जलवायु परिवर्तन का मुद्दा बहुत बड़ा होता जा रहा है, ऑस्ट्रेलिया में बढ़ती जंगल की आग व समुद्री तापमान का लगातार बढ़ना इस बात का उदहारण है।
हाल ही में वैज्ञानिकों ने एक रिपोर्ट जारी की है, जिसमें बताया गया है कि साल 2019 में समुद्र का तापमान रिकॉर्ड स्तर पर पहुंच गया है। ऐडवांसेस इन ऐटमॉस्फेरिक साइंसेज़ जर्नल में छपे अध्ययन के मुताबिक,
- वैश्विक महासागरीय तापमान के लिहाज़ से बीते 10 साल सबसे गर्म रहे और आखिरी 5 साल में सबसे ज़्यादा तापमान दर्ज़ किए गएं।
- पिछले 25 वर्षों (1994-2019) में 3.5 अरब परमाणु बम से जितनी ऊर्जा उत्पन्न हुई है, उतनी ही उष्मा महासागरों में मिली है।
- वैज्ञानिकों ने बताया कि पानी में हर सेकेंड 5 ‘हिरोशिमा’ परमाणु बम गिराए जाने पर निकलने वाली ऊष्मा की समान दर से समुद्र गर्म हो रहे हैं।
14 वैज्ञानिकों की अंतरराष्ट्रीय टीम ने इसके लिए 1950 के दशक से पहले का डेटा का विश्लेषण किया और समुद्र में 2000 मीटर की गहराई तक बदलते तापमान का अध्ययन किया।
नैशनल सेंटर फॉर एटमॉस्फेरिक रिसर्च में क्लाइमेट एनालसिस सेक्शन के वरिष्ठ वैज्ञानिक केविन ट्रेनबर्थ ने बताया,
तापमान का यह ट्रेंड विचलित करने वाला है, इसलिए हम यह पूरे विश्वास से कह सकते हैं कि अधिकांश वॉर्मिंग मानव निर्मित जलवायु परिवर्तन द्वारा हो रही हैं।
यह अध्ययन इस बात को स्पष्ट करता है कि 1955 से 1986 के बीच समुद्रों का तापमान तेज़ी से बढ़ा है लेकिन पिछले कुछ दशकों में इसमें बहुत तेज़ी आई है। शुरुआती (1940 दशक) तापमान के आंकड़ों के मुकाबले 1987 से 2019 के बीच, समुद्र का तापमान 450% अधिक रहा।
इस अध्ययन के शीर्ष शोधकर्ता लीजिंग चेंग ने बताया,
1981-2010 के औसत समुद्री तापमान के मुकाबले 2019 में समुद्री तापमान 0.075 डिग्री सेल्सियस अधिक रहा और इस तापमान तक पहुंचने के लिए महासागरों को 228,000,000,000,000,000,000,000 (228 अरब खरब) जूल ऊष्मा की ज़रूरत पड़ेगी।
जूल ऊष्मा को मापने की एक इकाई है।
चेंग ने बताया,
हिरोशिमा परमाणु बम फटने में 63,000,000,000,000 जूल ऊष्मा उत्पन्न हुई थी और इस हिसाब से अगर कैलकुलेशन किया जाए तो पिछले 25 वर्षों में 3.6 अरब हिरोशिमा परमाणु बम के विस्फोट के बराबर ऊर्जा समुद्र में पहुंच चुकी है।
जलवायु परिवर्तन के प्रभाव के महासागर एक अच्छे संकेतक हैं और ये पृथ्वी की सतह के 3/4 भाग में फैले हुए हैं। ग्रीनहाउस गैसों के उत्सर्जन से पैदा होने वाली ऊष्मा का 90% से अधिक हिस्सा महासागर व 4% वातावरण व धरती सोख लेती है। अगर लोग ये सोचते हैं कि वे धरती पर रहते हैं और उन्हें समुद्री तापमान के बढ़ने से कोई फर्क नहीं पड़ेगा तो यह गलत है। महासागरों के गर्म होने का गहरा प्रभाव पूरी दुनिया पर पड़ता है। अध्ययन के एक शोधकर्ता ने कहा,
अगर आप ग्लोबल वॉर्मिंग समझना चाहते हैं, तो आपको समुद्री सतह की गर्माहट को मापना होगा।
समुद्री सतह के गर्म होने के कारण आ रहे हैं समुद्री तूफान
