हाल ही में अमेरिकी राष्ट्रपति डॉनल्ड ट्रंप ने दावोस (स्विट्ज़रलैंड) में वर्ल्ड इकोनॉमिक फोरम की बैठक में दुनिया के नेताओं को संबोधित करते हुए कहा था कि वे प्रलय (कयामत) की भविष्यवाणी करने वाले क्लाइमेट ऐक्टिविस्ट्स की बातों को ना सुनें।
उन्होंने कहा,
कल की बेहतर संभावनाओं को अपनाने के लिए इन्हें (ऐक्टिविस्ट्स) नकारना होगा और अमेरिका 2050 तक 1 लाख करोड़ पेड़ लगाएगा।
उन्होंने यह भी कहा,
हम कभी भी कट्टर (पर्यावरण) कार्यकर्ताओं को अपनी अर्थव्यवस्था को बर्बाद करने नहीं देंगे।
ट्रंप इससे पहले भी कई बार पर्यावरण को लेकर क्लाइमेट ऐक्टिविस्ट्स को खरी खोटी सुना चुके हैं। राष्ट्रपति ट्रंप जब यह बात बोल रहे थे कि तो उस समय 17 वर्षीय स्वीडिश पर्यावरण कार्यकर्ता ग्रेटा थनबर्ग भी वहां मौजूद थीं।
ग्रेटा ने दिया करारा जवाब
राष्ट्रपति ट्रंप के भाषण के जवाब में ग्रेटा थनबर्ग ने अमेरिकी राष्ट्रपति डोनाल्ड ट्रंप का नाम लिए बिना कहा,
1 लाख करोड़ पेड़ लगाना काफी नहीं है। मैंने एक साल पहले वर्ल्ड इकोनॉमिक फोरम की बैठक में कहा था कि हमारे घर जल रहे हैं, अब भी यही हाल है। आपका कुछ ना करना आग की लपटों को बढ़ा रहा है।
उन्होंने कहा,
अगर आपने अपने बच्चों को प्यार किया है तो कुछ करें।
ग्रेटा ने यह भी कहा कि कोई भी राजनीतिक विचारधारा या अर्थव्यवस्था जलवायु व पर्यावरण के आपातकाल से निपटने और एक स्थायी दुनिया बनाने में कामयाब नहीं हुई है।
ग्रेटा ने इस दौरान वैश्विक नेताओं को संबोधित करते हुए कहा,
मैं स्पष्ट कर दूं कि हमें लो कार्बन इकोनॉमी की ज़रूरत नहीं है, हमें कार्बन उत्सर्जन कम करने की ज़रूरत नहीं है, विश्व पटल पर कार्बन उत्सर्जन रुकना चाहिए, अगर इस सदी के अंत तक वैश्विक तापमान बढ़ोतरी का लक्ष्य 1.5 डिग्री सेल्सियस से कम रखना है। मैं यहां मौजूद सभी कंपनियों, बैंक, संस्थाओं और सरकार के प्रतिनिधियों से कहना चाहती हूं कि वे तुरंत जीवाश्म ईंधन के उत्खनन में सभी निवेश रद्द करें, इसमें मिल रही सभी छूट रद्द करें। हम यह नहीं चाहते कि ये सभी चीज़ें साल 2050 तक हों, या 2030 अथवा 2021 तक, हम ये सब अभी चाहते हैं।
पर्यावरण संरक्षण पर डोनाल्ड ट्रंप से बात करना समय की बर्बादी है
ग्रेटा पेरिस जलवायु समझौते से अमेरिका के हटने को लेकर कह चुकी हैं कि राष्ट्रपति ट्रंप से बात करना समय की बर्बादी है। दरअसल, पर्यावरण कार्यकर्ता ग्रेटा थनबर्ग से एक इंटरव्यू में पूछा गया था कि वह सितंबर में हुए यूएन समिट में पेरिस जलवायु संधि से अमेरिका को अलग करने को लेकर राष्ट्रपति डोनाल्ड ट्रंप से क्या कहतीं। इस पर उन्होंने कहा,
मैं कुछ नहीं कहती, क्योंकि वह वैज्ञानिकों और विशेषज्ञों की नहीं सुन रहे थे तो मेरी क्यों सुनते? अपना समय बर्बाद नहीं करती।
अब सवाल उठता है कि अमेरिका के पेरिस जलवायु संधि से बाहर निकलने पर क्या फर्क पड़ा है, क्या अमेरिका अपने वादों से मुकर रहा है जबकि वह एक बड़ा कार्बन उत्सर्जक देश है। क्या वर्तमान राष्ट्रपति डोनाल्ड ट्रंप के समय अमेरिका इस संधि का प्रबल विरोधी हो गया या अमेरिका पहले भी कई बार ऐसा कर चुका है?
