Site icon Youth Ki Awaaz

सावित्रीबाई ने जब खुद शिक्षा की राह पकड़ी तो लोगों ने कहा कि जल्द हो जाएगी पति की मौत

1848 का साल विश्व इतिहास में इसलिए यादगार है क्योंकि इस साल मार्क्स और एंजिल्स ने कम्युनिस्ट घोषणापत्र (मैनीफैस्टो) प्रकाशित करके पूरी दुनिया में हलचल पैदा कर दी थी।

भारतीय इतिहास में 1848 का साल इसलिए यादगार होना चाहिए क्योंकि इस वर्ष सदियों से सताये व कुचले हुए लाखों लोगों को अपनी नियती को बदलने के लिए, महाराष्ट्र के पुणे शहर में सावत्रीबाई फुले ने आवाज़ उठाई। उन्होंने रूढ़िवादी लोगों की मुखालफत करते हुए, घोर विरोध के बाद भी लड़कियों के लिए पहला महिला विद्यालय खोला था।

सावित्रीबाई फुले

संपन्न किसान परिवार से थी सावत्री बाई फुले

मात्र नौ वर्ष के उम्र में ज्योतिबा फुले के साथ विवाह गठबंधन में बंधने वाली सावत्री बाई फुले का जन्म 3 जनवरी 1831 में महाराष्ट्र के संतारा ज़िले में नैगाँव में एक संपन्न किसान परिवार में हुआ था।

जीवन के प्रारंभ में ही हर प्रकार के भेदभाव से संघर्ष करते हुए सावत्री बाई ने महिलाओं के विकास के लिए शिक्षा की आवश्यकता का महत्व समझ लिया था।

उनका कहना था,

असमानता को मान्यता देने का विचार उच्च जातियों में रूढ़िवादिता के कारण आता है। उच्च जातियों ने शिक्षा पर जो एकाधिकार स्थापित कर लिया है, उसी के कारण वंचितों में निर्धनता, अज्ञानता और गरीबी है।

सावत्री बाई फुले के सामाजिक कर्म को समझने के लिए, अधिक ज़रूरी यह है कि हम उस दौर के उन असमानताओं को सबसे पहले समझें, जो महिलाओं के साथ हो रहे थे।

वंचित समाज की महिलाओं को गले में थूकदान लटकाना पड़ता था

पुणे के समाज में उस दौर में प्रभाव रखने वाले पेशवाओं की शासन-नीति चलती थी। उनकी शासन-नीति में महिलाओं को पुरुषों की उपयोग की वस्तु मात्र माना गया था। वंचित समाज की महिलाओं को निर्वस्त्र नृत्य करने के लिए विवश किया जाता था।

अनुसूचित जाति के लोगों को सवेरे और शाम को सड़को पर निकलने की मनाही थी। इनकी लंबी परछाईयां भी उच्च जातियों को “अपवित्र” कर देती थी। उनको अपनी कमर में पेड़ की डाली बांधनी पड़ती थी, जिससे सड़क पर चलते समय वह स्थान बुहारती रहें। उनको गले में एक थूकदान लटकाना पड़ता था, जिससे की उनका थूक सड़क को गंदा ना कर पाए।

उनको अपने साथ एक घंटी लेकर चलना पड़ता था, जिससे कि उच्च जाति के लोग उनकी आवाज़ सुनकर उधर से जाते समय रास्ता बदल लेते थे। अछूतों को पवित्र मंत्रों का उच्चारण तक सुनने की अनुमति नहीं थी। इस महौल में अछूतों के पढ़ाई-लिखाई की बात दूर की कौड़ी लाने के बराबर था।

शिक्षा के ज़रिए भेदभाव को खत्म करने का संकल्प लिया

ज्योतिबा और सावत्री फुले ने इस अराजकता के खिलाफ संघर्ष करने का फैसला किया। सावत्री फुले ने स्त्रियों को शिक्षित करने का बीड़ा उठाया। सावत्री बाई को इस जिम्मेदारी को उठाने के लिए ज्योतिबा फुले ने प्रशिक्षित किया। जब यह बात ज्योतिबा के पिता के कानों तक पहुंची तो रूढ़िवादी लोगों के डर से बेटे को घर से निकलाने की धमकी दी।

