प्रस्तुत है “हिन्दू आतंकवाद” सौजन्य है तमाम हिंदू श्रेष्ठता के गायक नव-नाज़ियों का, जिन्होंने हिंदू चरमपंथियों के इस सपने को साकार करने में तन-मन-धन से अपना योगदान दिया है। गौर से देखिये, यही है वह विकराल शक्ति जिसे जगाने के हवन में आप सबने आहुतियां दी हैं।
इसमें पहले से ही किसी शक या संदेह होने की गुंजाईश ही नहीं है कि लम्बे समय से भारत में हिन्दुओं को उग्र और आतंकी बनाने की साज़िश बराबर चल रही है। इसी साज़िश के तहत अहिंसा और शांति का विरोध चल रहा था और गोडसे और सावरकर को महिमा मंडित किया जा रहा था। यह सब इसलिए क्योंकि आदित्यनाथ और साध्वी प्रज्ञा को हमने अभी तक माफ जो नहीं किया है।
लेकिन अब हम कहेंगे,
ज़रा मुस्लिम आतंकवादियों को तो देखो, ईसाईयों द्वारा किये हुए युद्ध तो देखो, जरा वामपंथी स्टालिन और माओ को तो देखो। ये लोग तो दस-दस, बीस-बीस लाख लोगों को मरवा चुके हैं, जबकि हमने तो अभी भारत में सिर्फ शुरू ही किया है और JNU में तो कोई मारा तक नहीं गया। फिर इतना हल्ला करने की क्या ज़रूरत है? चलने दो। अभी हिन्दुओं ने कौनसा अन्य आतंकवाद की बराबरी कर ली है कि हम अपनी आतंकी-उन्नति को उतना सीरियसली लेने लगें।
इस पर नियो-नाज़ियों के लिए क्या कहा जाए?
खुद लंबे समय धर्मांध बना रहा
लेख पढ़ने के ठीक बाद आंख बंद करके एक बार कसाब या हाफिज़ सईद का ध्यान कीजिए, खुद से कहिये कि हर भारतीय मुस्लिम में एक हाफिज़ सईद है, चाहे वह मुहम्मद रफी या अब्दुल कलाम या रहमान क्यों ना हो और उसके बाद भूल जाइये कि भारत नाम के देश में भी कुछ हो रहा है या किसी हिन्दू नामक धार्मिक सम्प्रदाय के चरमपंथियों के बीच भी उग्र और हिंसक कार्यों के प्रति भारी समर्थन उग रहा है।
मुस्लिमों के प्रति इस नफरत को तो मैं जानता हूं क्योंकि मैंने खुद इसे लम्बे समय तक अपने हृदय में स्थान दिया था। वह नफरत तब जाकर खत्म हो पाई जब मुझे यह एहसास बार-बार हुआ कि जिस तरह आप कुछ हिंदू-बहुल क्षेत्रों में अपनी बेटियों का रात 7 बजे के बाद बाहर रहना भय की बात पाएंगे लेकिन पुणे या मुंबई में दस या ग्यारह के बाद लौटना कार्य का हिस्सा हो सकता है।
उसी तरह फिलिस्तीन या ईरान का मुस्लिम समाज लड़कियों के बुरका ना पहनने पर उनका कत्ल तक कर सकता है जबकि भारतीय मुस्लिमों में आपको हुमा कुरैशी, वहीदा रहमान, मधुबाला और नर्गिस के कार्य की सराहना करने वाले ही बहुल मिलेंगे।
हिंदू समाज के साथ एक यह स्थिति भी है कि हिंदू बहुल देश भारत में रहने से वे किसी दूसरे हिन्दू बहुल देश से तुलना करके यह नहीं देख पाते कि भारतीय-हिन्दू और (मान लीजिये कि) कैलासा हिन्दू या नेपाली हिंदू के समाज संस्कृति और व्यवहार में ज़मीन आसमान का अंतर होना स्वाभाविक है।
धर्म परिवर्तन किसी साज़िश से नहीं आया
साम्प्रदायिकता फैलाने वाले आपको कुरान की आयतों या ईरान के किसी बंदे के भाषण के हिस्से में “मुस्लिमों का व्यवहार” कहकर दिखा देंगे और अगर आप निरे मूर्ख हैं, तो यह मान भी लेंगे क्योंकि आप यह नहीं देख पाएंगे कि निर्भया के बलात्कारी का नाम राम है, तो उसकी कही हर बात हिंदुओं का विचार नहीं हो जाती। वैसे ही अगर 9/11 के आतंकी पायलट का नाम मुहम्मद है, तो उसका कार्य मुस्लिमों का व्यव्हार नहीं हो जाता।
किसी व्यक्ति का नांम अगर राम है तो ना तो वह श्रीराम हो जाता है और ना निर्भया का बलात्कारी। उसी तरह किसी व्यक्ति का नाम अगर मुहम्मद है तो ना वह मुहम्मद रफी हो जाता है और ना मुहम्मद अत्ता।
मेरा कहना है कि आप सोचें अभी भारत में कौनसा प्रांत है जहां जात-पात नहीं है?
