भारत में आंदोलन का इतिहास बहुत पुराना है, उस वक्त से जब ‘आंदोलन’ शब्द गढ़ा भी नहीं गया होगा। आंदोलन की मांग या कहें कि ज़रूरत तब और बढ़ जाती है, जब आप एक लोकतांत्रिक देश में रह रहे हों।
कहा जाता है कि किसी देश के लोकतंत्र को परखना हो तो आप उस देश के इतिहास में जाइए और देखिए कि कितने आंदोलन पैदा हुए, किन उचाईयों तक पहुंचे और किस प्रकार ठप्प पड़े। इस मापदंड के तहत आप वहां के लोकतंत्र को माप सकते हैं कि उसकी मात्रा कितनी है, ग्राम में है या किलो में है।
2014 से पहले कहा जाता था कि आंदोलन के ज़माने बीत गएं मगर अब ऐसा लगता है जैसे चक्र फिर लौट कर आया है, यह बताने के लिए कि आंदोलन के ज़माने नहीं होते बल्कि तानाशाही के होते हैं।
भारत में आंदोलन सत्ता और व्यवस्था के खिलाफ ही होते रहे हैं
खैर, भारत में ‘आंदोलन’ अपनी जड़ें बहुत पहले बना चुका था, जो आज़ादी की जद्दोजहद के समय देखने को मिला, आपातकाल के समय देखने को मिला, अन्ना हज़ारे के समय देखने को मिला। प्रत्यक्ष या अप्रत्यक्ष रूप से भारत में आंदोलन सत्ता अथवा व्यवस्था के खिलाफ ही होते रहे हैं।
वर्तमान समय में भी यही हो रहा है। मोदी सरकार ने CAA नामक भूत को बोतल से निकाला है और थोपा है। बगैर संविधान की चिंता किए, बगैर नैतिकता की चिंता किए और बगैर धर्मनिरपेक्षता की चिंता किए।
स्टूडेंट्स से ही प्रभावित रहा है भारत का अधिकांश आंदोलन
लेकिन इसकी चिंता थी भारत के स्टूडेंट्स को, जिसे शायद धार्मिक देश नहीं बल्कि वह सेक्युलर देश चाहिए था, जिसकी कल्पना बाबा साहेब अंबेडकर ने की थी।
हालांकि यह कोई नई बात नहीं थी, क्योंकि आज़ादी के बाद पैदा होने वाला प्रत्येक आंदोलन स्टूडेंट्स से ही प्रभावित रहे हैं, अर्थात आंदोलन की जड़ें स्टूडेंट्स तक पहुंची हैं। CAA और NRC के विरुद्ध हो रहे आंदोलनों में भी यही हुआ। स्टूडेंट्स की कोख से आंदोलन निकला, जिसे एक बड़े वर्ग का समर्थन मिला।
जामिया के स्टूडेंट्स ने इस आंदोलन को खड़ा करने के लिए कड़ा संघर्ष किया। पुलिस की लाठियां खाईं, नेताओं की गालियां सुनीं और समाज की खरी-खोटी सहन की मगर पीछे नहीं हटें।
आंदोलन को देखते हुए लग रहा था कि इसका स्तर सिर्फ स्टूडेंट्स तक सीमित रहेगा लेकिन ऐसा नहीं हुआ। देश के कई सरकारी व गैर सरकारी विश्वविद्यालयों ने स्टूडेंट्स को समर्थन दिया और इसका स्तर ऊंचा किया। भारत के कई प्रमुख शहरों में भी इस आंदोलन का प्रभाव बढ़ा।
स्टूडेंट्स के आंदोलन को आगे बढ़ाया है शाहीन बाग की महिलाओं ने
एक समय वह भी आया जब जामिया के स्टूडेंट्स घर लौटने लगे और यह आवाज़ उठाने लगे कि आंदोलन ने कोख में ही दम तोड़ दिया।
लेकिन फिर आया वह वक्त, जिसने हर कयास को पलटते हुए और सत्ता को हिलाते हुए आंदोलन को नई ऊंचाई दीं और जगह का नाम था ‘शाहीन बाग’।
रामलीला मैदान और जंतर-मंतर भारत के आंदोलनों की प्रमुख जगहें रही हैं लेकिन अब अस्तित्व में आया दिल्ली का शाहीन बाग। शाहीन बाग में पिछले सवा महीने से आंदोलन चल रहा है। महिलाएं धरने पर बैठी हैं, भारत के इतिहास में पहली बार हुआ है जब मुस्लिम महिलाएं घरों से बाहर निकलकर मोर्चा संभाले हुए हैं। शाहीन बाग आज जंतर-मंतर का पर्याय बन चुका है, जिस पर ना सिर्फ देश की बल्कि विदेश की भी नज़र टिकी है। शाहीन बाग का लोगों के ज़हन में अस्तित्व सिर्फ सवा महीने पुराना है लेकिन आने वाले सैंकड़ों साल शाहीन बाग को याद किया जाएगा।
शाहीन बाग में पब्लिश ही नेता है
देश का पहला आंदोलन जिसका कोई नेता नहीं था, देश का पहला आंदोलन जिसमें महिलाओं की बड़ी भूमिका थी और देश का पहला आंदोलन जिसने कई पुराने मिथक तोड़ें। आप आंदोलनों के इतिहास में जाएंगे तो आपको पता चलेगा कि आंदोलन को चलाने वाला ‘नेता’ होता है लेकिन शाहीन बाग में ‘पब्लिक ही नेता’ है।
आज़ादी के वक़्त आंदोलन के कई नेता थे, जिनमें गॉंधी, नेहरू, भगत सिंह, सरदार पटेल और लाला लाजपत राय का नाम प्रमुख रूप से आता है। आज़ादी के बाद आपातकाल वाले जेपी आंदोलन के नेता खुद जयप्रकाश नारायण थे और लालू व नीतीश जैसे नेता भी उसी जेपी आंदोलन की देन हैं।
वहीं अन्ना आंदोलन के नेता थे अन्ना हज़ारे और केजरीवाल, मनीष सिसोदिया, योगेंद्र यादव व कुमार विश्वास जैसे लोग इस आंदोलन से उभरे
लेकिन यह थ्योरी शाहीन बाग के आंदोलन ने खारिज़ कर दी क्योंकि यहां ‘पब्लिक ही नेता है’।
हालांकि देश के नेता इसे ‘मिनी पाकिस्तान’ कहकर संबोधित कर रहे हैं, सूबे के मुख्यमंत्री कहते हैं कि ‘महिलाएं धरने पर हैं और पुरुष रज़ाई में’ और कुछ प्रतिष्ठित लोग कहते हैं कि ये महिलाएं ‘देशविरोधी हैं’, मीडिया कहता है कि महिलाएं ‘बिकाऊ’ हैं लेकिन इन सब चीज़ों से परे शाहीन बाग एक नया इतिहास बना रहा है और अच्छा भविष्य गढ़ रहा है।
शाहीन बाग की महिलाओं के साथ उनके बच्चे भी हैं, जो कड़कड़ाती ठंड में भी टस से मस नहीं हुए, क्योंकि वे जानते हैं कि क्रांति संघर्ष मांगती है और आंदोलन विचार। आंदोलन लोकतंत्र की और इंसानियत की सबसे खूबसूरत कड़ी है, जिसमें हिन्दू या मुसलमान नहीं दिखता बल्कि इंसान दिखता है, सिर्फ इंसान।