महासागरों के बढ़ते तापमान से कहीं सूखा तो कहीं बाढ़ जैसे हालात पैदा हो रहे हैं। महासागरों के गर्म होने के परिणाम हमारे सामने आने लगे हैं। ऑस्ट्रेलिया में गर्म हवाओं और सूखे के पीछे का एक बहुत बड़ा कारण हिंद महासागर द्विधुव्र (बाईपोल) का ‘पॉज़िटिव फेज़’ मौसमी परिस्थिति है, जिसका मतलब यह है कि समुद्र के पश्चिमी आधे हिस्से में समुद्र का सतही तापमान गर्म है और पूर्व में अपेक्षाकृत ठंडा है।
अगर इन दोनों सतहों के तापमानों के बीच का अंतर की बात की जाए तो यह पिछले 60 वर्षों में सबसे ज़्यादा शक्तिशाली है। इस मौसमी परिस्थिति के कारण पूर्वी अफ्रीका में औसत से अधिक बारिश और बाढ़ आई है, जबकि दक्षिण-पूर्व एशिया और ऑस्ट्रेलिया में भयंकर सूखा पड़ा है।
अगर 2017 में अमेरिका में आए हार्वे तूफान की बात करें, जिसने 68 लोगों की जान ले ली थी, इसका एक बड़ा कारण असामान्य रूप से समुद्री तापमान बढ़ना था। वहीं, अमेरिका में सितंबर 2018 में आए फ्लोरेंस तूफान का एक प्रमुख कारण समुद्री सतह का गर्म होना था।
समुद्री तापमान बढ़ने से प्रभावित हो रहा है समुद्री जीवन
समुद्री सतह का तापमान बढ़ने का मतलब यह है कि समुद्र के पानी में ऑक्सीजन की मात्रा कम हो जाएगी और पानी अधिक अम्लीय हो जाएगा। इसका सबसे अधिक प्रभाव समुद्री जीव-जंतुओं के भोजन पर पड़ेगा। उदहारण के तौर पर, ऑस्ट्रेलिया के समुद्री इलाकों में 2011 में जब समुद्री लू आई तो उस वैज्ञानिकों ने यह नोटिस किया कि इस बीच डॉलफिन मछली की जन्मदर घट गई और जानवरों की जीवन प्रत्याशा दर में भी कमी आई।
ब्लीचिंग प्रक्रिया के कारण ऑस्ट्रेलिया में कोरल रीफ समेत दुनिया के कई हिस्सों में कोरल रीफ प्रभावित हो रही है। एआरसी सेंटर ऑफ एक्सीलेंस के शोध के मुताबिक,
2016 में ऑस्ट्रेलिया के ग्रेट बैरियर रीफ के उत्तरी भाग में सबसे ज़्यादा 67% कोरल ब्लीचिंग का शिकार हुए थे। साथ ही, रीफ का मध्य भाग भी 6% नष्ट हुआ था। ब्लीचिंग प्रक्रिया में कोरल रीफ के अंदर शैवाल (एलगी) बढ़ते तापमान की वजह से मरने की स्थिति में पहुंच जाते हैं।
नेचर जर्नल में छपे एक अन्य अध्ययन के अनुसार, ग्रीन हाउस गैसों की वजह से हो रहे जलवायु-परिवर्तन के कारण 2100 तक दुनिया की 99% कोरल रीफ्स ब्लीचिंग का शिकार हो सकती हैं। ब्लीचिंग में कोरल रीफ्स के अंदर शैवाल (एलगी) बढ़ते तापमान की वजह से मरने की स्थिति में पहुंच जाते हैं। हालांकि, ब्लीचिंग से कोरल तुरंत खत्म नहीं होते हैं लेकिन वे जानलेवा बीमारियों के प्रति ज़्यादा संवेदनशील हो जाते हैं।
इससे बचने के लिए क्या उपाय किए जा सकते हैं?
हां, वैश्विक तापमान में बढ़ोतरी और जलवायु आपातकाल को रोकने के लिए सबसे पहले ग्रीनहाउस गैसों का उत्सर्जन रोकना होगा। हमारे पास अब और अधिक खोने का वक्त नहीं है। यह बात हमें ध्यान रखनी होगी कि समुद्री तापमान बढ़ने से समुद्री जलस्तर भी बढ़ेगा. जिसका प्रभाव भारत समेत दुनियाभर के तटीय शहरों जैसे मुंबई, कोलकाता, चेन्नई और सैन फ्रांसिस्को पर पड़ेगा।
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सोर्स- theguardian.com, edition.cnn.com, www.independent.co.uk, www.engadget.com