ऑस्ट्रेलिया के जंगलों में आग के कारण पूरे देश में अब तक 28 लोग मर चुके हैं, जबकि आग से सबसे ज़्यादा प्रभावित न्यू साउथ वेल्स राज्य हुआ है, जिसमें सिडनी और कैनबरा जैसे बड़े शहर भी शामिल हैं। इसके चलते राज्य में 3000 से ज़्यादा घर जलकर खाक हो चुके हैं।
अगर हम यह सोचकर बैठ जाएं कि यह तो ऑस्ट्रेलिया की घटना है, हमें भारत में बैठकर चिंता करने की क्या ज़रूरत है, तो आप बिलकुल गलत सोच रहे हैं। ऑस्ट्रेलिया के जंगलों में लगी आग के पीछे एक सेट पैटर्न है, जो भारत में भी लागू हो सकता है।
भारत के जंगलों में क्या असर हो सकता है इसको समझने से पहले जानते हैं कि ऑस्ट्रेलिया के जंगलों में लगी आग की क्या वजहे हैं।
ऑस्ट्रेलिया के जंगलों में लगी आग की एक बड़ी वजह है इस साल का वहां का तापमान
ऑस्ट्रेलिया के मौसम विभाग ने बताया है कि देश में 1910 के बाद 2019 सबसे गर्म साल साबित हुआ है और इस साल तापमान सामान्य से 1.52 डिग्री सेल्सियस अधिक रहा। 2019 में जंगल की आग का तापमान 2013 की अपेक्षा 0.19 डिग्री सेल्सियस अधिक रहा।
ऑस्ट्रेलिया की एक राजधानी कैनबरा में तापमान का 80 साल का रिकॉर्ड टूट गया। कैनबरा में शनिवार दोपहर को तापमान 43.6 डिग्री सेल्सियस रहा, जबकि पेनरिथ (न्यू साउथ वेल्स में सबअर्ब) का तापमान 48.9 डिग्री सेल्सियस पहुंच गया।
ऑस्ट्रेलिया में गर्म हवाओं और सूखे के पीछे का एक बहुत बड़ा कारण हिंद महासागर द्विधुव्र (बाईपोल) का ‘पॉज़िटिव फेज़’ मौसमी परिस्थिति है, जिसका मतलब यह है कि समुद्र के पश्चिम के आधे हिस्से में समुद्र का सतही तापमान गर्म है और पूर्व में अपेक्षाकृत ठंडा है। अगर इन दोनों सतहों के तापमानों के बीच के अंतर की बात की जाए तो यह पिछले 60 वर्षों में सबसे ज़्यादा शक्तिशाली है।
इस मौसमी परिस्थिति के कारण पूर्वी अफ्रीका में औसत से अधिक बारिश और बाढ़ आई है, जबकि दक्षिण-पूर्व एशिया और ऑस्ट्रेलिया में भयंकर सूखा पड़ा है। हालांकि, इस बात के भी सबूत हैं कि वातावरण में अत्यधिक मात्रा में ग्रीनहाउस गैसों के चलते डाइपोल प्रभावित हो रहा है।
जर्नल नेचर कम्युनिकेशन में 2018 में प्रकाशित अध्ययन के मुताबिक,
जैसे-जैसे तापमान बढ़ेगा वैसे-वैसे ‘एक्सट्रीम पॉज़िटिव डायपोल इवेंट्स’ बढ़ेंगे। ग्लोबल वॉर्मिंग के कारण इस सदी के अंत तक तापमान 1.5C बढ़ने का अनुमान है और इसी बीच प्री-इंडस्ट्रियल पीरियड की तुलना में वर्तमान में ये डाइपोल इवेंट्स बढ़ गए हैं।
ऑस्ट्रेलियाई मौसम विभाग के मुताबिक,
अलनीनो और लॉ-नीना मौसमी परिघटना भी कुछ हद तक बुशफायर के लिए ज़िम्मेदार हैं।
ऑस्ट्रेलिया में बढ़ती जंगल की आग के लिए सदर्न एनुलर मोड southern annular mode (एसएएम) मौसमी परिघटना भी क्या ज़िम्मेदार है?