पर्यावरण सुरक्षा के मामले में अमेरिका का क्या रुख रहा है?
पर्यावरण सुरक्षा को लेकर अमेरिका का शुरुआत से ही यही रवैया रहा है कि देश हित पहले और बाकी चीज़ें बाद में। 1992 में जब संयुक्त राष्ट्र (यूएन) के जलवायु समझौते पर (क्लाइमेट कन्वेशन) पर हस्ताक्षर हुए तो अमेरिका ने उस समय ग्रीनहाउस गैसों के उत्सर्जन को लेकर किसी भी प्रकार की सीमा लगाने का विरोध किया था।
अमेरिका से जब भी इन गैसों के उत्सर्जन को कम करने की बात कही जाती तो वह हमेशा राष्ट्रीय संप्रभुता की बात करने लगता। इसके बाद, 1997 में अमेरिका क्योटो संधि में शामिल होने के तैयार हो गया, जिसके लिए अमेरिका ने कई छूट हासिल की थीं।
क्योटो समझौते में केवल विकसित व धनी देशों के लिए कार्बन और ग्रीनहाउस गैसों के उत्सर्जन में कमी के बाध्यकारी लक्ष्य तय किए गए थे जबकि भारत और चीन जैसे विकासशील देशों के लिए ऐसे प्रावधान नहीं थे। हालांकि, उसने 1997 तक इस संधि पर हस्ताक्षर नहीं किए।
1998 में अमेरिका में डेमोक्रेटिक पार्टी की सरकार थी और इस बीच अमेरिकी उप-राष्ट्रपति अल गोर ने 1998 में अमेरिका की ओर से इस संधि पर हस्ताक्षर किए। हालांकि, डेमोक्रेटिक सरकार संसद में इस संधि के औपचारिक अनुमोदन के लिए सीनेट में 2/3 बहुमत नहीं जुटा पाई। जब अमेरिकी राष्ट्रपति बिल क्लिंटन के बाद रिपब्लिकन पार्टी के जॉर्ज डब्ल्यू. बुश राष्ट्रपति बने तो पूरी स्थिति ही बदल गई।
पिता जॉर्ज बुश की तरह जूनियर बुश भी इस संधि के विरोधी थे। जूनियर बुश विकासशील देशों को फोसिल ईंधन (जीवाश्म ईंधन) जलाने और अपनी अर्थव्यवस्था को बढ़ाने की छूट देने के संधि के प्रावधानों के खिलाफ थे। 2005 में अमेरिका क्योटो प्रोटोकॉल से बाहर निकल गया।
हालांकि, इस दौरान रूस और 55 देशों ने इस संधि पर हस्ताक्षर कर दिए थे। इस प्रोटोकॉल की जगह एक दूसरी संधि करने के लिए अमेरिका, भारत, रूस और चीन समेत दुनियाभर के नेता एकत्रित हुए लेकिन यह सम्मेलन भी विफल हो गया। इसका सबसे बड़ा कारण यह था कि चीन और भारत समेत सभी देशों को कार्बन कटौती के लिए सक्रिय कदम उठाने के मसले पर आम सहमति ना बन पाना।
नई जलवायु संधि को लेकर सम्मेलन होते रहें और 2015 में पेरिस जलवायु समझौते के लिए अमेरिका, चीन और भारत समेत 195 देश एकत्रित हुएं। हालांकि, इस बार भी नई संधि पर हस्ताक्षर करने को लेकर अमेरिका नहीं माना। इसके बाद 1 अप्रैल, 2016 में अमेरिका और चीन (दुनियाभर में 40% कार्बन उत्सर्जन के लिए ज़िम्मेदार) ने कहा कि वे इस संधि पर हस्ताक्षर करेंगे।
