कॉमरेड ज्योति बसु भारतीय राजनीति का वह जगमगाता सितारा हैं, जिन्होंने भारत में साम्यवाद को सम्मानित किया। आज के युवा उन्हें सामान्य ज्ञान के सवाल के रूप में याद रखते होंगे कि उन्होंने बतौर मुख्यमंत्री पश्चिम बंगाल पर सबसे अधिक समय तक शासन किया।
उन्होंने ही वाम दल का परचम लहराए रखा। मुख्यधारा की मीडिया में पंचलाइनों के ज़रिये याद रखी जाएगी कि कॉमरेड ज्योति बसु ने अपनी आंखें दान कर दी थीं। अपने शरीर को भी मेडिकल साइंस को दान कर दिया था।
मगर ज्योति दा जैसे कॉमरेड की सबसे बड़ी खासियत यह है कि वह मार्क्सवाद को भारतीय संदर्भ में प्रासंगिक बनाए रखने के लिए नीतियों में बदलाव के पक्षधर थे। इसके लिए वह अंतिम पोलित ब्यूरो की मीटिंग तक डटे भी रहे।
ज्योति बसु के व्यक्तित्व को सीमित दायरे में नहीं रखा जा सकता
कॉमरेड ज्योति बसु के व्यक्तित्व को सीमित दायरे में रखकर नहीं देखा जा सकता है। जालियांवाला बाग कांड के पांच साल पहले व प्रथम विश्व युद्ध के शुरुआती साल में बसु दा का जन्म पूर्वी बंगाल (अब बांग्लादेश में है) के एक समृद्ध मध्यवर्गीय परिवार में 8 जुलाई 1914 को हुआ था। ज्योति दा ने कैथोलिक स्कूल और सेंट ज़ेवियर्स कॉलेज से शिक्षा हासिल की थी।
उन्होने लंदन में वकालत की पढ़ाई की। रजनीपाम दत्त जैसे वामपंथी नेताओं के संपर्क में आने के बाद 1930 में कम्युनिस्ट पार्टी ऑफ इंडिया के सदस्य बने। घोर नास्तिक होने के बाद भी मदर टेरेसा के मुरीद रहे ज्योति दा।
एक साक्षात्कार में उनसे जब पूछा गया, “आप तो कम्युनिस्ट हैं, नास्तिक हैं। जबकि मदर टेरेसा के लिए तो ईश्वर ही सब कुछ है, ऐसे में आप और मदर टेरेसा में क्या समानता है?”
ज्योति दा ने कहा,
हम दोनों ही गरीबों को प्यार करते हैं, हमारा रिश्ता गरीबी और अच्छाई पर आधारित है।
क्यों नहीं बन पाए प्रधानमंत्री?
बतौर विपक्ष के नेता एबी घनी खान चौधरी, जिनको ज्योति दा साहेब कहते थे, वह खुद बताते हैं,
बंगाल का यह दुर्भाग्य रहा है कि उसके पास बोस और बसु यानी सुभाषचंद्र बोस और ज्योति बसु 20वीं सदी के सबसे बड़े हीरो थे। बावजूद इसके दोनों प्रधानमंत्री नहीं बन सके मगर एक को किस्मत ने रोक दिया और दूसरे को उसकी पार्टी ने।
गौरतलब है कि 23 सालों तक पश्चिम बंगाल के मुख्यमंत्री रहे ज्योति बसु को साल 1996 में भारत के प्रधानमंत्री पद की पेशकश हुई थी लेकिन उनकी पार्टी ने उन्हें यह पद ग्रहण करने की अनुमति नहीं दी थी।
‘CPI-M’ यह नहीं चाहती थी कि उनकी पार्टी से कोई पीएम बने। पार्टी का मानना था कि किसी राष्ट्रीय दल के साथ यदि उनकी पार्टी गठबंधन की सरकार बनाती है, तो मार्क्सवादी योजनाओं या विचारधारों को सही तरीके से लागू नहीं किया जा सकता।”
