पांच जनवरी के बाद सब बदल गया है, सब कुछ बदल गया है। JNU मुझे मेरे घर से ज़्यादा सुरक्षित लगता था, अब नहीं लगता। हल्की सी आवाज़ शरीर में सिहरन पैदा कर देती है।
कल रात गंगा ढाबा गई थी, वहां भैया ने रोज़ की ही तरह ज़ोर से चिल्लाया “दो पराठे लीजिए” लेकिन इस आवाज़ से भी सहम सी गई। अचानक दिमाग में ख्याल आया कि अगर उसी दिन की तरह अभी गुंडे मारने दौड़ेंगे तो कहां छुपा जा सकता है?
कैंपस के भीतर, बाहर हर जगह दो-चार लोगों को झुंड में देखकर घबराहट सी होने लगती है। कैंपस मेन गेट से बाहर निकलते ही सामने भड़काऊ पोस्टर लगे हुए दिखे। पुलिस की मौजूदगी में रात को किसी ने वो पोस्टर लगा दिए, जिसमें साफ-साफ धमकियां लिखी गई थीं। उस दिन से सुकून नहीं मिला, रात में ठीक से नींद भी नहीं आ रही।
सड़क पर चलते समय यही लगता है कि पता नहीं कब कौन हमला कर दे और कब भागना पड़ जाए। फिर सोचने लगती हूं, पिछले कुछ दिनों से बीमार भी थी, कमज़ोरी आ गई है, अगर भागना पड़ा तो भाग भी पाऊंगी या नहीं। अगर नहीं भाग पाई तो क्या होगा? वहीं ना जो ओइशी के साथ हुआ, या जान भी तो जा सकती है?
उस दिन यह सोचकर अपने प्रोफेसर्स के पास खड़ी थी कि उनपर थोड़े ही कोई हमला करेगा, वह भ्रम भी टूट गया। पहले भी दिल्ली पुलिस की लाठियों से बचकर भागे हैं, लोगों के सिरों से टपकता खून भी देखा है लेकिन उस दिन जो हुआ वो कहीं-ना-कहीं घर कर गया है। शायद इसलिए कि जिस जगह को मैं सबसे सुरक्षित मानती थी, वहां यह सब होना मेरे लिए अप्रत्याशित था। मैं या शायद कोई भी उसके लिए तैयार नहीं था। हमारे लिए वह सदमा था, बहुत बड़ा सदमा।
एक बेहद खूबसूरत, जीवंत और शांत कैंपस को युद्ध भूमि में तब्दील कर दिया गया है। चाय, चर्चा और ढाबों से भला किसी का क्या नुकसान हो सकता है? JNU को देशद्रोहियों, आतंकवादियों, नक्सलवादियों का अड्डा बताने वालों से गुज़ारिश है, एक बार यहां आकर देखिए। इतने प्यारे, अनोखे और ज़िंदादिल लोग मुझे तो कहीं नहीं मिले।
मानवता के लिए इतना प्यार मैंने कहीं नहीं देखा। मैं और मेरे जैसी दूसरी हज़ारों लड़कियों के लिए पूरे देश में सिर्फ यही एक जगह थी, जिसे हम सच में अपना मान सकते थे, जहां रात के तीन बजे खुलकर हम घूम सकते थे, जहां के मर्द हमें डराते नहीं थे बल्कि हमारे साथ हाथों में हाथ डाले मिलकर लड़ा करते थे।
यहीं वह जगह थी, जहां हमें हमारे कपड़ों, हमारी भाषा, हमारे एक्सेंट पर जज किए जाने का डर नहीं था। जहां हम गलतियां करने में हिचकिचाते नहीं थे, हमें पता है कि आसपास के साथी गलतियां करने पर टोक देंगे। हम यहां वो हो सकते थे, जो हम सच में हैं।
इस कैंपस ने मुझे मेरी सच्चाई स्वीकारने की हिम्मत दी। मुझे पहली बार लगा कि इस दुनिया में कोई ऐसी जगह है जहां मैं, मैं हो सकती थी, मैं अपनी कमियां पहचान सकती थी और मुझे उन कमियों के लिए गिल्ट नहीं महसूस करवाया जाएगा।
9 फरवरी के बाद कैंपस में डिप्रेशन और स्ट्रेस के केसेज़ बढ़ने लगे हैं
9 फरवरी से हमारे दिमाग में इस डर को भरे जाने की साज़िश शुरू हुई। कैंपस में डिप्रेशन और स्ट्रेस के केसेज़ बढ़ने लगे। मानिए या ना मानिए बार-बार लोगों की गालियां, भद्दी टिप्पणियां सुनना आहत करता है। हमारी सकारात्मक ऊर्जा को बाहरी माहौल ने चूस लिया है। हमारा कैंपस, हमारा घर हमसे छीन लिया गया था। हमारी बेफिक्री, हमारी स्वच्छंदता पर ताला लगा दिया गया। पांच जनवरी ने बचा खुचा अमन-चैन भी हर लिया।
मेरे एक मुस्लमान दोस्त पर इस घटना का बुरा असर
मेरा एक मुसलमान दोस्त है। उस दिन जो भी हुआ उसकी वजह से उसने अपनी सुध-बुध खो दी। उस दिन वो साबरमती में भागकर चला गया था। पता नहीं उसने क्या देखा लेकिन उस दिन से कह रहा है कि मैं दुनिया के किसी भी कोने में चला जाऊं, वह मुझे छोड़ेंगे नहीं। बार-बार कह रहा है, मैं तो मुस्लमान हूं, वो डिटेंशन कैंप में डाल देंगे मुझे। लोगों की आहट से डर रहा है वो, ऐसी हालत कर दी है इन लोगों ने।
सूना पड़ा गंगा ढाबा, खाली-सुनसान सड़कें, गेट पर चौबीसों घंटे पुलिस और कैंपस के भीतर कैमरा लिए घूमते मीडिया रिपोर्टर, इन सबसे अलग सी घुटन हो रही है, लग रहा है जैसे उल्टी हो जाएगी। लग रहा है हमें छोड़कर कैंपस में सबके लिए जगह है।
इस घटना के अगले दिन से पहले शायद ही कभी ऐसा हुआ हो कि JNU की लाइब्रेरी पूरी तरह खाली पड़ी हो। इतना खौफ, इतना आतंक। जो दिमाग बेहतरीन शोध करने की संभावनाएं लिए यहां आए थे, उनमें स्ट्रेस, डर और निराशा भर दी गई है। समझ नहीं आ रहा कि कैसे इस ट्रॉमा से बाहर आएं।
शाबास सरकार! हम लड़कियों से हमारी आज़ादी छीनने के लिए। हम स्टूडेंट्स के भविष्यों को अंधकार में धकेलने के लिए। हमें जीवनभर का ट्रॉमा देने के लिए। हमसे हमारी शांति और अमन छीनने के लिए। हमसे हमारा JNU छीनने के लिए। आप अपने मंसूबों में कामयाब हुए।
अब, हमें हमारे हाल पर छोड़ दीजिए। अपना शक्ति प्रदर्शन बंद कीजिए। ले जाइए अपनी पुलिस और फोर्स को हमारे गेट से। हम स्टूडेंट पर ज़ोर चलाकर क्या करिएगा। किताब, डफली और कलम ही तो है हमारे पास, जो आपके किसी काम के नहीं। जाइए, चले जाइए,अब और बर्दाश्त नहीं होता है।