डोनाल्ड ट्रंप ने पेरिस समझौता को रद्द करने की बात कही थी
दिसंबर 2015 में करीब 190 देशों ने इस पेरिस समझौते को स्वीकार कर लिया था। सितंबर, 2016 में अमेरिका ने इस संधि पर हस्ताक्षर के लिए कार्यकारी आदेश पारित कर दिया। ओबामा के कार्यकाल के बाद जब अमेरिकी राष्ट्रपति डोनाल्ड ट्रंप (रिपब्लिकन उम्मीदवार) राष्ट्रपति उम्मीदवारी के लिए खड़े हुएं, तो उन्होंने पेरिस जलवायु संधि को रद्द करने की बात कही।
अमेरिकी राष्ट्रपति पद के रिपब्लिकन उम्मीदवार डोनाल्ड ट्रंप (70) ने अक्टूबर 2016 में कहा था कि अगर वह चुनाव जीते तो पेरिस जलवायु समझौता रद्द कर देंगे। उन्होंने कहा कि डेमोक्रेट उम्मीदवार हिलेरी क्लिंटन द्वारा समर्थित पेरिस समझौते से एक समय बाद अमेरिकी अर्थव्यवस्था को ₹354 लाख करोड़ ($53 लाख करोड़) का नुकसान होगा और इससे बिजली की कीमतें आसमान छूने लगेंगी।
चुनाव जीतने के बाद अमेरिकी राष्ट्रपति डोनाल्ड ट्रंप के प्रशासन ने कहा कि पेरिस जलवायु संधि अमेरिका के लिए एक बुरा समझौता है। हालांकि, अमेरिकी पर्यावरण संरक्षण संस्था के प्रमुख स्कॉट प्रूट ने उस समय इस बात की पुष्टि नहीं की कि अमेरिका पेरिस जलवायु संधि में शामिल रहेगा या नहीं।
हालांकि, उन्होंने जलवायु परिवर्तन पर अंतरराष्ट्रीय समुदाय के साथ जुड़े रहने की बात ज़रूर कही थी। जून, 2017 में अमेरिकी राष्ट्रपति डॉनल्ड ट्रंप ने इस संधि से अलग होने की घोषणा कर दी। ट्रंप ने उस समय कहा था कि ग्लोबल वॉर्मिंग एक चीनी षड़यंत्र है जो अमेरिकी विनिर्माण क्षमता को कमज़ोर बना देगा।
ट्रंप ने जुलाई 2019 में पेरिस जलवायु समझौते को निष्प्रभावी बताते हुए कहा कि पूर्व ओबामा प्रशासन ने अमेरिकी ऊर्जा पर अनावश्यक और लगातार बोझ डाला है और दुनिया के सबसे अधिक प्रदूषणकारी देशों को अपने तरीके से काम करते रहने की इजाज़त मिली। अमेरिकी राष्ट्रपति डोनाल्ड ट्रंप ने पेरिस संधि के बीच भारत पर यह भी आरोप लगाए कि पेरिस संधि के नाम पर भारत खरबों डॉलर की विदेशी मदद लेता है। हालांकि, भारत ने अमेरिकी राष्ट्रपति डोनाल्ड ट्रंप के आरोपों का जवाब देते हुए कहा था, “भारत ने समझौते पर दबाव या पैसों के लिए दस्तखत नहीं किए हैं।”
अमेरिका के पेरिस जलवायु संधि से बाहर निकलने पर क्या फर्क पड़ा है?