ज्योतिबा और सावत्री फुले ने एक-दूसरे का साथ दिया और पढ़ाई जारी रखी, ज्योतिबा ने सावत्री फुले को प्रशिक्षण स्कूल में भरती करवाया जहां वे मुस्लिम महिला फातिमा शेख के साथ ऊंचे अंक से उर्तीण हुई। इसके बाद ज्योतिबा ने सावत्री के साथ मिलकर 1848  में बालिका विद्यालय स्थापित किया, जिसमें प्रवेश लेने वाली लड़कियां अलग-अलग जातियों की थी।

यह सावत्री बाई के लिए एक कठिन कार्य था क्योंकि उस दौर में यह मान्यता थी कि स्त्रियों के पढ़े-लिखे होने से उनके पतियों की अल्पआयु में मृत्यु हो सकती है। सावत्रीबाई जब घर से बाहर अपने विद्यालय की तरफ जाया करती थी, तो पुराणपंथी पुरुषों का झुंड उनके पीछे पड़ जाते, उन्हें अपशब्द कहते परंतु, सावत्री बाई ने विद्यालय में पढ़ाने का कार्य नहीं छोड़ा।

धीरे-धीरे किंतु निरंतर प्रयास से वह अपने कार्य में सफल रही। उन्होंने और अधिक विधालय खोले अंतत: ब्रिटिश सरकार ने शिक्षा के क्षेत्र में उनके कार्य के लिए सम्मानित किया। 1852 में सरकार की ओर से ज्योतिबा और सावित्रीबाई दोनों का अभिनंदन विश्रामबाग में किया गया।

सावित्रीबाई के साथ ज्योतिबा ने भी किए अनूठे विरोध

ज्योतिबा और सावत्री बाई समस्त प्रकार के सामाजिक पक्षपात के विरुद्ध थे। उन्होंने प्रसूति महिलाओं के लिए “प्रसूति गृह” की स्थापना की जिसका नाम रखा “बालहत्या प्रतिबंधक गृह”। वे हिंदू समाज में विधवाओं की दशा पर चिंतित हुए। दोनों ने मिलकर नाइयों को धिक्कारा और नाइयों की हड़ताल का संगठन किया और उन्हें इस बात के लिए तैयार किया कि वे विधवाओं का मुंडन न करें।

सावित्रीबाई और ज्योतिराव

उस दौर में यह अपने ढंग का पहला और अनूठा विरोध था। सामाजिक पक्षपात के विरुध इन दोनों के अभियान की आलोचना जब सावत्री बाई के भाई ने की। तब सावत्री बाई ने अपने भाई को पत्र लिखा जो अभी भी उपलब्ध है। उन्होंने लिखा,

मुझे अपने पति पर उनके कार्यों के लिए गर्व है। तुम्हें उनकी आलोचना करने की हिम्मत कैसे हुई? तुम अपने गोद में कुत्ते-बिल्ली को चढ़ाते हो परंतु मनुष्यों से स्पर्श से तुम्हें लगता हैं कि तुम अपवित्र हो गए। मेरे पति सच्चे अर्थ में महान पुरुष हैं क्योंकि वे अपने सभी साथियों को अपने समान मानते हैं।

ज्योतिबा फुले ने 1890 में शरीर छोड़ा। उनके निधन के बाद सावत्री बाई ने ज्योतिबा फुले के “सत्यशोधक मंडल” का दायित्व संभाला। प्लेग-पीड़ितों राहत शिविर में काम करते हुए सावत्री बाई प्लेग की शिकार हुई और 10 मार्च 1897 को उनके प्राण छूटे।

सावत्री बाई की कविताएं, रचनाएं और उनके सामाजिक कार्य आज भी प्रेरणा के स्त्रोत है। वो प्रथम महिला शिक्षिका, प्रथम महिला शिक्षाविद, प्रथम कवयित्री तथा महिलाओं की पहली मुक्तिदाता थी। उनके दो कविता संग्रह “काव्य फुले” और “बावन काशी सुबोध रत्नाकर” उनकी साहित्यिक सूक्ष्मता का प्रतीक है। 

आज भले ही अधिक लोग सावत्री बाई फुले को नहीं जानते हो पर इस तथ्य को हज़ार कोशिशों के बाद भी नहीं मिटा सकता है कि सावत्री बाई ने सामाजिक यंत्रणाएं को सहते हुए इस मूल्क की आधी आबादी के लिए शिक्षा का मार्ग खोला, जिसका सम्मान आज तक समाज ने उनको नहीं दिया है।

Exit mobile version