देश में भले ही CAA विरोध और समर्थन की गर्मी हो पर इससे प्रकृति को क्या? वह तो अपना कार्य करेगी ही और प्रकृति में कोई लोकतंत्र नहीं है भैया। तो ठंड की खातिर विरोध करने निकल नहीं सकते हैं और निकल भी गएं तो शायद निकल ही लोगे।
अब जब जमालपुर में इतनी ठंड और बिहार में शराब बंद तो गर्म रहने का एक ही उपाय है भैया, भैरव चाचा की चाय की दुकान। तनी चाय पी भी लेव और चूल्हा की आड़ में खड़ा होकर सेंक भी लेब।
चाय की दुकान पर हो, शाम का वक्त और शहर के कथित बुद्धिजीवी अपनी राय रखने वहां ना पहुंचे, ऐसे कैसे चलेगा और 2014 के बाद तो हर चाय की दुकान छोटी-मोटी संसद ही है।
इसी चुस्की के बीच एक महाशय ने गर्म-गर्म सवाल अपने मित्र से धर दिया, देखो मोदी क्या कर रहा है? कभी सोचा था गॉंधी के देश में ऐसा भी होगा? गॉंधी जी, कौन नहीं जानता उन्हें जब जीवित थे, तब से कई गुणा ज़्यादा लोग जानते हैं अब उन्हें, क्योंकि आबादी जो इतनी बढ़ गई। हर किसी के नायक हैं, नोट से वोट तक का नाता है जो उनका।
अब गंगा मैया जैसे हो गए हैं गॉंधी जी
व्यवाहारिकता में कंश क्यों ना हो किंतु सम्मान वह भैया गॉंधी जी का करते हैं। मतलब गॉंधी अब गंगा मैया हो गए हैं। पाप करो और नहाकर पाप धो लो, वैसा ही कुछ पहले बयानबाज़ी करो और फिर खुद को गाँधी के परम भक्त कहकर खुद के कृत्यों पर मिट्टी डाल लो।
बस ससुरा ई समझ नहीं आ रहा कि गॉंधी जी के तीन बंदर रहा और सबे कुछ ना कुछ बताइए लेकिन नेतवन लोगन के बंदर तो एके सुर ने चिल्लाई और तो और उ अब काटबो करी।
सरकार ने जाल बिछाया, विरोधी जाल में फंस गएं
एक कहानी बचपन में पढ़ी थी, वो ‘बूढ़ा कबूतर’ वाली, उसमें शिकारी आता है, जाल बिछाता है, दाने डालता है और जवान कबूतर जालबाज़ी और लालच के चक्कर में फंस जाता है। ठीक ऐसा ही कुछ हुआ है अभी, सरकार ने राजनीतिक जाल बिछाया, CAA का दाना डाला और मोदी विरोध की जल्दबाज़ी में जवान कबूतर फंस गएं। अब लोग कहेंगे ऐसा कैसे अब क्या लोग विरोध भी नहीं करेंगे?
विरोध तो होना चाहिए लेकिन क्या सिर्फ देश के दो-तीन संस्थानों से ही देश की पहचान है? वे जो कहेंगे, करेंगे लोग ऑंख मूंदकर समर्थन कर देंगे?
यहीं से सब मामला बिगड़ गया। गॉंधी जी किसी भी बड़े आंदोलन से पहले अपने सहयोगियों से चर्चा करते थे, फिर जनसम्पर्क करके लोगों से चर्चा किया करते थे, तब कहीं जाकर आंदोलन होता था। वह हिंसा को तो बिल्कुल भी बर्दास्त नहीं करते थे, क्योंकि हिंसा आंदोलन को गलत दिशा देती है और सरकार को उसे दबाना आसान हो जाता है। जिसका उदहारण असहयोग आंदोलन के दौरान चौरी चौरा कांड के बाद गॉंधी जी ने आंदोलन वापस लेकर प्रस्तुत किया था लेकिन गॉंधी को समझता कौन है? आज तो नाम ही काफी है, नाम लो और हो गए गॉंधीवादी।
सरकार द्वारा बनाई गई धर्म की जाल में स्टूडेंट्स भी फंस गएं
अब जब CAA के विरोध प्रदर्शन में हिंसा भड़की तो सरकार को मौका मिल गया और सरकार तो चाहती भी यही थी, धर्म का बम उसने बना रखा था, स्टूडेंट्स ने बिना सोचे समझे इसे धर्म से जोड़ दिया, जबकि इसे बुद्धिमत्ता से बचाया जा सकता था।
हिंसा का बड़ा परिणाम यह हुआ कि एक बड़ा वर्ग जो CAA के खिलाफ था, वे भी अपने विचार बदलने लगे। CAA के सपोर्ट में भी अब रैलियां होने लगीं।
सच तो यह है कि हम आपस में ही टूट चुके हैं, हम अपनों से ही नफरत कर रहे हैं, बस इसलिए क्योंकि उनके राजनीतिक विचार अलग हैं। एक तरफ तो लोग लोकतंत्र की दुहाई देते हैं मगर दूसरी ओर अलग विचारधारा रखने पर भक्त, गद्दार और देशद्रोही जैसे शब्दों से एक दूसरे पर व्यंग करते हैं।
जबकि बीजेपी की सबसे बड़ी भक्त समझी जाने वाली पार्टी शिवसेना के साथ कॉंग्रेस सरकार बनाए बैठी है महाराष्ट्र में, फिर आप और हम राजनीतिक भेद के कारण अलग क्यों हो रहे हैं?
आम लोग तो आम लोग, बड़े और ज़िम्मेदार पत्रकार भी इसमें आगे हैं। जिस प्रकार रवीश कुमार ने गोदी मीडिया के शब्द को धरल्ले से अपने ही क्षेत्र के लोगों के लिए इस्तेमाल किया है, उसका परिणाम विरोध प्रदर्शनों में दिखा, जहां स्टूडेंट्स ने कई मीडिया संस्थानों के पत्रकारों के साथ अभद्रता की, धक्का-मुक्की की।
आखिर उन पत्रकारों की क्या गलती थी? वे तो अपना काम कर रहे थे, जो उन्हें दिया गया है। राजनीतिक पार्टियां हो या मीडिया संस्थान वे अपने स्वार्थ के लिए कार्य कर रही हैं, वहां चर्चा कम और एक माइंडसेट तय है। ऐसे में यदि हम सुझ-बूझ से कार्य नहीं लेंगे, आपसी सहयोग नहीं करेंगे, सिर्फ राजनीतिक विचारधारा के आधार पर अपनों से ही अलग होंगे, तो सत्ता के सामने आमजन हमेशा दबा ही रहेगा। हमारी आवाज़ को आसानी से दबाया जाएगा, इसलिए संयम, संवाद और बेहतर रणनीति से ही CAA का हल निकल सकता है।