इस सवाल का जवाब जानने से पहले कुछ आंकड़ों पर ध्यान देना ज़रूरी है। 2018 में कार्बन उत्सर्जन के मामले में दुनियाभर में अमेरिका दूसरे स्थान पर रहा और राष्ट्रपति ट्रंप की पेरिस जलवायु समझौते से निकलने की घोषणा के बाद कोयला लॉबी काफी खुश हुई थी।
ग्रीनहाउस गैसों का दूसरा सबसे बड़ा उत्सर्जक देश अमेरिका है। दुनियाभर में अमेरिका इकलौता ऐसा देश है, जिसने पेरिस जलवायु समझौते से बाहर निकलने की घोषणा की है।
अमेरिका आधिकारिक तौर पर इस समझौते से 2020 में बाहर निकलेगा। अंतरराष्ट्रीय ऊर्जा एजेंसी (आईईए) द्वारा जारी वैश्विक ऊर्जा और कार्बन डायऑक्साइड स्थिति रिपोर्ट के अनुसार,
- 2018 में वैश्विक स्तर पर हुए कार्बन डायऑक्साइड गैस के उत्सर्जन में भारत की हिस्सेदारी केवल 7% थी जबकि अमेरिका की 14% थी।
- 2015 में अमेरिका प्रति व्यक्ति उत्सर्जन की मात्रा 20.4tCO2e थी, जो दुनिया के औसत 7.0tCO2e से दोगुनी और भारत से 7 गुना ज़्यादा थी।
स्वतंत्र इकोनॉमिक रिसर्च फर्म Rhodium Group की रिपोर्ट के मुताबिक,
- 2018 में अमेरिका का कार्बन उत्सर्जन 3.4% बढ़ा, जबकि पिछले तीन साल से यह घट रहा था।
- कार्बन उत्सर्जन में यह बढ़ोतरी 2010 के बाद सर्वाधिक है और पिछले दो दशकों में दूसरी सबसे बड़ी बढ़ोतरी है।
- अमेरिका में उत्सर्जन बढ़ने का सबसे बड़ा कारण कोयले का बढ़ता इस्तेमाल है।
- पूर्व राष्ट्रपति बराक ओबामा के कार्यकाल में प्रशासन बिजली की आपूर्ति के लिए कोयला संचालित ऊर्जा संयंत्रों से दूसरे ऊर्जा स्रोतों की तरफ स्थानांतरित हो गया था।
- फर्म के मुताबिक, पेरिस जलवायु समझौते के तहत, अमेरिका 2025 तक कार्बन उत्सर्जन कम करने के अपने लक्ष्यों को पूरा नहीं कर सकेगा।
पिछले 5 साल अमेरिका में सबसे गर्म 5 साल दर्ज हुए
अमेरिकी अखबार द वॉशिंगटन पोस्ट में छपे एक लेख के मुताबिक, जलवायु परिवर्तन पहले से ही अमेरिका के हर सेक्टर और क्षेत्र को प्रभावित कर रहा है और यह पुष्टि अमेरिका की 13 संघीय एजेंसी के शीर्ष वैज्ञानिकों ने कही है।
बतौर संपादकीय, पिछले 5 साल अमेरिका में सबसे गर्म 5 साल दर्ज हुए। प्रदूषण में तेज़ी से कटौती के बिना और जलवायु परिवर्तन से इस सदी के अंत तक हज़ारों अमेरिकियों की जान खतरे में हो सकती है। ट्रंप के कार्यकाल में अमेरिकी एजेंसीज़ ऊर्जा संयंत्रों और कारों के लिए नियमों में ढील दे रही हैं और जीवाश्म ईंधन के उपयोग को बढ़ावा दे रही हैं।
2018 में आई अमेरिकी सरकार की रिपोर्ट में चेतावनी दी गई थी कि जलवायु परिवर्तन के कारण अमेरिकी अर्थव्यवस्था को इस सदी के अंत तक अरबों डॉलर्स का नुकसान हो सकता है जो वहां के कई राज्यों की जीडीपी से अधिक है। बतौर रिपोर्ट, अगर इसके लिए कदम नहीं उठाए गए तो ग्लोबल वॉर्मिंग का प्रभाव स्वास्थ्य से लेकर विनिर्माण क्षेत्र पर पड़ेगा। हालांकि, अमेरिकी राष्ट्रपति डॉनल्ड ट्रंप ने इस रिपोर्ट को ख़ारिज कर दिया था और उन्होंने जलवायु परिवर्तन को चीन द्वारा पैदा किया गया एक ‘झांसा’ बताया था।
अमेरिकी रक्षा मंत्रालय ‘पेंटागन’ का 2018 में एक अध्ययन सामने आया था जिसके मुताबिक,
- दुनियाभर में अमेरिकी सेना के करीब 50% सैन्य अड्डों को जलवायु परिवर्तन से खतरा है।
- हर एक सैन्य अड्डे पर हुए अध्ययन में पता चला कि जलवायु परिवर्तन के कारण आने वाली बाढ़ और सूखे से सैन्य अड्डे का वातावरण प्रभावित हो सकता है, जहां सेना अपने ऑपरेशनों को अंजाम देती है।
जलवायु परिवर्तन से ट्रंप की संपत्ति को भी नुकसान
देश और वहां के वासियों की बात छोड़िए, जलवायु परिवर्तन के परिणामस्वरूप बढ़ते समुद्री जलस्तर से ट्रंप की संपत्ति को ही नुकसान है। विशेषज्ञों का अनुमान है कि समुद्री जलस्तर बढ़ने से सदी के अंत तक अमेरिकी राष्ट्रपति डोनाल्ड ट्रंप की फ्लोरिडा की संपत्ति डूब जाएगी। नैशनल ओशियनिक एंड एटमोस्फेरिक एडमिनिस्ट्रेशन के आंकड़ों के मुताबिक, समुद्री जलस्तर 3 फीट तक बढ़ने से ट्रंप की प्रॉपर्टी का कुछ हिस्सा डूब जाएगा।
जलवायु परिवर्तन के मामले में क्या अमेरिका कुछ भी नहीं कर रहा है?