सदर्न एनुलर मोड एक क्लाइमेट ड्राइवर (जलवायु चालक) है, जो ऑस्ट्रेलिया में वर्षा और तापमान को प्रभावित कर सकता है। एसएएम के तीन फेज़ होते हैं-न्यूट्रल, पॉज़िटिव और निगेटिव। ये एसएएम इवेंट अमूमन एक से दो सप्ताह तक रहते हैं, जो कभी-कभी बहुत लंबे समय तक भी हो जाते हैं।
दक्षिणी गोलार्द्ध के सबट्रॉपिक्स में उच्च दबाव वाली हवाएं चलती हैं, जिसे सब-ट्रॉपिकल रिज कहा जाता है। सब-ट्रॉपिकल रिज के दक्षिणी किनारे पर शक्तिशाली वेस्टरली विंड (पश्चिम से आने वाली हवा) बहती है। इस हवा के दक्षिणी और उत्तरी स्थानांतरण को भी एसएएम कहा जाता है।
अगर हवा का स्थानांतरण सामान्य स्थिति से शिफ्ट हो जाता है और यह ऑस्ट्रेलिया के मौसम को प्रभावित कर सकता है। एसएएम का ऑस्ट्रेलिया की जलवायु पर बहुत अधिक प्रभाव है और अगर तीन फेज़ में से कोई भी लंबे समय तक रहता है तो वहां के मौसम में काफी अधिक बदलाव हो जाते हैं। इसके चलते ऑस्ट्रेलिया में बारिश पर भी फर्क पड़ रहा है।
फिलहाल सदर्न एनुलर मोड नेगेटिव फेज़ में है, क्योंकि जंगल की आग नवंबर और दिसंबर में भी जारी है। इस फेज़ के बनने का कारण अंटार्कटिका के ऊपर समताप मंडल में अचानक से गर्म हवाओं का बढ़ना है। इसके चलते ऑस्ट्रेलिया में बारिश कराने के लिए ज़िम्मेदार वेस्टरली विंड ऑस्ट्रेलिया में ना जाकर उत्तर दिशा की तरफ बढ़ रही हैं, जिसके कारण पूरे द्वीप में गर्म हवाएं बढ़ रही हैं और जंगल की आग और अधिक बढ़ रही है।
न्यू साउथ वेल्स क्लाइमेट रिसर्च सेंटर के प्रोफेसर मैट इंग्लैंड के मुताबिक,
ऑस्ट्रेलिया में जिस तरह से एसएएम के फेज़ में बदलाव हो रहा है वह देश के लिए विशेषतया दक्षिण-पूर्व ऑस्ट्रेलिया के लिए अच्छा नहीं है।
ऑस्ट्रेलिया में बुशफायर की आगे क्या संभावनाएं हैं?
जलवायु संबंधित अध्ययन इस बात को प्रमाणित करते हैं कि जैसे-जैसे ग्रीनहाउस गैसों का उत्सर्जन बढ़ेगा वैसे-वैसे एक्सट्रीम बुशफायर इवेंट्स बढ़ेंगे। ऑस्ट्रेलियाई विज्ञान अकादमी के अध्यक्ष प्रो जॉन शाइन ने बीते शुक्रवार को कहा कि आग लगने की घटनाओं के लिए ऑस्ट्रेलिया को अपनी जलवायु मॉडलिंग क्षमता और आग के व्यवहार को समझने की आवश्यकता होगी जो जलवायु परिवर्तन के कारण अधिक तीव्र हो जाएगी।
उन्होंने कहा कि अगर सदी के अंत तक ग्लोबल वॉर्मिंग का तापमान 1.5°C रखना है तो ऑस्ट्रेलिया को जलवायु परिवर्तन को रोकने के लिए और कड़े कदम उठाने की ज़रूरत है।
ऑस्ट्रेलिया के जंगलों में लगी आग का न्यूज़ीलैंड से लेकर भारत तक हो सकता है असर
हमें एक बात हमेशा याद रखनी होगी कि वायु का कोई बॉर्डर नहीं होता है और यह बहुत दूर तक जाती है और जलवायु को प्रभावित करती है। ऑस्ट्रेलिया में लगी आग से वहां से 2000 किलोमीटर दूर स्थित न्यूज़ीलैंड भी प्रभावित हो रहा है और यह वहां के ग्लेशियर्स को पिघलने की दर बढ़ा रहा है। जब ग्लेशियर्स पिघलेंगे तो इसका प्रभाव दुनियाभर में होगा क्योंकि समुद्री जलस्तर बढ़ने से सिर्फ न्यूज़ीलैंड प्रभावित नहीं होगा बल्कि मुंबई, कोलकाता जैसे शहर भी प्रभावित होंगे।
ऑस्ट्रेलिया के जैसे ही भारत में कैसे हो सकता है जंगलों पर प्रभाव
अगर जंगल की आग से होने वाले नुकसान की भारत में बात की जाए तो इसका प्रभाव कई जगह स्पष्टता से देखा जा सकता है। अमेरिकी सरकार के उपग्रहों मॉडरेट रेज़ॉल्यूशन इमेजिंग स्प्रेक्टोमीटर (एमओडीआईएस) और सोमी नैशनल पोलर-ऑर्बिटिंग पार्टनरशिप (एसएनपीपी-वीआईआईआरएस) द्वारा लगातार निगरानी और अन्य व्यवस्थाओं के बावजूद नवंबर 2018 से फरवरी 2019 के बीच आग लगने की घटनाएं 4,225 से बढ़कर 14,107 हो गईं।
