जब हम 20वीं शताब्दी में गाँधी के अहिंसात्मक आंदोलन का स्मरण करते हैं तो पाते हैं कि ब्रिटिश अंग्रेज़ जिन्होंने सैंकड़ों वर्षों तक हमारे देश को गुलाम बना कर रखा था। उनके पास आधुनिक हथियार प्रचुर मात्रा में उपलब्ध हुआ करते थे। वे भारतीय भाषा को कम और अपनी मातृभाषा अंग्रेज़ी को ज़्यादा महत्व देते थे। फिर भी भारतीयों ने अपने अहिंसा वाले आंदोलनों से ब्रिटिश शासन को हिलाकर रख दिया था।
उस समय भारत अलग-अलग देसी रियासतों में बटा हुआ था। जिसका आपसी तालमेल नहीं होना भी गुलामी के कारणों में से एक था।
देश को आज़ाद कराने के लिए अनेकों आंदोलन हुए, जिसमें कुछ असफल भी रहे। फिर भी लोग हार नहीं माने लगातार प्रयास करते रहे। तभी बीसवीं शताब्दी के दूसरे दशक में अचानक एक व्यक्ति का भारत में आगमन होता है। उसके बाद गाँधी का मार्ग बनकर उभरने लगता है।
गाँधी का मार्ग
दक्षिण अफ्रीका में गाँधी वकालत की शुरुआत कर चुके थे लेकिन वहां श्वेत और अश्वेत का भेदभाव चरम पर था। जिसका दंश उन्हें भी झेलना पड़ा। उसके बाद वे अपना रास्ता बदल कर सत्य अहिंसा के मार्ग पर चल पड़े और अपने स्वदेश भारत लौट आए।
यहां आने पर गाँधी ने देखा कि ब्रिटिशों द्वारा भारतीयों का अनेकों तरह से शोषण किया जा रहा है। तब उनका मानना था कि हम भारतीय ब्रिटिशर्स के आधुनिक हथियारों के सामने बहुत देर तक नहीं ठहर पाएंगे। इस कारण उन्होंने अहिंसात्मक आंदोलन प्रारंभ किया। बाद में यही आंदोलन सत्य के मार्ग पर चलकर कारगर साबित हुआ और अंततः 15 अगस्त 1947 को हमारा देश आज़ाद हुआ।
सत्य, अहिंसा और गाँधी
हमारे देश के अतीत की ओर नज़र दौड़ा कर देखें तो पाएंगे कि ‘भारत की भूमि अहिंसा की भूमि है। लेकिन इसका पतन गाँधी के जीवन काल से ही प्रारंभ हो चुका था।
राजनीति में वाणी का अवमूल्यन व सिद्धांत विहीन राजनीति का खेल प्रारंभ हो चुका था। सत्य और अहिंसा के बल पर मिली हुई आज़ादी को लोग विस्मृत करने लगे थे। जाति, धर्म, संप्रदाय के नाम पर वोटों का सिलसिला चल पड़ा। बाद के दिनों में इसे सांप्रदायिक तनाव के रूप में भी देखा गया। सता ‘जन’ के हाथों से छीनकर कुछ व्यक्तियों या सरकार के हाथों में सौंप दी गयी।
गाँधी का रास्ता त्याग और सहिष्णुता का रास्ता था। गाँधी की सत्ता महान लक्ष्य को नैतिक बल द्वारा प्राप्त करने की सत्ता थी। गाँधी की सत्ता कथनी और करनी का एकरूपता प्रदान करने का रास्ता था। आज की राजनीति इन बातों के विपरीत चलने वाला स्वार्थ और सत्ता लोलुपता तथा कथनी और करनी के भेद करने वाली राजनीति है।
राजनीति और नैतिकता का संबंध बस इतना ही है कि जनप्रतिनिधियों की सूची में हत्या और बलात्कार के अभियुक्तों तस्करी और धोखाधड़ी के आरोपों में फंसे बदनाम लोगों के नाम आसानी से ढूढ़े जा सकते हैं।
यदि आज गाँधी हमारे बीच होते तो उनका अनशन कभी समाप्त होने का आश्वासन पाकर नहीं रह जाता, बल्कि उसे और ज़ोरों पर ले जाने की ओर अग्रसर नज़र आते।
भारतीय राजनीति में इस विकृत स्वरूप की चर्चा से हमें भटकना नहीं चाहिए कि गाँधी के सत्य अहिंसा की हार है। बल्कि गाँधी की मार्ग अब भी अबुझ दीप-शिखा की तरह हम सबको रोशनी देते रहेंगे।
राजनीति चाहे जितनी भी भटक जाए लेकिन उसे एक दिन गाँधी के अहिंसा वाले मार्ग पर आना ही होगा। वरना मार-काट व खून के छींटों से किसी के चेहरे की पहचान करना भी मुश्किल होने लगेगा। राष्ट्रपति बापू ने सच ही कहा है,
धरती मनुष्य की ज़रूरतों को पूरा कर सकती हैं,लालच को नहीं।