हिजाब-ए-फ़ित्ना-परवर अब उठा लेती तो अच्छा था,
तू इस आंचल से इक परचम बना लेती तो अच्छा था।।
1913 में अमेरिका के वॉशिंगटन डीसी में लाखों औरतें जमा हुई थीं, वोटिंग के अधिकार के लिए। ब्रिटिश इतिहास का यह सबसे बड़ा प्रदर्शन था, जिसे वीमेंस संडे के नाम से जाना गया।
1976 में आयरलैंड में गृह युद्ध को समाप्त करने के लिए हज़ारों की संख्या में महिलाएं ही उतरीं थीं, इन प्रदर्शनों का ही असर हुआ कि देश में शांति कायम करने में मदद मिली।
1789 में महिलाओं के प्रदर्शन से ही फ्रांसीसी क्रांति की शुरुआत हुई, उन दिनों मामूली ब्रेड की कीमत आसमान छू रही थी और लोग भुखमरी से मर रहे थे। अब बारी भारत की है और शुरुआत शाहीनबाग से हो चुकी है, अंत कहां है यह पता नहीं है।
महिलाओं की ये क्रांति इतिहास से उठकर अब वर्तमान भारत में नज़र आ रही है
कुछ तो बदला-बदला सा लग रहा है, शाहीन बाग से उठने वाली क्रांति की चिंगारी अब पूरे देश के अलग-अलग हिस्सों में बढ़ रही है। लखनऊ का घंटाघर, पटना का सब्ज़ी बाग, बरेली का इस्लामिया कॉलेज, देवबंद का ईदगाह मैदान, भोपाल का इकबाल मैदान, इंदौर का बदवाली चौक भी अब शाहीन बाग बनने की तर्ज़ पर है।
कमाल की बात यह है कि यहां धरने पर बैठने वाली महिलाएं वहीं हैं, जिनको कुछ दिन पहले घर से बाज़ार जाने के लिए भी किसी-ना-किसी से इजाज़त लेनी होती थी। इससे पहले इन्होंने कभी तेज़ आवाज़ में बात नहीं की लेकिन आज औरतों का यह हुजूम हाथों में तिरंगा लिए सरकार के खिलाफ इंकलाब के नारे लगा रहा है। ये औरतें बता रही हैं कि यह देश उनका था, है और मरते दम तक रहेगा।
मशहूर अमेरिकी पॉलिटिकल एक्टिविस्ट एंजेला वाई. डेविस ने कहा है,
कई बार हमें कोई काम करना पड़ता है, भले ही हमें क्षितिज पर कोई चमक दिखाई ना दे कि यह सचमुच में संभव होने वाला है, जो संभव नहीं, उसी असंभव को संभव बनने की कोशिश कर रहा है शाहीन बाग। हम उसे सिर्फ आमीन कह सकते हैं।
आपको जानकर भले ही हैरानी हो लेकिन ये वही औरतें हैं, जो अंधेरा होने के बाद घर से बाहर निकलने से पहले थोड़ा घबराती थीं। प्रदर्शन करने वाली ज़्यादातर महिलाएं मुस्लिम समुदाय से हैं, जिनको लेकर यह माना जाता है कि इनपर बंदिशें ज़्यादा होती हैं, आज़ादी कम मिलती है लेकिन पिछले लगभग एक महीने से कड़कड़ाती ठंड में रातभर खुले मैदानों में, टेंट के नीचे बैठकर शांतिपूर्ण तरीके से अपना विरोध जता रही हैं।
घर के कामकाज और ज़िम्मेदारियों में उलझी इन औरतों के लिए खुद के लिए भी समय निकालना मुश्किल था लेकिन आज देखिए तो इन्होंने अपना वह पूरा वक्त देश को सौंप दिया है।
हम भारत के लोग CAA, NRC, NPR को नहीं मानते हैं।
कई बार आंदोलन को रोकने के लिए उसे गलत दिशा में दिखाने की कोशिश की गई, लोगों ने ट्रैफिक की शिकायत की, मामला कोर्ट गया लेकिन विरोध की आवाज़ और तेज़ होती गई।