आपको अगर लगता है कि केवल इस्लाम ही इस कदर कट्टर होने की ताकत रखता है कि उससे ISIS बनाई जा सकती है, तो मैं आपको यही कहूंगा कि यह केवल आत्म-श्रेष्ठता से निकला हुआ विचार है। ईसाई बहुल देशों ने ईसाईयत का भी ऐसा ही उपयोग लंबे समय तक किया है और वे तो चर्च की सत्ता बनाने में सफल भी रहे हैं। इसी तरह भारत के अंदर बहुत सा धर्म परिवर्तन किसी साज़िश से नहीं बल्कि दलितों के प्रति हिन्दुओं के व्यवहार से आया है।
धर्मों में अन्तर ज़रूर होता है लेकिन अवसर मिलने पर कहीं भी कट्टरता पनप सकती है और वह किसी भी धर्म से आ सकती है। वह किसी बिना धर्म के व्यक्तिपूजक पंथ से भी आ सकती है, जैसा कि नॉर्थ कोरिया या माओवाद में है।
सिर्फ मुस्लिमों को कट्टर मानने वाली सोच से निकलिए
आम तौर पर मुस्लिम वैसे ही इंसान होते हैं, जैसे ईसाई, हिन्दू या सिख होते हैं। तमाम देशों की भौगोलिक राजनैतिक परिस्थितियां वहां की जनता के व्यवहार निर्धारित करती है। जैसे,
- सद्दाम हुसैन से अमेरिका की जंग कुवैत के पेट्रोलियम को लेकर थी लेकिन अपनी जनता को अपने प्रति समर्पित रखने के लिए उसने इराक में कट्टरता बोई,
- इसी तरह ईरान में अयातोल्ला खोमैनी ने किया और सीरिया में असद ने किया।
- सऊदी इसी का उपयोग करता है ताकि पेट्रोलियम की कमाई शेखों की गद्दी के नीचे दबी रहे।
- ओपेक कट्टरता का विरोध नहीं करता क्योंकि इससे वह अमेरिका और यूरोप को हमेशा एक टांग पर खड़ा रख सकता है।
आपको शायद लगता है कि हिंदू और भारत इससे अछूते रह सकते हैं और केवल मुस्लिमों में ही कट्टरता पनप सकती है पर ऐसा नहीं है। तमिल संगठन एलटीटीई हो या नक्सल, ये लोग मुस्लिम नहीं हैं लेकिन भारत में मुस्लिमों से ज़्यादा कट्टर हैं।
अब अगर आप सोचते हैं कि यह हिंदू धर्म के नाम पर नहीं किया जा सकता है, तो वह भी गलतफहमी है। इतिहास में एक उदाहरण तो पुष्यमित्र का है जिसने केवल धार्मिक वितृष्णा की वजह से अहिंसक बौद्धों का नरसंहार किया था और दूसरा उदाहरण सिख नरसंहार का है।
इसलिए मेरा कहना है कि आप अगर मुस्लिम को ही हर चीज़ का दोषी कहकर सारा ध्यान उस तरफ लगाए रहेंगे, तो आप बड़े स्तर पर चलते राजनैतिक खेल को देखने में अक्षम रहेंगे।
कट्टरता दरअसल मानवीय व्यवहार और मानवीय समाज की समस्या है और इसे समझने के लिए यह देखना ज़्यादा ज़रूरी है कि किस तरह के भय, विविधता से असहजता, असहिष्णुता, आत्मगौरव, इतिहास का एकरूपीकरण, अशिक्षा और जागरूकता की कमी किसी भी इंसानी समूह को कट्टरता के रास्ते जाने को प्रेरित कर सकते हैं।
अगर वे अशिक्षित, गैर जागरूक, असहिष्णु और भयभीत हैं तो उन्हें आप कट्टरता के लिए कोई भी लॉलीपॉप पकड़ा सकते हैं। फिर चाहे वह कुरान- ज़िहाद हो, क्रूसेड हो, श्वेत-श्रेष्ठता हो, हिन्दू-राष्ट्र (गोडसे की पत्रिका का नाम) हो, माओवाद हो, किम-जोंग-उन हो, रॉबर्ट मुगाबे हो, ईदी अमीन हो, डॉनाल्ड ट्रंप हो, तमिल-अधिकार हो, आदिवासी आंदोलन हो या फिर गोधरा या मस्जिद-ध्वंस की प्रतिक्रिया हो।