यही वो वजह थी, जिसके कारण पार्टी ने ज़्योति बसु को काँग्रेस के साथ गठबंधन की सरकार में पीएम बनने नहीं दिया। ज्योति बसु ने शुरुआत में इसे लेकर कोई टिप्पणी नहीं की थी मगर बाद यह इस बात को स्वीकर करते हुए उन्होंने पार्टी के निर्णय को एतिहासिक भूल बताया।
जब पहली बार चर्चा में आए ज्योति बसु
दाल-भात, बेगुन भाजा के शौकीन ज्योति दा रेल कर्मचारियों के आंदोलन में शामिल होने के बाद पहली बार चर्चा में आए। सन् 1957 में वह पश्चिम बंगाल में विपक्ष के नेता चुने गए। 1967 में बनी वाम मोर्चा के प्रभुत्व वाली संयुक्त्त सरकार में ज्योति दा गृहमंत्री बने।
नक्सलवादी आंदोलन के चलते पश्चिम बंगाल में राष्ट्रपति शासन लगा दिया गया और वहां की सरकार गिर गई। 1977 के चुनाव में विधानसभा में पूर्ण बहुमत से चुनाव जीता और मुख्यमंत्री के पद पर सर्वमान्य उम्मीदवार के तौर पर उभरे।
टेलीग्राफ के राजनीतिक संपादक आशीष चक्रवती कहते हैं,
बसु कम्युनिस्ट कम और व्यावहारिक अधिक दिखते थे। उनकी सफलता यह संकेत देती है कि सामाजिक लोकतंत्र का तो भविष्य है लेकिन साम्यवाद का अब और नहीं।
पश्चिम बंगाल में लगातार 23 साल का उनका कार्यकाल उनकी उपलब्धियों की वजह से आम जनता के ज़हन में बना रहेगा। नक्सलबाड़ी आंदोलन से पैदा हुई अस्थिरता को नियंत्रित करने में उन्होंने लाजवाब मिसाल कायम की। ज्योति बसु ने ज़मींदारों और सरकारी कब्ज़े वाली ज़मीनों का मालिकाना हक करीब दस लाख भूमिहीन किसानों को देकर ग्रामीण क्षेत्रों की गरीबी दूर करने में काफी हद तक सफलता दिलाई।
सबसे खास बात यह है कि उनके दौर में बार-बार हड़ताल करने पर ट्रेड यूनियनों पर कोई लगाम नहीं लगी और उद्योग में जान फूंकने के लिए विदेशी निवेश को आकर्षित नहीं किया गया।
इसके चलते पश्चिम बंगाल में शहरी बेरोज़गारी एक बड़ी समस्या बनकर उभरी। शहरी बेरोज़गारी पर लगाम कसने के लिए उन्होंने कई समझौता पत्रों पर हस्ताक्षर किए लेकिन मज़दूर संगठन के विरोध के कारण उन्हें इसमें सफलता नहीं मिली। इसके लिए ज्योति दा अपनी सरकार की अंतिम कैबिनेट बैठक तक लड़ते रहे।
हिंदी बोलने के लिए अक्सर उर्दू के शब्दों का इस्तेमाल करने वाले ज्योति दा अपने भाषणों के लिए अंग्रेज़ी में नोट्स लिखकर रखते थे। इसे लेकर एक बार जब अशोक मित्रा ने पूछा, “ऐसा क्यों?”
उन्होंने कहा, “क्या करूं? मैं सिर्फ अंग्रेज़ी में ही लिख सकता हूं, क्योंकि मेरी शिक्षा तुम्हारी तरह पूरी नहीं है।”
लंबे समय तक किसी राज्य के मुख्यमंत्री बनने का गौरव हासिल करने वाले ज्योति बसु ने 17 जनवरी 2010 को कोलकत्ता के एक अस्पताल में अंतिम सांस ली। भारतीय राजनीति में मार्क्सवाद के अंगद के रूप में उन्हें हमेशा याद रखा जाएगा।