नहीं ऐसा बिलकुल नहीं है। अमेरिका के प्रशासन की बात की जाए तो यह काफी ज़्यादा विकेंद्रीकृत है। अमेरिका के कई शहरों और राज्यों में स्वच्छ ऊर्जा बढ़ाने के लिए नीतियां बन रही हैं और उनका पालन भी हो रहा है। यूनिवर्सिटी ऑफ मैरीलैंड के सेंटर फॉर ग्लोबल सस्टेनिबिलिटी के निदेशक और अमेरिकी प्लेज रिपोर्ट के मुख्य लेखक नेट हल्टमेन ने बताया कि न्यू मेक्सिको, नवाडा, वॉशिंगटन, न्यूयॉर्क, वॉशिंगटन डी.सी. और प्यूर्तो रिको में नए कानून 100% क्लीन एनर्जी के लक्ष्यों की तरफ इंगित करते हैं, जबकि हवाई और कैलिफोर्निया में पहले से ही ऐसे कानून हैं।
उन्होंने कहा कि इस बात को सोचने का दूसरा तरीका यह है कि पेरिस समझौते से हटने के ट्रंप के फैसले का वास्तविकता में केवल 30% अर्थव्यवस्था और 35% आबादी पर पड़ा है। हालांकि, क्षेत्रीय और प्रांतीय सरकारों के प्रयासों के बावजूद हालिया विश्लेषण यह दर्शाते हैं कि अमेरिका कार्बन उत्सर्जन कम करने के अपने लक्ष्य से अभी काफी पीछे है। अमेरिका में ऊर्जा के दोहन को लेकर जैसी नीतियां और परिस्थितियां हैं, उस हिसाब से अमेरिका इस सदी के अंत तक कार्बन उत्सर्जन को न्यूट्रल नहीं कर पाएगा।
अमेरिका में जलवायु परिवर्तन के क्या प्रभाव पड़ेंगे?
अमेरिकी अंतरिक्ष एजेंसी नासा के मुताबिक, जलवायु परिवर्तन के प्रति अमेरिका संवेदनशील है। जलवायु परिवर्तन से अमेरिका के कृषि क्षेत्र, तापमान, बारिश और बर्फबारी के स्वरुप पर फर्क पड़ेगा। नासा के मुताबिक, जलवायु परिवर्तन से ये प्रभाव अमेरिका में दिखेंगे जो निम्न हैं-
- तापमान में काफी बढ़ोतरी होगी
- Frost-free Season फ्रॉस्ट फ्री सीज़न की अवधि में बढ़ोतरी होगी
- बारिश और बर्फबारी के स्वरुप में बदलाव होगा
- ज़्यादा से ज़्यादा सूखा और लू का सामना करना पड़ेगा
- हरिकेन (समुद्री चक्रवात) और अधिक शक्तिशाली होंगे और इनकी आवृति बढ़ जाएगी
- 2100 तक समुद्री जल स्तर 1-4 फीट बढ़ जाएगा
- आर्कटिक क्षेत्र में बर्फ कम होती जाएगी
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