गुरूर को जलाएगी वह आग हूं, आकर देख मुझे, मैं शाहीन बाग हूं, जिन्हें नाज़ है हिंद पर वो कहां हैं? यहां हैं, यहां हैं, यहां हैं।
अपनी आवाज़ उठाती महिला के चरित्र पर हमला करना इस समाज की फितरत है
अगर किसी तेज़ी से आगे बढ़ती महिला की रफ्तार को कम करना हो तो उसके चरित्र पर हमला करना इस समाज के लिए आम है। यहां भी यही हुआ सोशल मीडिया पर शाहीन बाग की बिकाऊ औरतें जैसे ट्रेंड चले, ट्विटर और फेसबुक पर बलात्कार की धमकियां मिलीं, भद्दी केंट्स और गालियों से नवाज़ा गया।
इन सबके बावजूद भी प्रदर्शन जारी रहा। यह भी कहा गया कि इन महिलाओं को मुद्दे पता नहीं हैं, बस उकसाया गया है इन्हें प्रोटेस्ट के लिए इसलिए 500 रुपए और बिरयानी के लिए सड़कों पर उतर आई हैं लेकिन इनके मुंह से नागरिकता संशोधन की व्याख्या सुनकर वह पैंतरा भी विफल हो गया।
प्रदर्शन को रोकने के लिए लिया गया पुलिस का सहारा
प्रदर्शन को खत्म करने के लिए सरकार ने एक बार फिर पुलिस का सहारा लिया। लखनऊ में घंटाघर के सामने प्रदर्शन कर रही महिलाओं से पुलिस ने कंबल छीने, भले ही इसपर पुलिस ने सफाई दी हो लेकिन सोशल मीडिया के दौर में तस्वीरें और वीडियो सारी कहानी बयां कर देती हैं।
अलीगढ़ में पुलिस ने 70 महिलाओं के खिलाफ FIR भी दर्ज की है लेकिन इन सबने जैसे इन महिलाओं की हिम्मत को और भी बढ़ा दिया हो कि अब तो किसी भी कीमत पर नहीं रुकना है।
समाज में व्याप्त कई भ्रम को तोड़ रही हैं ये महिलाएं
इस प्रदर्शन में भागीदार ये क्रांतिकारी महिलाएं आज़ादी की किताब में एक नया अध्याय जोड़ रही हैं, इन्होंने कई भ्रम भी तोड़े हैं, जैसे घरेलू महिलाओं को देश-दुनिया से कोई मतलब नहीं, वे अपने टीवी सीरियल और गृहस्थी में ही खुश हैं।
और तो और जिस धर्म के आधार पर देश को बांटने की कोशिश की जा रही है, वही घंटाघर, शाहीनबाग और तमाम मैदानों में उतरी हर धर्म व मज़हब की ये महिलाएं कंधे से कंधा मिलाकर इस मंसूबे को भी चुनौती दे रही हैं। उनकी बुलंद आवाज़ें यह साफ-साफ कह रही हैं कि प्रदर्शन, विरोध सिर्फ पुरुषों का काम नहीं है।
हम उन तमाम क्रांतिकारी लड़कियों को नहीं भूल सकते हैं, जो JNU और जामिया में अपने अधिकारों के लिए आवाज़ बुलंद कर रही हैं, ना ही उन आदिवासी महिलाओं के विरोध को जो अपनी ज़मीन को बचाने के लिए आगे आई हैं।
हमें यह मान लेना चाहिए कि क्रांति कोई मर्दाना काम नहीं है, जो सिर्फ पुरुष ही कर सकता है। हम सदियों से महिलाओं के आगे आने की बात कर रहे हैं और जब आज वे हिम्मत करके अपने बच्चों को सीने से चिपकाकर सड़कों पर उतरी हैं, नारे लगा रही हैं, अपनी बात आगे रख रही हैं, तो हम उन्हें बिकाऊ और चरित्रहीन बताकर नज़रअंदाज़ कर रहे हैं।