेरी पढ़ी पत्रकारिता सहृदय होना सिखाती है
मीडिया स्टडीज़ के दौरान मैंने अभी प्रथम सेमेस्टर में टेंडर हार्ट थ्योरी पढ़ी है। बेशक, अगर कम्यूनिकेशन (संचार) की पढ़ाई करते हैं, तो यह सबसे महत्वपूर्ण बिन्दु होता है। मानो अगर आप सामने वाले से संचार करते हैं, तो आपको सहृदय होना चाहिए।
आपका मन सामने वाले के अनुकूल होगा तभी आप बात कर सकेंगें। हमारी प्राचीन किताबें भी यही बताती हैं। बेहतर संचार के लिये दोनों का मूड समान होना चाहिए। उदाहरण के लिये सामने वाला गम में है और आप उससे हंसकर बात करेंगें तो क्या संचार प्रभावी होगा? शायद नहीं।
चलिये, अब इसको मीडिया से जोड़ते हैं। पत्रकारिता में यही महत्वपूर्ण है कि कवरेज के समय आपको सहृदय होना चाहिए। आपको एक नहीं बल्कि भीड़ से संचार (जनसंचार) करना होता है। अब अगर आप सामने वाले के मूड के अनुसार पेश नहीं आते हैं, तो संचार प्रभावी कैसे होगा?
शाहीन बाग के लोगों और पत्रकारों, दोनों की गलती है
अक्सर देखा जाता है कि उपद्रव, हिंसा, प्रदर्शनों के दौरान कई बार लोग मीडिया से मुखातिब नहीं होना चाहते हैं। इसलिये वे मीडिया को खदेड़ते भी हैं लेकिन फिर भी रिपोर्टर्स डटे रहते हैं और शांति से कवरेज भी होती है। ऐसा एक नहीं कई बार हुआ है। असल में हम देश के सामने उस चीज़ को रख रहे हैं और हमारा काम वहां जो हो रहा है, बस उसे पेश करना है।
मीडिया केवल घटना और दर्शक के बीच एक सेतु की तरह है। शाहीन बाग का जो मामला है, उसमें देश के पत्रकारों की छवि बिल्कुल विपरीत है। यह बिल्कुल वैसा ही है जैसे कोई ज़ी न्यूज़ के स्टूडियो में बैठकर एनडीटीवी या आजतक जिंदाबाद के नारे लगाए, तो ज़ी न्यूज़ को कैसा लगेगा? ये एक काॅमन सा माइंड का इशू है।
हम लोग तो क्षेत्रीय रिपोर्टर्स की भूमिका में रहते हैं। कई बार प्रदर्शनों और हिंसा आदि में कवरेज के दौरान मीडिया को अभद्रता का शिकार होना पड़ा। एक नहीं बल्कि कई ऐसे घटनाक्रम मैं खुद बता सकता हूं, जिसमें मोबाइल टूटते बचे हैं या हम लोग खुद। लेकिन आपा खोकर भागने की बजाये खड़े रहकर घटनाओं को कवर किया है।
शाहीन बाग ने पत्रकारों के साथ जो भी किया हो, मैं उसको गलत ठहराऊंगा लेकिन पत्रकारों ने जो भी शाहीनबाग के साथ किया उसकी भी निंदा होनी चाहिए।
सुधीर चौधरी और दीपक चौरसिया ने बिल्कुल एक बदले की भावना के साथ लम्बा-चौड़ा कवरेज शाहीन बाग के विरोध में कर डाला। सिर्फ इसलिये क्योंकि उन्हें वहां जाने नहीं दिया गया या लोगों ने उनसे बात नहीं की। यह व्यवहार शायद ही मीडिया के किसी कोर्स में पढ़ाया जाता हो क्योंकि एक मीडिया स्टूडेंट होने के नाते मुझे नहीं लगा कि जो सुधीर-दीपक ने किया वह एक पत्रकार द्वारा किया जाना कृत्य है।