आग लगने के कारण सबसे ज़्यादा नुकसान वहां रह रहे निर्दोष जानवरों को होता है। द हिंदू अखबार में अप्रैल 2019 में एक रिपोर्ट छपी थी, जिसमें बताया गया था,
ओडिशा में अचानक आग लगने की घटनाओं में बढ़ोतरी हुई है, जिसके कारण राज्य के फ्लोरा और फ्योना पर काफी अधिक प्रभाव पड़ा है। फ्लोरा और फ्योना का मतलब एक विशेष क्षेत्र में रहने वाले जीव-जंतुओं से होता है।
ओडिशा का फ्लोरा और फ्योना काफी विविध है। ओडिशा में ऑर्चिड्स और मैंग्रोव्स की बहुत दुर्लभ प्रजातियां हैं।
जंगलों को बचाए रखने में मैंग्रोव्स की भूमिका और ग्रीनहाउस गैसों से मैंग्रोव्स पर बुरा असर
मैंग्रोव्स समुद्री पानी को बांधे रखते हैं जबकि ऑर्चिड्स पर्यावरण बदलावों के प्रति काफी संवेदनशील होते हैं। ऑर्चिड्स को पेड़ों की दुनिया का पांडा भी कहा जाता है।
अगर ओडिशा के फ्योना की बात करें तो यहां के जंगलों में रोयल बंगाल टाइगर, एशियाई हाथी, लेपर्ड्स, भौंकने वाले हिरन, माउस हिरण, उड़ने वाली बिल्ली (फ्लाइंग कैट), स्लॉथ बीयर, जंगली कुत्ते मिलते हैं। इनमें से कुछ जानवर ऐसे हैं कि वे सिर्फ यहां या बहुत गिनी-चुनी जगहों में मिलते हैं। ऐसे में इनके आवास (जंगल) में आग लगती है तो पारिस्थितकी तंत्र गड़बड़ाने के साथ-साथ जीव-जंतुओं के संतुलन पर भी बुरा प्रभाव पड़ेगा। कुछ जीवों की संख्या अधिक हो जाएगी।
अगर इस मामले में उत्तराखंड की बात की जाए तो एक आरटीआई के जवाब में उत्तराखंड सरकार ने बताया था,
2000 में उत्तराखंड के एक अलग राज्य बनने के बाद अब तक 44,000 हेक्टेयर वन्य क्षेत्र आग के कारण नष्ट हो चुके हैं जो तकरीबन 61,000 फुटबॉल फील्ड्स के बराबर हैं।
मुंबई जैसे तटीय शहरों में अगर मैंग्रोव जंगल की बात की जाए तो मुंबई में इन जंगलों का बहुत अधिक महत्व है। पर्यावरणविदों की मानें तो अगर मैंग्रोव जंगल नहीं बचे तो मुंबई भी नहीं बचेगा। मुंबई में 2005 में विनाशकारी बाढ़ आई थी जिसके कारण 1000 से ज़्यादा लोगों की मौत हो गई थी। हालांकि, कुछ इलाके बाढ़ से बच गए थे क्योंकि वहां मैंग्रोव पेड़ बहुतायत में थे।
मैंग्रोव वन के कम होने के कारण मुंबई के कुछ बचे तालाबों में कई मछलियां अब गायब हो गई हैं। मैंग्रोव को समुद्र की रसोई कहा जाता है लेकिन ग्रीनहाउस गैसों के कारण बढ़ते प्रदूषण और अतिक्रमण से हालात बदतर हो रहे हैं। मैंग्रोव महाराष्ट्र के इको-सिस्टम का अहम हिस्सा है।
सुंदरबन के मैंग्रोव जंगल की महत्ता के बावजूद हाल के कुछ वर्षों में इनकी कटान में तेज़ी हुई है और रिपोर्ट्स के अनुसार, बीती एक शताब्दी के दौरान सुंदरबन इलाके में 40% मैंग्रोव वनों का सफाया हो गया जिसके चलते सुंदरबन डेल्टा के साथ-साथ कोलकाता के लिए भी खतरा बढ़ रहा है। यह खतरा तब और अधिक हो जाएगा जब बढ़ते समुद्री तापमान की वजह से ऐसे चक्रवाती तूफान के आने की संख्या बढ़ जाएगी।
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सोर्स- https://www.iucn.org/, visitodisha, DW हिंदी, Dw.com, www.bom.gov, www.insider.com/, www.vox.com/science-and-health, https://edition.cnn.com/, www.theguardian.com/, https://www.telegraph.co.uk/, Bureau of Meteorology