महावारी यानी कि पीरियड्स एक ऐसा शब्द है, जिसका नाम सुनते ही आज भी समाज में लोग शर्म से मुंह छिपाने लगते हैं। यह तो रही शर्म की बात, लेकिन जो लोग धार्मिक होते हैं, वे तो पीरियड्स का नाम सुनते ही धर्म भ्रष्ट हो जाने का डर पालकर रखते हैं।
अब बात आगे बढ़ाने का समय है
खैर, यह बात और विवाद तो सालों से रहा है। लोगों को कितना भी समझा दो कि पीरियड्स एक बायलॉजिकल प्रोसेस है, वे नहीं मानेंगे और इसके आस-पास जो स्टिग्मा फैला हुआ है, वह उनके लिए ऐसे ही बना रहेगा।
मेरी इस बात से यह मत सोचिए कि मैं एक नेगेटिव इंसान हूं, बल्कि मैं तो यह मानता हूं कि कुछ लोग भले ही उस भ्रांति में जीते रहें लेकिन बाकी लोग धीरे-धीरे जागरूक हो रहे हैं और इसलिए माहवारी की चर्चा को एक स्तर आगे बढ़ाने की ज़रूरत है।
दरअसल, अब स्टिग्मा से ज़्यादा ज़रूरत है, व्यवस्था की। अब वक्त है कि महिलाएं ना सिर्फ पीरियड्स पर बात करें बल्कि अपने अधिकारों की भी मांग करें।
पीरियड्स के दौरान बेहतर हाईजीन, शौचालय, सैनिटरी नैपकिन्स, कार्यस्थल और घर पर आराम सब आपके अधिकार हैं, जिन्हें मुहैया कराना इस समाज और सरकार दोनों को ज़िम्मेदारी है।
पहाड़ी महिलाओं के लिए पीरियड्स में तिगुना संघर्ष
मैं मूलत: उत्तराखंड से आता हूं। पहाड़ में ही पला-बढ़ा। कॉलेज तक आते-आते भी मुझे इतनी समझ नहीं थी कि पीरियड्स क्या होते हैं। हां, हम लड़के आपस में कुछ बातें ज़रूर करते थे लेकिन वे सारी बातें गलत और भ्रांतियों से भरी हुई थीं।
जब मैंने पीरियड्स के बारे में जाना तो एक लड़की को हर माह होने वाली तकलीफ को भी समझने की कोशिश की। मैंने महसूस किया कि हर माह एक लड़की कितना दर्द और असहजता महसूस करती है और ऐसे में अगर उसे आराम तथा सुविधाएं ना मिले तो उसकी तकलीफ और बढ़ जाती है।
आज भी दूर-दराज के पहाड़ी गाँवों में लड़कियां एवं महिलाएं सैनिटरी नैपकिन्स का इस्तेमाल नहीं करती हैं। यही हालात पूरे भारत के बाकी गाँव के भी हैं। लेकिन पहाड़ में समस्या और बड़ी हैं। दरअसल, पहाड़ों में जीवन बहुत संघर्ष भरा होता है। छोटी-छोटी चीज़ों के लिए आपको भटकना पड़ता है और उसपर आपदाएं अलग। ऐसे में पीरियड्स के दौरान सुविधाओं की सोचना दूर की कौड़ी हो जाती है।
आपदाएं और माहवारी में महिलाओं की हालत
पहाड़ों में हर साल बरसात आपदा को न्यौता देती है। आप उस दौरान अगर उत्तराखंड को देखें तो देवों की खूबसूरत भूमि मानों तांडव के बाद रुदन कर रही होती है। ऐसे में कई घरों का धंस जाना, लोगों का बह जाना या पहाड़ के किसी हिस्से का गाँव समेत टूट जाना कोई नया हादसा नहीं होता। इन हालातों में महिलाएं जिन्हें माहवारी हो रही हो, ज़रा उनकी सोचिए।
खून से सने कपड़े या सैनिटरी नैपकिन की जगह इस्तेमाल किया गया कोई भी खतरनाक विकल्प उस दौरान एक महिला के लिए जानलेवा हो जाता है। इन सबके ऊपर धार्मिक धारणाएं अलग जो उसका जीवन दूभर कर देती है।
रेस्क्यू टीम्स सब उपलब्ध कराती हैं सिवाय सैनिटरी पैड के
यह देखा गया है कि हमारे पहाड़ में महिलाएं और लड़कियां घास, रेत और राख का प्रयोग करती हैं। ऐसे में आपदा के दौरान उनके विकल्प क्या होते होंगे? माहवारी में स्वच्छता का ध्यान ना रखा जाए तो महिलाओं को गंभीर जानलेवा बिमारियां हो जाती हैं। हमारे पहाड़ों में तो होती हैं भी लेकिन ये महिलाएं उस बिमारी को जाने बिना ही इस दुनिया से चली जाती हैं।
यह बात सच है कि आपदा के दौरान कुछ रेस्क्यू टीम ज़रूर आती हैं, जो फंसे हुए लोगों को पानी या खाने-पीने की चीज़ें उपलब्ध कराती हैं लकिन मैंने कभी उनके द्वारा सैनिटरी नैपकिन्स उपलब्ध कराने के बारे में ना सुना ना देखा। अगर किसी ने उपलब्ध कराया है तो बहुत बढ़िया लेकिन ना जाने क्यों मैं मानने को तैयार नहीं हो पा रहा कि सैनिटरी नैपकिन्स आज भी प्राथमिकता नहीं है।
केदारनाथ आपदा के बाद कई सारे लोगों का ध्यान उत्तराखंड की तरफ आया जबकि हर साल यह राज्य आपदा कि चपेट में आता रहा है। मैं उम्मीद करता हूं कि जिस तरह देर से ही सही लेकिन लोगों ने उत्तराखंड को एक पर्यटन स्थल के अलावा एक आपदा से जूझता राज्य भी समझा, उसी तरह यहां की कोसों दूर रह रही महिलाओं को भी मुख्यधारा में लाएंगे।